Friday, July 16, 2010

उनकी शक्लें ढह गयी हैं आँखों में

यह बहुत बुरा है कि
कुछ भी नहीं है मेरे पास अभी
जिसकी शक्ल कविता हो

और पीछे जो भी कहा था मैंने
उनकी शक्लें भी
ढहती जा रही हैं मेरी आँखों में

कविता निकल गयी है मुझसे
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने के लिए

मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है

*****

31 comments:

ZEAL said...

मैं निकल आया हूँ उस कविता से
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने का..

Aksar aisa hi hota hai...lekin yakeen maniye....bahar aana aapke aur samaaj ke hit mein hi hoga...

निर्मला कपिला said...

सही कहा आज कविता का रूप र्कुछ ऐसा ही है। शुभकामनायें

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut hee badhiya rachna OM bhai

वाणी गीत said...

मैं निकल आया हूँ कविता से जो चुन- चुन कर प्रेम संजोती है ..
आशा रोपती है ...

ऐसी कविता से बाहर क्यों आना ...!

संध्या आर्य said...

समय की उत्पति, हर एक जीव मे शुन्य से होता है और उस जीव का समय मे विलिन होने का समय भी शुन्य होता है तो शुन्य से शुन्य तक के सफर (यानि जन्म से मृत्यु तक के सफर) मे जीव के लिये समय के बीच का अंतराल ही आंखो मे ढ्हती सपनो का होता है जिसमे वह बनाता और मिटाता है..............जिसमे सपनो की एक दिवार गिरती हैतो दूसरी उसकी ही नीव पर खडी भी होती है.............पर आत्मा की परमात्मा की तरफ एक और कदम होती है जब यह सपने नेक होती है जो दिखती नही पर शुन्य मे विलिन होने की एक और कदम होती है........

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मैं निकल आया हूँ कविता से
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,

फिर भी कुछ नए सृजन होंगे....अच्छी रचना

sonal said...

bahut badhiya

संध्या आर्य said...

एक शब्द जब बह जाती है
अश्को की दरिया मे
तब शब्द लहुलुहान हो
सजती है
ख्वाहिशो की कतरनो से
इनसे जनमती है सपनो के पंख
उड्ती है गिद्धो के आकाश पर
जो बेबस और असहाय होती है

vandana gupta said...

कुछ खत्म होता है तभी तो सृजन होता है……………अब नव सृजन की ओर कदम बढेंगे और कवि को अनन्त ऊँचाइयों की तरफ़ ले जायेंगे।

aradhana said...

थोड़ा निराशा का पुट है... या हो सकता है मैं समझ ना पायी होऊं ... जो भी है निराशा का चरम बिंदु नई आशा लेकर आता है... आमीन !

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

वाह ! बहुत सुन्दर ! आपने कविता को मूर्त बनाकर जो बात कही है वो काबिले तारीफ़ है ...

सागर said...

ईमानदार सार्थक वक्तव्य... शुरुआत वाले हादसे अपने साथ भी हो रहे हैं... आगे वाले ना हों मनाइये

अजित गुप्ता का कोना said...

अच्‍छी है। बधाई।

संध्या आर्य said...

ठहर तो सही
सफर लम्बी है
धूप बेसुमार
चिलचिलाती छाव से
थकान प्यासी है

अगले दो कदम पे बादल मिलेंगे
सूना है वे ठंडी हवाये ढोते है पानी नही
चाहत है उन्हे भी देख लू जरा

उधर प्याऊ है
जा थोडा पानी पी ले
सफर है तो प्यास लगेगी ना

जल्दी जाने की चाहत से
तेरे पैर,देखना
कंटीले वक्त से
जख्मी ना हो जाये
आखिर चाहत अंधी और बहरी
जो ठहरी

देखा ना
कल ही तो
हिमालय से आनेवाली ब्यार
लहुलुहान पडी मिली थी
छूट चुकी चौराहे पर

सफर मे कई आंखो का होना
जरूरी सा लगता है अब
है ना....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...

विनोद कुमार पांडेय said...

ओम जी..बहुत खूब कही..सुंदर रचना..धन्यवाद

Avinash Chandra said...

wakai, par jis bhi ritu rahe, kavi rachta hai..aandhi..sheetlahar, ya malhaar..

Razi Shahab said...

bahut badhiya

VIVEK VK JAIN said...

'uske baad kavi......'
wah! awesome.........

डॉ .अनुराग said...

के उम्र के सफ़र के बाद घटता जा रहा हूँ मै भीतर ही भीतर.....

डिम्पल मल्होत्रा said...

कविताएँ जो चली गयी है..वो लौटेंगी ..कुछ इक तो अब भी है आपके पास...

M VERMA said...

मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है

असहमत ....
कवि बलात्कारी नहीं हो सकता
क्योकि जब वह बलात्कारी होता है
तब वह कवि नहीं होता
और फिर जिसकी शक्ल कविता नहीं है
वही शायद कविता हो

सूर्यकान्त गुप्ता said...

बहुत सुंदर रचना।

अनामिका की सदायें ...... said...

आप की कविता दिल को छू गयी.

रचना दीक्षित said...

कविता दिल छू गयी बहुत ही सुन्दर रचना

नीरज गोस्वामी said...

ओम जी आपकी कविताओं का मैं बहुत बड़ा फैन हूँ...उसका कारण है है उनमें प्रस्तुत भाव और विलक्षण शब्द...आपकी ये रचना भी अप्रतिम है...बधाई...

नीरज

SATYA said...

सही कहा आपने.

नीरज गोस्वामी said...

अप्रतिम कविता है आपकी...वाह...बेमिसाल...
नीरज

अपूर्व said...

कविता आशंकित करती है..और आतंकित भी..कविताएं अक्सर रिश्ते नही बनाती..सो उन्हे शक्ल की इतनी जरूरत नही होती..जितनी हमें..मगर कवि पैसे नही कमा सकता या पेड़ नही काट सकता..वह सिर्फ़ कविता कर सकता है...यही एक डोर है जो उसे प्रेम से, आशाओ से बाँधे रखती है..कविताएं कही भी भटकें..शाम ढ़ले उन्हे वापस घर आना ही होता है..
देखिये कुछ कविताएं वापस आपका द्वार खटखटा रही हैं...

neera said...

बहुत खूब! क्या वार किया है...हिला देता है!

Er. सत्यम शिवम said...

बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद