यह बहुत बुरा है कि
कुछ भी नहीं है मेरे पास अभी
जिसकी शक्ल कविता हो
और पीछे जो भी कहा था मैंने
उनकी शक्लें भी
ढहती जा रही हैं मेरी आँखों में
कविता निकल गयी है मुझसे
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने के लिए
मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है
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31 comments:
मैं निकल आया हूँ उस कविता से
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने का..
Aksar aisa hi hota hai...lekin yakeen maniye....bahar aana aapke aur samaaj ke hit mein hi hoga...
सही कहा आज कविता का रूप र्कुछ ऐसा ही है। शुभकामनायें
bahut hee badhiya rachna OM bhai
मैं निकल आया हूँ कविता से जो चुन- चुन कर प्रेम संजोती है ..
आशा रोपती है ...
ऐसी कविता से बाहर क्यों आना ...!
समय की उत्पति, हर एक जीव मे शुन्य से होता है और उस जीव का समय मे विलिन होने का समय भी शुन्य होता है तो शुन्य से शुन्य तक के सफर (यानि जन्म से मृत्यु तक के सफर) मे जीव के लिये समय के बीच का अंतराल ही आंखो मे ढ्हती सपनो का होता है जिसमे वह बनाता और मिटाता है..............जिसमे सपनो की एक दिवार गिरती हैतो दूसरी उसकी ही नीव पर खडी भी होती है.............पर आत्मा की परमात्मा की तरफ एक और कदम होती है जब यह सपने नेक होती है जो दिखती नही पर शुन्य मे विलिन होने की एक और कदम होती है........
मैं निकल आया हूँ कविता से
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
फिर भी कुछ नए सृजन होंगे....अच्छी रचना
bahut badhiya
एक शब्द जब बह जाती है
अश्को की दरिया मे
तब शब्द लहुलुहान हो
सजती है
ख्वाहिशो की कतरनो से
इनसे जनमती है सपनो के पंख
उड्ती है गिद्धो के आकाश पर
जो बेबस और असहाय होती है
कुछ खत्म होता है तभी तो सृजन होता है……………अब नव सृजन की ओर कदम बढेंगे और कवि को अनन्त ऊँचाइयों की तरफ़ ले जायेंगे।
थोड़ा निराशा का पुट है... या हो सकता है मैं समझ ना पायी होऊं ... जो भी है निराशा का चरम बिंदु नई आशा लेकर आता है... आमीन !
वाह ! बहुत सुन्दर ! आपने कविता को मूर्त बनाकर जो बात कही है वो काबिले तारीफ़ है ...
ईमानदार सार्थक वक्तव्य... शुरुआत वाले हादसे अपने साथ भी हो रहे हैं... आगे वाले ना हों मनाइये
अच्छी है। बधाई।
ठहर तो सही
सफर लम्बी है
धूप बेसुमार
चिलचिलाती छाव से
थकान प्यासी है
अगले दो कदम पे बादल मिलेंगे
सूना है वे ठंडी हवाये ढोते है पानी नही
चाहत है उन्हे भी देख लू जरा
उधर प्याऊ है
जा थोडा पानी पी ले
सफर है तो प्यास लगेगी ना
जल्दी जाने की चाहत से
तेरे पैर,देखना
कंटीले वक्त से
जख्मी ना हो जाये
आखिर चाहत अंधी और बहरी
जो ठहरी
देखा ना
कल ही तो
हिमालय से आनेवाली ब्यार
लहुलुहान पडी मिली थी
छूट चुकी चौराहे पर
सफर मे कई आंखो का होना
जरूरी सा लगता है अब
है ना....
बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...
ओम जी..बहुत खूब कही..सुंदर रचना..धन्यवाद
wakai, par jis bhi ritu rahe, kavi rachta hai..aandhi..sheetlahar, ya malhaar..
bahut badhiya
'uske baad kavi......'
wah! awesome.........
के उम्र के सफ़र के बाद घटता जा रहा हूँ मै भीतर ही भीतर.....
कविताएँ जो चली गयी है..वो लौटेंगी ..कुछ इक तो अब भी है आपके पास...
मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है
असहमत ....
कवि बलात्कारी नहीं हो सकता
क्योकि जब वह बलात्कारी होता है
तब वह कवि नहीं होता
और फिर जिसकी शक्ल कविता नहीं है
वही शायद कविता हो
बहुत सुंदर रचना।
आप की कविता दिल को छू गयी.
कविता दिल छू गयी बहुत ही सुन्दर रचना
ओम जी आपकी कविताओं का मैं बहुत बड़ा फैन हूँ...उसका कारण है है उनमें प्रस्तुत भाव और विलक्षण शब्द...आपकी ये रचना भी अप्रतिम है...बधाई...
नीरज
सही कहा आपने.
अप्रतिम कविता है आपकी...वाह...बेमिसाल...
नीरज
कविता आशंकित करती है..और आतंकित भी..कविताएं अक्सर रिश्ते नही बनाती..सो उन्हे शक्ल की इतनी जरूरत नही होती..जितनी हमें..मगर कवि पैसे नही कमा सकता या पेड़ नही काट सकता..वह सिर्फ़ कविता कर सकता है...यही एक डोर है जो उसे प्रेम से, आशाओ से बाँधे रखती है..कविताएं कही भी भटकें..शाम ढ़ले उन्हे वापस घर आना ही होता है..
देखिये कुछ कविताएं वापस आपका द्वार खटखटा रही हैं...
बहुत खूब! क्या वार किया है...हिला देता है!
बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
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