Tuesday, November 18, 2008

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं


बहुत थोड़े से दिन,

जब कुहरे में डुबे रहेंगे
ये गलियाँ, सड़कें
ये समय।

आर पार देखने के लिए
सूरज को आँखें फाडनी पड़ेगी,
नही सूझेगा
शहर का पुराना घंटाघर,
दूर-दूर तक नजर नही आएंगे
ये खिलखिलाते चटकदार दृश्य ,
दांत भींचे
ऊँकरू बैठी रहेगी सिगड़ी
और चाय के लिए
धोई जाने वाली पतीली
दांत कटकटाती सुनाई पडेगी

पेंड़ क़ी शाखों से टप- टप झड़ता रहेगा एकांत,
अल सुबह और शाम
उचाट उदासी पसरी रहेगी सड़कों पर,
और घड़ी-घड़ी हाथ रगड़ते नजर आएंगे
रिक्शे-तांगे वाले

इन सबके बाबजूद
मुझे इंतेज़ार है
उन कुहरे वाले दिनो का
क्यों कि तुमने कहा है कि
उन दिनो तुम मेरे शहर में रहोगी।

मैं बहुत खुश हूँ कि
अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैंजब तुम मेरे शहर में रहोगी।

Monday, November 17, 2008

तुम्हें रख रखा है मेरी मेज पर फ्रेम में !

तुम्हें रख रखा है मेरी मेज पर फ्रेम में !

तुम्हें रख रखा है मेरी मेज पर फ्रेम में
तुम हमेशा मुस्कुराती रहती हो वहाँ
मुझे देखती हुई

तुम्हारी मुस्कान,
जिसे मैने अभी लाख चाहा
कैनवास पे उतारने की
पर रहा नाकाम,
आँखों के पानी में हरकत करती रहती है हमेशा

ये तो अच्छा है के कुछ तस्वीरें तुम्हारी
हैं मेरे पास
जो तुम्हारे मुस्कान को
जीवित बनाये रखती है आस-पास

अब जब सपने ज्यादा बेचैन होने लगते हैं
छोड़ देता हूँ अपना बदन
तुम्हारे बनाए हुए सलवटों के पास
रात के विस्तर पे, जहाँ
सपनो को तेरी छुअन मिल जाती है

तुझे किए वादे तोड़े हैं मैने
और तेरे जाने के बाद रोया है कई बार
और सिगरेट अब सिर्फ़ इसलिए पीता हूँ
के तुम कभी मना नही करती थी
हां, अब जलता खुद हूँ हमेशा,
वो तो बुझ जाती है.

अब दिन बिना इंतेज़ार के गुजारनी पड़ती है
क्यूँकी शाम को
तुम ऑफीस से लौट कर नही आती
और खाने के समय
हाथ में नीवाला लेकर
दौड़ना नही होता
जैसा की तुम्हारी थाली छोड़ के
उठ जाने पे किया करता था
मैं लगभग रोज
और तुम कभी-कभी बेसिन में उगल आया करती थी
और हम लड़ते थे फिर।

आज ये सब याद करके
लिखते हुए देख रहा हूँ
होठों पे मुस्कुराहट आ गयी है

बेशुमार इस्क बहा करता था साहिल पे
हर तन्हाई भरी रहती थी
इश्क की लहरें दूर तक भिगो आया करती थि ज़मीन.
आज याद करता हूँ वो सब्ज़ शामें तो
आँखों में खारापन उतर आता है
और सारा समंदर एक बूँद में खाली हो गया लगने लगता है.

खबर मिलती रहती है तेरे shahar की
टेलिविज़न से
आज कल पारा ज़रा ज़्यादा गिर गया है वहाँ
मैने तो तुम्हारी दी हुई रज़ाई ओअध लेता हूँ
जब ज़्यादा ठंध होती है.

तुम kuch नये तस्वीर
internet पे अपलोड कर देना
वो नयी तस्वीर देखी थी तुम्हारी
जिसमे तुम पार्क में बेंच पे अकेली बैठी हो।

Wednesday, November 12, 2008

गुमान

इबारतें तुम्हारी, उगती रहती हैं
मेरे कान टिके रहते हैं उन पर

ये इबारतें,
जो तुम्हारे फिर फिर अंकुरित होने के
निशान हैं,
गुमान है मेरे लिए
कि तुम हरे हो अब तक
कि तुम्हारी इबारतों में मेरी नमी का जिक्र होता रहता है
कि तुम कहते होसब मेरी नमी की बदौलत उगता है

हालांकि तुम्हारी डायरी के पन्ने
नही छुए मैने एक अरसे से,
एक अरसा हुआ उनकी फड़फड़ाहट गये कानो में,
पर,
कहाँ भूल पाई हूँ
उन पुरानी इबारतों को भी
जो तब लिखे थे तुमने

और तुम्हे बता दूँ
आज भी वे बोलती हैं
तो बदन पे हर हर्फ उभर जाता है

पर,
हम जितना हीं जी पाए
उन लम्हों को,
जितनी देर हीं ख्वाहिशों को खिलाया
हमने अपनी हथेली पर,
जो भी हासिल हो पाया हमे
तुम्हें बार-बार अंकुरित करने के लिए
और मेरे बदन पे हर्फ उभारने के लिए
काफी है.
है ना!!!

Monday, November 10, 2008

सिर्फ इतना


जानती हूँ

छू लूँगी तुम्हारा हृदय एक दिन

पहुँच जाउन्गी तुम्हारे अंतरतम् तक,

कभी न कभी

इस जनम से उस जनम तक,

और तुम मुस्कुरा दोगे मेरी छुअन को महसूस करके

और तब तुम्हारे अंदर क़ी पूरी कायनात गुदगुदा जाएगी

और सच मानो, तमन्ना भी यही है………

इससे रत्ती भर भी ज्यादा नही।

जानती हूँ कि वक़्त कुछ लंबा है अभी

और रूखा भी

पर जानती हूँ रिस जाएगा ये भी

लम्हा-लम्हा करके

देखते हुए मेरी प्रतीक्षा

कोई रंज नही कि

अभी तक बंद रखे हैं तुमने

द्वार अपने अंतरतम् के

पर, जानती हूँ

जिस दिन खोलोगे

पाओगे मेरे स्पर्श को खडे वहाँ

इन्तेजार करते

पर जब खोलोगे

सुनना चाहूँगी तुमसे

की द्वार अनजाने में बंद हो गया था तुमसे

या फिर बंद रखना तुम्हारी भूल थी

और तुम भी बरसों से महसूसना चाहते हो

अपने हृदया पर मेरी उंगलियों क़ी छुअन।

सिर्फ इतना चाहूँगी

सुनना

बोलोगे न तुम !!!

Monday, November 3, 2008

अपने शहर में लौटना

एक लंबे समय तक
अलग रह जाने के बाद,
फिर से अपने शहर में लौटना
काई चीजों से
एक साथ जुड़ जाने जैसा होता है

जो गलियाँ और रास्ते
जो खिड़कियाँ और छतें
जो पेड़ और बगीचे
स्मृतियों में अपनी जगह बचाते-बचाते
लुप्त हो रहे होते हैं
अपने शहर में लौटना
उन सबों को एक साथ
वापस ले आने जैसा होता है

हालांकि
जब भी लौटते हैं अपने शहर
हम लौटते हैं के
निश्चित समय के लिए
फिर से लौट जाने की पूरी तैयारी के साथ
हमारे पास होते हैं
उंगलियों पे गिने हुए दिन
और रातें
जिनके लिए होती हैं पूर्व निश्चित योजनाये
और वादे, किए हुए

काई बार
शहर पहुँचने और लौटने के
बीच वक़्त इतना ठसा होता है
कि हम कह नही पाते कुछ, शहर
से हम सुन नही पाते कुछ, शहर की
नही देख पाते शहर को आँख भर

कई बार
शहर जान भी नही
पाता हमारे पहुँचने के बारे में
और हम लौट आते हैं

इन सबके बावजूद
भी जब हम लौटते हैं
अपने शहर से
शहर से हमारा संवाद
पूरा हो गया लगता है।