मेरे प्रेम पे वो ठहरता नही
मगर फिराक में रहता है
कि अपनी वासना से
पछाड़ता रहे मुझे
अपने ताकत के तल्ले से,
मसलता है मुझे
जैसे हीं उसके पीने क़ी
तलब मिट जाती है
वो मुझे गोल-गोल घूमाता है
छल्ले से छल्ला निकालता है
मुझे धुआँ बनाकर,
खेलने कि धुन में रहता है अक्सर
वो चाहता है कि
मैं उसके बनाए छल्ले के
भीतर हीं रहूँ
उसके कोल्हू से लगी
मेरी आवाज़ पे
वो कान नही धरता
और जब देखो तब
अपनी आवाज़ आजमाता रहता है मुझ पर
मैं चाहती हूँ
कहनाकि ये सब
और नही होगा मुझसे
बिल्कुल नही अब!!!
8 comments:
अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।
अच्छी रचना. धन्यवाद.
हिमांशु
मैं चाहती हूँ
कहनाकि ये सब
और नही होगा मुझसे
बिल्कुल नही अब!!!
बड़े अच्छे शब्द और उच्च कोटि के भाव...एक सार्थक रचना...बहुत बहुत बधाई...
नीरज
bahut khoob....! apni baat bade tarike se kahi aapne...balki shayad apni bhi nahi..kisi aur ki
आपकी पोस्ट यहाँ भी है……नयी-पुरानी हलचल
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
बहुत बढ़िया अंदाज़!
सादर
दृढ संकल्प जैसी रचना
सुंदर रचना....
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