जानता हूँ
पाँव उठा कर मेज पर रख लेने से,
तान कर घुटने बजा लेने से,
कंधे झटक लेने और पीठ सिकोड़ लेने से
या उँगलियाँ मोड़ कर फोड़ लेने से
इस आनुवंशिक थकान को मिटाया नहीं जा सकेगा
पर क्या इतनी वजह काफी है
हार मान लेने के लिए
और सौंप देने के लिए तुम्हें
अपना थका हुआ शरीर ?
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18 comments:
बहुत कुछ घूम गया मन में इन पंक्तियों के साथ .... अनुवांशिक थकान :-)
आपके केनवास पर रंग कितने भले होते है
bahut pasand aayi aapki nazm... anuwanshik thakaan kee baat adbhut hai apne aap men.....
थकना, शरीर व मन दोनों का ही नाटक है, पलायन तो फिर भी न हो। सुन्दर कविता।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (6/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
Phir ek baar wahee anoothaa nayapan!
WAH,WAH,WAH...
बहुत अच्छी प्रस्तुति |बधाई
आशा
अंगड़ाई दिलाती पंक्तियां ।
गागर में सागर सी लगी .."अनुवांशिक थकान "बहुत खूब ..
dimag ghoom gaya kintu aanuvanshik thakan mahsoos nahi kar paya.bhavon ko itni sunderta se pirote hain to utsah ke dhagon me piroiye.achchhi rachna.
mere blog kaushal par bhi aaiye.
सही कहा पान्डे जी ने ,पलायन ...ना...ना...
---सुन्दर कविता है ओम जी, बधाई...परन्तु कठिन अन्योक्ति में..तात्पर्य व ुद्देश्य मुझे भी पूरी तरह समझ नहीं आया..सामान्य जन को .संबाद संप्रेषण कैसे हो....कविता के जन-जन से दूर होने का कारण कठिन /अन्योक्ति मेंकही गई/क्लिष्ट/ पान्डित्यपूर्ण कविता ही तो है....
ढेहरी पर चांद बोझिल
शाम चली गयी थी
हाथ हिलाते हुये
रात मध्दम थी
आंखे प्यासी उसकी
शायद
चाँद की तपिश थी !!
gehare manobhav...!
om aary ji ,
main to yun hi aapki lekhni ki kayal hun ...
apni yah rachna vatvriksh ke liye bhejen rasprabha@gmail.com per parichay tasweer blog link ke saath
http://urvija.parikalpnaa.com/
बहुत अच्छी प्रस्तुति | बधाई|
वाकई जब शरीर का पोर-पोर एक ही लय मे कोरस दे इस थकान के सुर मे तो वजह समझ तो आती है..शायद यही है शरीर की भाषा..बॉडी लन्गुएज..जिसे शरीर ही डिकोड कर सकता है...और यह आनुवंशिक थकान?..दिमाग भी शामिल है इसमे ना...
thakavat ko kavitamay bana dala aapne to...:-) bahut badhiya
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