Wednesday, November 12, 2008

गुमान

इबारतें तुम्हारी, उगती रहती हैं
मेरे कान टिके रहते हैं उन पर

ये इबारतें,
जो तुम्हारे फिर फिर अंकुरित होने के
निशान हैं,
गुमान है मेरे लिए
कि तुम हरे हो अब तक
कि तुम्हारी इबारतों में मेरी नमी का जिक्र होता रहता है
कि तुम कहते होसब मेरी नमी की बदौलत उगता है

हालांकि तुम्हारी डायरी के पन्ने
नही छुए मैने एक अरसे से,
एक अरसा हुआ उनकी फड़फड़ाहट गये कानो में,
पर,
कहाँ भूल पाई हूँ
उन पुरानी इबारतों को भी
जो तब लिखे थे तुमने

और तुम्हे बता दूँ
आज भी वे बोलती हैं
तो बदन पे हर हर्फ उभर जाता है

पर,
हम जितना हीं जी पाए
उन लम्हों को,
जितनी देर हीं ख्वाहिशों को खिलाया
हमने अपनी हथेली पर,
जो भी हासिल हो पाया हमे
तुम्हें बार-बार अंकुरित करने के लिए
और मेरे बदन पे हर्फ उभारने के लिए
काफी है.
है ना!!!

1 comment:

संध्या आर्य said...

बढिया कविता लिखी है आपने. सुन्दर .