Tuesday, July 6, 2010

किसी भी तरह इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो...

***
हम भरे हुए बादल हैं
इस इंतज़ार में कि
कस कर भींचें जाएँ

हम बरसने को प्यासे हैं

हमने बहुत आसमान नापें हैं
आवारों की तरह
भदभदा जाने की चाह में

और रोके भी रखा है खुद को
कहीं भी भदभदा जाने से

हम इन्तिज़ार में हैं
क्यूंकि बीता वक़्त बीत गया है
और आने वाला अभी पहुंचा नहीं है

हम हैं बेवक्त बरस जाने
और बेमतलब भदभदा जाने से
जानबूझ कर बचते हुए

****
लहरों की आवाजों में खराशें हैं
गला रुंधा सा लगता है
और सारे शब्द सिथुए हो गए हैं

मैं इन्तिज़ार में हूँ
कि वो आये कहीं से भी,
चाहे सहलाये , चाहे बातें करे
या फिर झकझोड़ दे इस सन्नाटे को

वो आये कि
किसी भी तरह
इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो

*****
बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा

*****

18 comments:

shikha varshney said...

आखिरी वाला जबर्दस्त्त किस्म का खतरनाक है ...

kshama said...

Dard umad ghumad ke baras raha hai,har pankti se...!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत गहरी सोच के साथ लिखी गयी रचनाएँ...

Randhir Singh Suman said...

nice

वाणी गीत said...

हम हैं बादल बेवक्त बरस जाने से बचते हुए ...
समझदारी भी जरुरी है ...

वो आये किसी तरह की सन्नाटे की पकड़ ढीली हो ...
और इससे पहले आना कि सन्नाटा लील ना जाए किसी के अस्तित्व को

अजय कुमार said...

ये दर्द के बादल हैं

vandana gupta said...

बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा

एक बार फिर उसी रंगत मे लिखा है जो आपकी पहचान है…………………………सीधे दिल मे उतरने वाली रचनायें।

निर्मला कपिला said...

आपकी यादों के पुलिंदे पता नही कितने हैं हर एक दर्द से भरा हुया। बहुत खूब। आज कल कहाँ हैं कहीं नज़र नहीं आते। शुभकामनायें

The Straight path said...

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा !
दिल को छु गई !

sonal said...

kuchh uljhi...si rachnaa

डॉ .अनुराग said...

बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा


वल्लाह!!
कुछ कहना जैसे कोई आहट करना है .....इन पुलिंदो को डिस्टर्ब करना !!


again check your blog not opening in mozila .....not able to comment on your last post too....

डिम्पल मल्होत्रा said...

बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा ..
इस नन्हे से लफ्ज़ो के टुकड़े ने सच में मौन कर दिया..आपकी इक पुरानी कविता black n white फोटो वाली सा असर रखती है ये कविता भी..

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Aapke khayal, aapki kalpana, bahut khoob, bahut khoob.

संध्या आर्य said...

अजीब सी खामोशी थी वादियो मे
जो मौसमो के सीने को खाये जा रही थी
पहाड खामोश थे
सदियो से
अपनी विशलता के विवशता मे
अंतहीन इंतजार से
उनकी आँखे पत्थरा गयी थी
और साँसे सुस्त , पर
आज भी सुरज की लाल किरणे
सुनहरा कर जाती थी
उनके अंतहीन इंतजार को !

ZEAL said...

Badal aawaara to hain, lekin samajhdaar !

अपूर्व said...

हम भरे हुए बादल हैं
इस इंतज़ार में कि
कस कर भींचें जाएँ

आपके बादलों को पढ़ कर जेहन मे एक बूढ़ा आता है..जिसकी जिंदगी की बहारें उसे छोड़ कर जाते वक्त उसका सब कुछ अपने साथ ले कर गयीं..उसकी उम्र भी..और एक तन्हा उदासी और आवारा भटकन बस बची रही उसकी किस्मत मे..कितने आसमान नापने के बाद और कितना बीत चुका वक्त बिताने के बाद अब कितने किस्से हैं उसके पास सुनाने के लिये, आसमानों के दूर के किनारों की खबरें, गुजरी बहारों की दस्तानें मगर भरी दुनिया मे अकेला भटकते हुए कोई भी नही है उन कहानियों का हमगवाह बनने के लिये..आप बस एक बार उस बूढे को गले लगा कर भींच लेंगे और उम्र भर से प्यासे आँसू पल भर मे बरस जायेंगे...और दर्द की धरती फिर हरी हो जायेगी..
कितने भरे हुए प्यासे बादल बरस जाने का इंतजार करते रहते हैं हमारे आस-पास..
..

पारुल "पुखराज" said...

लहरों की आवाजों में खराशें हैं...vaah!

Avinash Chandra said...

बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे

कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा ..


beintahaan khubsurat