Wednesday, June 30, 2010

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जिनको भी दुःख हो
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ

कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...

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9 comments:

जयंत - समर शेष said...

दुःख एक सागर सा है..
उसके बिना जीवन भी नहीं, पर उसका पानी खारा ही..

नयी तरह की रचना..

सदा said...

गहराई लिये हर शब्‍द, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Unknown said...

gahari baat........

anoothi soch !

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

क्या दर्दीला चित्रण किया है दर्द का आपने!ओम जी आजकल ’सच में’ पर आना छोड ही दिया आपने!

Alok Kumar Jha said...

Umda 1 behatrin koshish dusro ka dukh batne ke naye tarike

vandana gupta said...

बहुत खूब्………………गहरी बात कह दी।

Archana Chaoji said...

ये दुख तो बस
तब कम हॊ
जब किसी को
न कोई गम हो
बाँट चुके
हम सारी खुशियाँ
इस दुख के बदले में
कि कम से कम
मेरे आस-पास
किसी की
आँख नम न हो.............
जिनको भी दुख हो
वे आए और ले जाएं
कि मेरी खुशियाँ..
कभी खतम न हो............

mukti said...

हाँ ! दुःख तो कभी कम नहीं होता, पर रोने के लिए किसी का कंधा मिलना भी क्या कम है????

अपूर्व said...

अपने दुखों को बाँट देने से दुख कभी कम नही हो पाते और दूसरों के दुख ले लेने से वो कभी बढ़ते भी नही..दुख छातियों के पहचान नही करता..