हम पिघल गए थे
पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें
हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...
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16 comments:
बूंद का बांध टूटेगा तभी तो सरिता या सागर बनेगा, बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता।
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
समंदर बनने के लिये इतना कष्ट तो उठाना पडेगा ही……………बेहद सुन्दर प्रस्तुति।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...
aary ji..man ufaan par hai..aur lafz labalab..beautiful!
आखिरी ४ पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं ..तभी पूरी होती है कविता शायद..
ये अधूरापन नहीं होगा तो कविताएँ ख़त्म हो जाएँगी..उनका पूरा न होना ही सही है....पूरा होने की उम्मीद में वह सदैव बनी रहेंगी...
बूँद का बांध ,,,....तोड़ ही दिया अपने...और
आपकी कविता नदी बनकर बह चली..
प्रखर कल्पना
..और जब हम फ़ैले
तो सब कुछ समेट लाएं
अपने अन्दर
बन कर समंदर...
बेहद प्रभावी और सुंदर अभिव्यक्ति .......
ओह !!!
लाजवाब !!!
हमे दौडना है सांस के भर जाने तक
और रगो मे दौडती खून को
शरीर के पूरे सिरे और धमनियो मे पहुचने तक
लाल खून को गाढा होने से बचाना है
क्योकि प्रदूषण हमारे रगो के गर्मी
को नष्ट कर रही है
और भाग रहे है हवा को पीते हुये
बदहवास हिमालय की ओर से आने वाली
गंगा मे डुबकी लगाने के लिये
पर हमे यह याद रहनी चाहिये की
पलास्टिक की बोतलो मे डुबकी नही
लगा सकते
और खाली हो गयी है गंगा
प्लास्टिक के बोतलो से !
अपनी रचना वटवृक्ष के लिए भेजिए - परिचय और तस्वीर के साथ
'
ye wali aur bhi koi
उंगलियो से बंधी सांसे
मुठ्ठियो मे उलझ जाती है तब
और घण्टो फंसी सांसो को
न छोड पाने मे जब
मै असमर्थ हो जाती हूँ तब
चल देती हूँ किसी चारागाह मे
हरी सांसो के बाडे से लग
और पी लेती हूँ थोडा जीवन
सांसो की उल्झन सुलझ जाती है
सकून मिलता है हरियाली से
फंसी सांसो को मुठ्ठियो मे
हथेलियो मे दूब निकल आये है
बंद मुठ्ठियो के बीच
दे देती है मुठ्ठीभर जीवन
फंसी सांसो को !
शुरू की पंक्तियाँ बेहद अपीलिंग हैं ।
हर शख्स में हो नहि सकता इतना सब्र और सीखना भी आसान नही.जहां हर बूंद तोड़ रही हो बान्ध वो समंदर के पास क्या जायेगा.
पिघल गये और कविता आर-पार गयी.
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