लगभग हर सेकेंड
वे एक बच्चे को जन्म देती थीं
और वे खुद सात की संख्या में
हर घंटे मर जाती थीं
वे कुछ ऐसी दुनिया की औरतें थीं
जो सिर्फ आंकड़ों में विकसित होती थी
जिस शहर में
प्रधानमंत्री का निवास स्थान था
उसमें सब-सहारा से भी अधिक कुपोषित लोग थे
मगर सरकार का यह कहना था
कि ऐसा सिर्फ जनसँख्या ज्यादा होने की वजह से था
बच्चों को उनके पैदा होते हीं
हाथ में दुःख थमा दिया जाता था
दुःख जब बजता था
वे बच्चे मुस्कुराते थे
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी
बच्चों को
रात में थप्पड़ खाए बिना नींद नहीं आती थी
मार खाकर वे रोते हुए थक कर
खाली पेट सो जाते थे
ये तरीका उस दुनिया की माओं ने इजाद किया था
उनकी माओं के स्तन
कभी इतने विकसित नहीं होते थे
कि उनमें दूध आ सके
और उनके पिता
उस शहर की सड़कों पे रिक्शा चलाते थे
जहाँ प्रधानमंत्री रहते थे
और जहाँ सड़कों के किनारे
फूटपाथ बनाने पे स्थाई रोक थी
क्यूंकि सरकार मानती थी
कि पैदल चलने वाले कहीं से भी जा सकते थे
इसलिए सड़कों को सिर्फ तेज गाड़ियों के लिए छोड़ दिया जाए
हालांकि,
सरकार ये खुल कर नहीं बताती थी
कि पैदल चलने वाले लोग दरअसल
विकास की रफ़्तार में खड्डे थे
पर प्रयत्नशील थी कि
२०२० तक सारे खड्डे भर दिए जाएँ
और इसलिए आंकड़ों पे
अंधाधुंध काम हो रहा था
विकास के इस षड़यंत्र में
पानी दो रुपये प्रति घूँट बेचा जाता था
और ये कोशिश की जा रही थी
कि लोग भोजन खरीदने से पहले
दांतों की संडन रोकने के लिए टूथपेस्ट खरीदें
क्यूंकि प्रधानमंत्री पे
टूथपेस्ट की बिक्री बढाने के लिए
कई तरह के दबाब थे
तो इस तरह
विकास के इस नए युग में
चूँकि सड़कों के किनारे फूटपाथ नहीं थे
उन सभी बच्चों के पिता
अपने रिक्शों पे सोते थे
और ज्यादातर रातों को
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं
***
27 comments:
काफी दिनों बाद आपकी बढ़िया रचना पढ़ने मिली ..आभार...
bahut khoob sirji...
पता नहीं क्यों इस रचना को पढ़ते ही मेरी आँखों के सामने लखनऊ आ गया,खैर हमेशा की तरह सोचने पर मजबूर करती रचना
vicharotejak rachna
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं
जरूरतें जिनके पास हों वे सपने ही क्यों देखते हैं!!!
सपनों का हश्र यही होना था.
बहुत संजीदा रचना. विकास की, और सरकारी आँकड़ों की बखिया उधेड़ती. और फिर आँकड़ों और हकीकत में आखिर सम्बन्ध ही कहाँ है.
बेमिसाल रचना
Har bade shahar me yahi nazaren hain!
Bahut hi sashakt rachna!
बड़ा घुमावदार काम किया है ओमजी !
बहुत उम्दा काव्य के लिए बहुत सी बधाइयां.........
बहुत सुन्दर, बहुत ही करारा व्यंग्य है, अन्दर तक झकझोर दिया, मार्मिक रचना!
ओम जी दिल मसोस कर रख दिया आपने
कटार चलाती हुई रचना है
इसबार एक अलग सा तेवर लिए आपकी चिंताएँ शोषितों की करुण कथा कह रही है आपकी कलम ।
जबरदस्त चोट - वाह!! क्या प्रस्तुति है. बहुत खूब ओम भाई!!
एक विनम्र अपील:
कृपया किसी के प्रति कोई गलत धारणा न बनायें.
