Friday, May 7, 2010

गुजरा वक़्त कान के पास आ कर बोलता है...

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पहाड़ों के नीचे की खाई

झील बन गयी थी
खारे पानी की
पर आँखों का बरसना नहीं रुका था

रुका तो वो भी नहीं था...
चला गया था आँखों से निकल कर
जाने किसकी फिक्र थी और कैसी जिद,
पीछे छोड़ गया था
पहाड़ पे बैठी आँखें

पर गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा

हथौड़े उसके भी पड़ते होंगे
और वो भी बरसना चाहता होगा

पर उसकी खाई कहीं खो गयी होगी
आखिर फैसला उसका हीं तो था

उस पहाड़ों के नीचे की खाई
जो लबालब भर जाती है
हर साल बारिश के मौसम में,
पानी उसका खारा हीं रहता है

बारिश के मौसम में दोनों को साथ होना बहुत पसंद था

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मैंने बहुत तेज चलाई थीं
चप्पुएँ
पर उस रात के दोनों किनारे
पानी में देर तक डूबे रहे थे

वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।

सपनों का घटता-बढ़ता रहा आकार
कभी वे नींद से लम्बे हुए
और कभी झपकियों से छोटे

सुबह तुम्हारा फैसला था
कि तुम चले जाओगे

वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
तब से उस पहाड़ पे बैठी रहती है...

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24 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत गजब, ओम भाई...गहरे उतर गये आप!

kshama said...

Apna manbhi gahari khayi hai,jiska thaah nahi lagta..jitne gote lagao,insaan utnahi doobta jata..

रश्मि प्रभा... said...

nihshabd hun

सुशीला पुरी said...

'पहाड़ पर आँखे '.... गज़ब का बिम्ब सृजित करते हैं ओम जी ! आपकी कविता सवेदना के धरातल पर भिगो देती है और संकेत की मार्मिकता बहुत देर तक मन को झंझोरती रहती है । हार्दिक बधाई ।

Mahfooz ali said...

aapki yeh kavita dil ke gahraai mein utar gayi.... kuch panktiyon ne to nishabd kar diya....

sonal said...

गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा

गुज़रे वक़्त की चोट ऐसी ही होती है ..जो आज को भी चैन से जीने नही देती

पारुल "पुखराज" said...

"ये" किसी लम्बी कहानी के किश्त दर किश्त छोटे - छोटे किस्से लगते हैं -जो देर तक गूँजते हैं

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut badhiya om ji...

vandana gupta said...

अब क्या कहूँ? हर बार की तरह अन्दर तक भिगो दिया।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
उस पहाड़ पे बैठी रहती है.

बहुत गहरे विचार.....सुन्दर अभिव्यक्ति

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

वाह सुन्दर भावों का खूबसूरत शब्दांकन!

Satya Vyas said...

हर्फ दर हर्फ मोज़जे करते हैँ ओम भाइ . अरे वही मोज़जा बोले तो जादू, क्मत्कार.
सत्य

Renu goel said...

पलकों पर एक बूँद सजी थी ,
जिस पर एक तस्वीर बनी थी ...
बूँद आँख से निकली और बोली
अब मेरा इंतज़ार न करना....

बहुत गहरा है समंदर
इस समंदर की गहराई नहीं मिलती

अमिताभ मीत said...

क्या बात है ... लाजवाब है ओम भाई ... दोनों ही रचनाएं कमाल हैं !!

Razi Shahab said...

bahut sundar rachna badhai ho....

mukti said...

फिर आ गयी टहलते-टहलते... कुछ भीगी-भीगी सी बातें पढ़कर... मन गीला हो जाता है, फिर कुछ कहने का जी नहीं होता.

Pawan Kumar said...

ओम भाई.......
गुजरा वक्त हथौड़ा मारता है...........क्या बात कह दी आपने कविता तो थी ही बेहतरीन मगर यह जुमला अब तक जेहन में बस गया है.....चुरा लिए जा रहा हूँ.

शरद कोकास said...

भाई यह नमकीन पानी की झील का बिम्ब बेहद खूबसूरत है ।

मुकेश कुमार तिवारी said...

ओम जी,

एक बोलती हुई कविता जो पढ़ी गई, जिसके साथ चल पड़ा मैं उसी पहाड़ की खोज में जहाँ आँखें इंतजार में बैठी हैं।

बहुत ही अच्छी और शानदार कविता, आपकी लेखनी को प्रणाम।


मैं तो जैसे भूलता जा रहा था उसी नून तैल और लकड़ी के फेर में, लेकिन आपने याद दिला ही दी, कि हम सब जैसे तैसे अपने आपको दुनियादारी मे झोंकने के बाद खुद को तलाशते हैं ब्लॉग पर।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

डिम्पल मल्होत्रा said...

हर कमरे में एक बार घूम कर
मुआयना करने के बाद
उसने कहा-
तुमने वक्त पे झाडू क्यूँ नही लगायी अब तक

वो लम्हे जो बहर जाते-
मैंने कहा

घर जमा लो
और इन मरते लम्हों का अब क्या करना-
उसने कहा

थोडी देर चुप रह कर मैंने कहा -
इन्हे मरता हुआ क्यूँ कह रही हो

तुम जब तक आगे नही बढोगे
मैं भी नही बढ़ पाउंगी
और हम नही बढे
तो हमारे वे लम्हे ...
-वो बीच में हीं रूक गई !


तब से शायद सपनो के आकार घटते बढ़ते रहे हो मगर गुजरा वक़्त अब भी कान के पास आ के बोलता है.
बिरह के सुलतान है आप.


बिरहा बिरहा आखिए,बिरह तूं सुलतान,
जित तन बिरह न उपजे,सो तन जान मसान

Unknown said...

bahut sunder

Manish Kumar said...

सपनों का घटता बढ़ता रहा आकार
कभी वो नींद से लंबे हुए
कभी झपकियों से छोटे...,


बहुत खूब! आया आपका ये ख्याल

अपूर्व said...

सुंदर कविता..विछोह के दर्द को घनीभूत करती हुई..

वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।

जैसे पूरा एक चित्र स्मृतिपटल पर खींच के रख दिया हो..

संध्या आर्य said...

वक्त की दरिया मे
हर एक चीज बह जानी है
पर तू है कि
अश्क हो गया है
स्याही सा
जब भी मिटाता हूँ
दास्ताने मुह्ब्बत
दर्दे दिल कुछ और ब्यान
हो जाता है !