जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी
जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह
सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर
उस तरफ चली जाती हैं
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20 comments:
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
बेहतरीन कविता जीती है आपके अन्दर
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
बेहतरीन कविता.
'और हार कर रोना......'
Jab kabhi likhte hain aap,behad gahrai me utar ke likhte hain.
aapki kalam ke andaaj kee main kayal hun
अच्छी कविता है आर्य जी
बहुत सुन्दर कविता है... इतने सारे बिम्ब एक साथ...
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
... ...
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
और अंतिम पंक्तियाँ बेहद खूबसूरत हैं.
बहुत सुन्दर!
Bahut sundar Om Ji ! Bahut samvedanshilta.. bahut gahraai.
bahut hi sundar kavitaa ban padi hai.
goodh bhi..aur samajh aati hui bhi
जब अनजानी किसी ------- लाजवाब पँक्तियाँ है बधाई कविता बेहद पसंद आयी।
सचमुच लाजवाब कर दिया आपने.....
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इंसानों से बेहतर चिम्पांजी?
क्या आप इन्हें पहचानते हैं?
जब सफ्फाक रंगो की कशिश मे
चाँद अपने आसमान से
उतर आता होगा
चाँदनी के आँचल मे
चला जाता होगा
नींद की गहराई मे
तब ख्वाब लौट आते होंगे
नँगे पाव , बस यू ही
बस यू ही !
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बहुत सुन्दर चित्र.
behtareen kavita.
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
....बेहतरीन कविता
डूब कर लिखी गई कविता
आपकी खूबसूरत नज़्म पढ़ के कुछ भूला सा याद आया -
बुझी हुई रख में छिपी चिंगारी सी
रीते हुए पत्र की आखीरी बूंद-सा
पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज -सा..
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में
गहरी बात..यही फ़र्क भी होता है शोर और संगीत मे..जब कुछ सुर जो हमारी साँसों मे घुले होते हैं..उनके हमारी जिंदगी से बाहर निकल जाने पर एक शोर रह जाता है बाकी धड़कनों में किसी बेसुरे बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह..देखें तो आत्मा का मौन या साइलेंस भी एक आवाज ही है अनहद सी..और ऐसी जो किसी भी क्षीण सी भी बाहरी आवाज से टूट जाती है..
पंक्तियों के बिना लिखे ही बारिशों मे गल जाने की बात इस कविता का मूलभाव लगती है..और इतवारों के दुखी होने की बात जरूर मेरे इतवारों ने ही आपसे बताई होगी...
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