शायद लेखक की कुछ मजबूरियाँ होंगी, उन्हें क्षमा करते हुए अपने आसपास इस वजह से उठ रहे विवादों को नजर अंदाज कर निस्वार्थ हिन्दी की सेवा करते रहें, यही समय की मांग है.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में आपका योगदान अनुकरणीय है, साधुवाद एवं अनेक शुभकामनाएँ.
-समीर लाल ’समीर’
kya baat hein , bahut hi khub .
बहुत ही तीखा और कटु सत्य लिखा है।
bahut khoobsurat rachna hai
यह हुई कविता भाई
नई कविता.. एकदम तेजधार और धारधार।
आप यूं ही लिखते रहे। असल जनता के पक्ष में।
bahut badhiya om bhai
" और जब सपने टूट जाते थे ,
और जरूरते रोती थी ,
तब सरकार सपनों की गिनती कर,
जरूरतों के हिसाब से कागज पर,
आंकडे भरती थी..........
आपकी कविताओं का रुझान अब वैयक्तिक से हटते हुए समाजपरक होता जा रहा है..यह अद्भुत कविता इस बात का साक्षात प्रमाण है..
कुछ समय पहले कहीं पर ऐसे ही सरकारी आँकड़ों की बाजीगरी के बारे मे पढ रहा था..कि कैसे प्रसव-संबंधी-मृत्यु की परिभाषा मे तनिक हेर-फ़ेर कर के ही बिना किसी प्रयास के आँकड़ों को घटा कर सुविधाजनक स्तर पर लाया जा सकता है...दरअस्ल हम सांख्यिकीय आँकड़ों की चाशनी मे पगने वाले समाज हैं..जहाँ किसी मेले मे भगदड़ मे एक साथ ४० लोगों के कुचल जाने पर पूरा मीडिया-तंत्र और हम सब सक्रिय रूप से चिंतित ओ जाते हैं..मगर वही पचास दिन तक हर रोज एक आदमी के कुचल कर मरने से हमें कोई नैतिक बदहजमी नही होती..बल्कि पता तक नही चलता..मृत्यु, गरीबी, विस्थापन, अन्याय, बेरोजगारी सब हमारे लिये आँकड़ों का खेल हैं..तभी जब आप कहते हैं कि
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी
..तब हम समझ पाते हैं कि यह अलग दुनिया ही दरअसल हमारी दुनिया है..जिसमे हम रेत मे सर गाड़े हुए पड़े रहते हैं..और दुःख के झनझुने हमारे जख्मों को भुलावे मे रखने के काम आते हैं..
कविता की ईमानदारी भरी तटस्थता ही उद्वेलित करती है..
ये वो कविता है जिसे मैं कहती हूँ सीधी --- इतनी कि बेध जाए दिल को अंदर तक... और चीरकर रख दे आपके अंतर्मन को ...
पिछले कई सालों में अपने वर्ग द्वारा कही गयी सर्वश्रेष्ठ कविता...
..उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं...
वाह!सुन्दर भावाव्यक्ति!
ओम जी "सच में" पर अब का स्नेह देखने को नहीं मिलता!
आज दिनों बाद अपने प्रिय कवि की कविता पे लौटा तो अपने कवि का नया ही अवतार सामने दिखा।
बेआवाज लाठी के मार-सी ये कविता...
वैए व्यक्तिगत रूप से मुझे वो प्रेम में डूबा हुआ "ओम आर्य" ही ज्यादा पसंद आता है।
बेहद ही अनुपम और सुन्दर रचना । बहुत प्रभावित किया आपकी रचना ने । बहुत ही कम मिलती है इतनी उम्दा रचनाएं पढने को । आपका कोटिश: आभार ।।
मुद्दत बाद पढ़ रहा हूँ आपको ! अपूर्व की बात से सहमत हूँ सर्वथा !
इस अद्भुत रचना के लिये शुक्रिया !
आज मैं बड़े दिन बाद आया तो देख हतप्रभ रह गया...
ऐसी काव्य धार चली यहाँ पर सारे बाँध उखड गए.... क्या सरकारी आकड़े क्या सड़क के किनारे सपने... सब बह गए.
बहुत ही सुन्दर, मार्मिक रचना ! हर एक शब्द दिल को छू गयी!
aapki rachnaa.......logo k haalat se rubaroo karaati hai......bht badhiya......shubhkamnayein
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