Saturday, June 12, 2010

बंजर होने के ठीक पहले

चूहे दौड़ते थे
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और

उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी

वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे

वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे

ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं


किसी पुरानी किताब के अनुसार

अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं

जिसका क्षय हो जाना तय था

बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था

कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे

आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था

संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था

कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था

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27 comments:

दिलीप said...

waah laga bhavishy ki tasveer banayi ho..bahut sundar rachna

Unknown said...

kya baat hein Om Ji ... kmal ki soch , bahut hi sunder aur arthpurn Rachna .

संजय कुमार चौरसिया said...

arthpurn abhivyakti

bahut sunder

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

संजय भास्‍कर said...

सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

संजय भास्‍कर said...

मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !

shikha varshney said...

uffffffffff.बहुत सुन्दर.

kshama said...

Uff! Rachana dard aur vidambana se sarabor hai..

मीनाक्षी said...

आत्माएँ बंजर होती जा रही हैं ... लेकिन कहीं न कहीं चिंतन का अंकुर फूटता है तो आशा का संचार होता है... ऐसी रचना सफल कहलाती है जो चिंतन करने पर बाध्य करती है..बहुत बढिया

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत चिंतनशील रचना

mukti said...

चूहे, भूख, किताब, नवीकरणीय ऊर्जा क्या बिम्ब हैं... और ये लाइनें तो कमाल की हैं...
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था

sonal said...

आपकी कविता पर टिपण्णी देने लायक नहीं हूँ अभी ... पर गहरे भाव

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

om bhaai....bahut umdaa likha hai aapne...

Dr.Ajmal Khan said...

सार्थक और बहुत चिंतनशील,बढिया रचना.........

vandana gupta said...

ek sashakt rachna.

संगीता पुरी said...

अच्‍छी रचना !!

वाणी गीत said...

बंजर होती आत्माओं पर शरीर लगाना नामुमकिन ,
सुन्दर पंक्तियाँ
सच ही है ...
बंजर शरीर में आत्मा प्राणवान हो तो कुछ नामुमकिन नहीं ...

के सी said...

ओम जी कविताएं बहुत बढ़िया है.
लगातार तीन कविताएं पढ़ी और बहुत आनंदित हुआ. इनमे एक सोच का अलग अलग रूपों में बने रहना मुझे आशान्वित करता है कि ये कविताएं असरदार बनी रहेगी. शुभकामनाएं.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

अच्छी प्रस्तुति........बधाई.....

रूपम said...

वाकई काबिले-तारीफ,वहुत अच्छी सोच से प्रेरित भाव है
इस समय तो जैसे कला और आत्मीय विवेचनाओं का कोई मोल नहीं रह गया है ,चेहरों का जैसे पानी बह गया है .
हर कोई यहाँ अपने दंभ की आग बुझाने में लगा है , हर एक ने हर एक को ठगा है .
अपने अस्तित्व को भुलाने में लगा दानव है ,शर्म तो यह है हर एक मानव है.

संध्या आर्य said...

सूना है धरती पर बढ्ती तापमान
गोलोबल वर्मिंग का नतीजा है,
जो धरती की नमी को ही नही बल्कि
मानविय विचारो को भी लील चुकी है,
हर एक चीज बंजर होते जा रहे है
और पैदवार की गुंजाईश ही नही रही
तो भूख का बढना लाजमी है,
भूख चाहे भौतिक हो या जैविक या समाजिक
किसी भी तरह का भूख तो भूख ही होता है
जो इंसान को जानवर बना देते है
ऐसी स्तिथि मे कुछ भी बिक जाना सम्भव है,
अगर किसी भी चीज को बंजर होने से बचना है
तो सिर्फ और सिर्फ
हमे पहले धरती को गर्म होने से बचना होगा
और हमे प्रकृति की ओर लौटना होगा
आज सिर्फ और सिर्फ कवि बिकने वाला है
कल हममे से हर एक बिका रहा होगा.......
बोतलो मे बिक रही पानियो की तरह ........
आईये हम सब प्रकृति से जुडे.........
मानवता बचाये .......
प्रेम बचाये.......
इंसानियत बचाये .......
धरती की सौंदर्य बचाये........
बस एक पेड लगाये............
धन्यवाद !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 15- 06- 2010 को आपकी रचना ( शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी )... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है


http://charchamanch.blogspot.com/

निर्मला कपिला said...

ओम जी बहुत दिनो बाद आयी हूँ क्षमा चाहती हूँ इतनी चिन्तन्शील और सार्थक रचना आप ही लिख सकते हैं दिल को छू गयी शुभकामनायें

पवन धीमान said...

..बहुत अच्छी रचना

सुशीला पुरी said...

आपका लेखन कुछ कहने के बाद भी कुछ कहता रहता है

शरद कोकास said...

कवि अपनी देह में हाथ् लगा चुका था ..... वाह

VIVEK VK JAIN said...
This comment has been removed by the author.
Dr. Zakir Ali Rajnish said...

ओम भाई, सचमुच आपका जवाब नहीं। कहाँ से लाते हैं आप इतने खूबसूरत विचार?
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा.....