शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था
चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक
पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है
वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे
19 comments:
क्या बात है... क्या कहें हम... लाजवाब.
पर प्यार था कि .........ये ५ पंक्तियाँ बहुत ही कमाल हैं ..
प्यार है ही ऐसी शै कि शहर क्या पूरी कायनात भी मर जाए तो वो जीने की जिद करेगा... जलकर भस्म भी हो जाए तो राख से उठेगा, पंख कट जाएँ तो भी ऊंचे आसमान में उड़ेगा और आसमान गिर जाए तो शून्य में तैरेगा... पर वो रहेगा... प्यार चीज़ ही ऐसी है जो एक बच्चे की मासूम निगाहों में है या हँसती हुयी ख्वाहिशों के गालों के गढ्ढे में...:-)
hameshaa ki tarah lajawaab.
bahut sundar rachna!
Bade dinon baad aapkee rachna padhne ka mauqa mila...hamesha behad achha likhte hain aap..baar,baar padh rahi hun..
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
आपकी ही कलम का जादू है ओम जी..जो शब्द अपने अर्थों के नये और चमत्कृत करने वाले परिधानों मे सामने आते हैं....
..और मुहब्बत अगर हिसाब के बहीखातों या शोधपत्रों के जखीरों मे मिलने वाली कोई उबाऊ और बौद्धिक सी चीज होती तो शायद पानी मे छप-छप करते उन बच्चों को इस शै के बारे मे नही पता होता..मगर उन मासूम बच्चों का होना ही इस मुहब्बत लफ़्ज़ को मुकम्मल बनाता है..पुरकशिश!!
शहर, बारिश, आसमान और मुहब्बत के इस खूबसूरत आर्केस्ट्रा के यह मोहक सुर पसंद आये..
क्या बात है.... हमेशा की तरह लाजवाब....
Nice nice...
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
kya baat hai ..kya baat hai ...lazawaab images hain kaheen kahen isme to ... barish ko aagosh me bharna kamaal raha..aur aakhir do hisson ki tulna.. :)
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.....रचना मन को छू गयी
ओम जी बहुत सुंदर ....
शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
वहां आँखों के नीचे
अरसे से बादल फंसे हुए थे
और गले के बीचों-बीच
बर्फ का एक गोला भी जो सुबकने के
मौके के इन्तिज़ार में था
कुछ तमन्नाएँ आसमान से
बरसती हैं
ख्वाहिशे जब कभी भी पिघलती थी
उंगलियो के पोरो से
बह जाती थी रेतीली हवाओ मे
आसमान की आंखे बरसती थी तब
मासूम तमन्नाओ से !
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
और फिर ख्वाहिश को क्या पता कि वह नामुमकिन है, नामुमकिन भी तो मुमकिन हो सकता है
बहुत सुन्दर
बहुत बढि़या! बेहतरीन!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!
--
आपसे परिचय करवाने के लिए संगीता स्वरूप जी का आभार!
--
आँखों में उदासी क्यों है?
हम भी उड़ते
हँसी का टुकड़ा पाने को!
bahut sundar...
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