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Tuesday, July 6, 2010

किसी भी तरह इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो...

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हम भरे हुए बादल हैं
इस इंतज़ार में कि
कस कर भींचें जाएँ

हम बरसने को प्यासे हैं

हमने बहुत आसमान नापें हैं
आवारों की तरह
भदभदा जाने की चाह में

और रोके भी रखा है खुद को
कहीं भी भदभदा जाने से

हम इन्तिज़ार में हैं
क्यूंकि बीता वक़्त बीत गया है
और आने वाला अभी पहुंचा नहीं है

हम हैं बेवक्त बरस जाने
और बेमतलब भदभदा जाने से
जानबूझ कर बचते हुए

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लहरों की आवाजों में खराशें हैं
गला रुंधा सा लगता है
और सारे शब्द सिथुए हो गए हैं

मैं इन्तिज़ार में हूँ
कि वो आये कहीं से भी,
चाहे सहलाये , चाहे बातें करे
या फिर झकझोड़ दे इस सन्नाटे को

वो आये कि
किसी भी तरह
इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो

*****
बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा

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