इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है
सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है
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रात गर्म थी हवा
लू के थपेड़े उड़ रहे थे हर तरफ
आंधी सा हाल था
इतनी धूल उड़ी कि इंसानियत ने बंद कर ली आँखें
अंधेरा कसा रहा चप्पे चप्पे पे.
काले आसमान से एक तारा भी नही निकला
जो टिम-टिमा दे जरा देर के लिए भी.
सुबह सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी.
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वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर
पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको
जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा
अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस
कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.
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23 comments:
aakhir tak aate aate dil jeet liya...
dilip ji ne sach kaha hai!
कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.
बहुत सही बात. देख रही हूं, कविताओं का मूड कुछ बदल सा गया है..
क्या बात है..यह अंदाज भी खूब रहा ओम भाई.
सुंदर रचनाएं !!
यह अंदाज भी खूब रहा .......
@ सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
निष्पक्ष होकर देखना होगा ...हाशिये पर जाने वाले लोग कौन है ....
@ जमीन बेचकर इलाज कराने आये पिकनिक सा अनुभव ...
यथार्थ ने भावुक किया ..
सफाईवाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी ...
शब्दों का नया प्रयोग
अच्छी रचनाएँ ...!!
BAHUT KHUB
BADHAI AAP KO IS KE LIYE
नए शब्द ,नई उपमाये , बहुत सुन्दर
हर बार पढ़ के लगता है अरे ऐसे भी सोचा जा सकता है
आपकी रचनाओं में ज़िन्दगी के हर पहलू जीवंत मिलते हैं
ज़िन्दगी को बयाँ करने का खूबसूरत अन्दाज़्।
हर रचना का अपना अलग ही रंग...बढ़िया प्रस्तुति
रियलिटी कही आपने ......
ज़िन्दगी को बयाँ करने का खूबसूरत अन्दाज़्।
वन्दना जी से पुर्ण रुपेण समर्थित. कविताओँ क मूड बदल सा गय है
और येह बद्लाव बसंत के बयार की मानिन्द है
सत्य
इतनी धूल उड़ रही है कि सूरज भी आँखें बंद कर ले , इंसानियत की तो बात ही क्या है
behad sundar rachna!
क्या नज़रिया है
सुन्दर
doosri wali sabse achchi lagi...
apka to zbab nahi....
Bahut sunder
मेरे तीन चार पसंदीदा ब्लोगों में कुछ गड़बड़ हो गयी है .मोज़िला में नहीं खुल रहे ....घूम कर दूसरे रास्ते से वापस आना पढ़ रहा है.....सफाई वाले ने बाल्टी भर भर के जिंदगी फेंकी....शायद पञ्च लाइन है .......
ओर हाँ पिछली रचना इससे ज्यादा दिल में उतरी है ....
सुख की घड़ी मे अपने उपेक्षित दुखों की फ़िक्र और उपेक्षित लोगों के दुखों के साथ संवाद अपने उसी सुख को उद्देश्य और सार्थकता देने जैसा लगता है..
और तीसरी कविता तो मुझे प्रेमचंद जी की सबसे सशक्त कहानियों मे से एक ’कफ़न’ की याद दिलाती है..उतनी ही तटस्थता और ठंडापन..और उतनी ही मारक..
कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.
ufff
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