कहीं से भी, कभी भी
चली आती है वो और
पालथी मार कर बैठ जाती है
घड़ी की सुइओं पर
वक्त कुछ देर तक दमघोंटू गले से
टिक टिक करता रहता है
और फ़िर बंद हो जाता है आखिरकार
खूब सारा समय इकठ्ठा हो जाता है
खत्म नही होते दिन
लाख भटकने पे भी
और रात भी मुंदी पलकों के नीचे जागती रहती है
लम्हें बैठे बैठे
उँगलियाँ फोड़ते रहते हैं
पर पोरों से
तेरे न होने का दर्द जाता नही
बहुत देर तक जब बैठी रह जाती है तन्हाई
घड़ी की सुइओं पर
और
पृथ्वी नही घूम पाने की वजह से
बेचैन हो जाती है
तो सिगरेट के बहाने सुलगा लेता हूँ
थोड़ा सा वक्त
काट लेता हूँ थोड़ा सा वक्त
सिगरेट के साथ और तुम्हारे बगैर
फ़िर सोंचता हूँ
सिगरेट के तुम्हारे स्थानापन्न हो जाने के बारे में
और फेंक देता हूँ उसे।
आज समय फिर सुबह से हीं बंद पड़ा है
पर मैंने नही सुलगाई एक भी सिगरेट.
2 comments:
aur raat bhi mundi palkon ke neeche jagti rahti hai.....................bejod shabd aur khyal.
waah kya khoob khyal laaye hain.
tanhai hoti hi aisi hai............khali kyunki tanhayi hai na.
उफ इतनी दर्द भरी तन्हाईयाँ जो पोरो से फुट-फुटकर निकलते हुये ये बयान करती है कि.....
बहुत देर तक जब बैठी रह जाती है तन्हाई
घड़ी की सुइओं पर
और
पृथ्वी नही घूम पाने की वजह से
बेचैन हो जाती है
तो सिगरेट के बहाने सुलगा लेता हूँ
थोड़ा सा वक्त......
इन पंक्तियो पर गुलजार की ये नज़्म याद आ रही है....
सब्र हर बार इख्तियार किया
हम से होता नहीं, हज़ार किया
आदतन तुमने कर दिए वादे
आदतन हमने ऐतबार किया
तेरी राहों में बारहा रुक कर
हम ने अपना ही इंतज़ार किया
अब ना मांगेंगे जिंदगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया
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