Monday, October 13, 2008

मुझे तलाश है

उनकी छुअन अब नही लगतीं वे खाली-खाली से रह गये मौसम हैं
पेड़ो पे लद भी जाएँ तो शाखें नही झुकतीं

वो जो धरती के सबसे नायाब मौसम थे,
वो भरे-पुर महकते मौसम फ़िज़ाओं से जाने कैसे गायब होते गये.
अब ना तो उनके स्पर्श घुमड़ते हैं आसमान में और,
ना हीं उनकी बूंदे गिरती हैं छतरियों पे.
जैसे की यादों में गिरा करती थीं.

धूप का वो टुकड़ा कहीं खो गया है
जह दुपहरी भरी रहती थीं
छत के चादर पे.

मैं तलाश में हूँ उसके जो
उस मौसम का स्पर्श लौटा सके.

1 comment:

seema gupta said...

धूप का वो टुकड़ा कहीं खो गया है
जह दुपहरी भरी रहती थीं
छत के चादर पे.

मैं तलाश में हूँ उसके जो
उस मौसम का स्पर्श लौटा सके.
' ek khubsuret talash, good creation'

regards