1.
हम सब
या फिर हम सब में से ज्यादातर
बड़े हुए
और फिर बूढ़े
और मर गए एक दिन
बेमतलब
और बुद्ध और कबीर के कहे पे
पानी फेर दिया
2.
प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे
मृत्यु भी
झूठ लगती है अब
सभी हैं जीने को अभिशप्त !
3.
जब तक मैं शामिल नहीं हूँ
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी नहीं होंगे
उस बुरे कृत्य में शामिल
भले हीं दिखाई न पड़ें वे
4.
जितनी मोची पाता है
फटे जूते की मरम्मत कर के
या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख
उतना भी नहीं हासिल है मुझे
तुम्हें लिख के
कविता
मुझमें प्रेम नहीं अब!
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18 comments:
विचारोत्तेजक रचनाएं।
Bahut sundar rachanayen! Jeevan-mrutyu dono hee prakrutee ke niyam hain! Kabhee,kabhee lagta hai,ki,bhool hain!
बहुत ही चिन्तनशील, जीने को अभिशप्त हम सब।
जबरदस्त...
आपकी सारी रचनाएं अपने विषय को लेकर गहरे अर्थ में पिरोई रहती हैं..
हमेशा की तरह सुन्दर अभिव्यक्ति..... !!
बहुत खूब लिखा है ओम आर्य जी, रचनाएँ पसंद आईं...संवेदनाओं से भरी हृदयस्पर्शी विशेष रूप से अंतिम रचना।
ला-जवाब" जबर्दस्त!!
ओम आर्य जी,
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
हमेशा की तरह गहन अर्थ संजोये उम्दा अभिव्यक्ति।
वाह चारों ही कविताएं बहुत सुंदर हैं.
भाई heavy weight है ...... कमाल है .... बहुत ही ज़बरदस्त !!
मितकथन की सुन्दर मिसाल हैं ये कवितायेँ !!
उतना भी हासिल नहीं मुझे ...
मुझमे प्रेम नहीं है अब ...
सभी क्षणिकाएं मन को छूती हैं !
लगातार कितनी कवितायों में आपने लिखा कि प्रेम नहीं रहा,नहीं बचा...देखिये लगातार "प्रेम" शब्द बना हुआ है और बना रहेगा आपकी कवितायों में....:)
चिंतन करने को बाध्य करती पंक्तियाँ ..
प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे
मृत्यु भी
झूठ लगती है अब
सभी हैं जीने को अभिशप्त !
Bahut sundar rachnaa hai...
pahli aur chauthi bahut pasand aayi...
ek se badhkar ek....!
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