Monday, September 13, 2010

हम चाहते हैं कि समंदर हो जाएँ !

हम पिघल गए थे
पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें

हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी

हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में

दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...

________

16 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

बूंद का बांध टूटेगा तभी तो सरिता या सागर बनेगा, बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता।

vandana gupta said...

हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में

समंदर बनने के लिये इतना कष्ट तो उठाना पडेगा ही……………बेहद सुन्दर प्रस्तुति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...

Parul kanani said...

aary ji..man ufaan par hai..aur lafz labalab..beautiful!

shikha varshney said...

आखिरी ४ पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं ..तभी पूरी होती है कविता शायद..

डिम्पल मल्होत्रा said...

ये अधूरापन नहीं होगा तो कविताएँ ख़त्म हो जाएँगी..उनका पूरा न होना ही सही है....पूरा होने की उम्मीद में वह सदैव बनी रहेंगी...

meemaansha said...

बूँद का बांध ,,,....तोड़ ही दिया अपने...और
आपकी कविता नदी बनकर बह चली..

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रखर कल्पना

Archana Chaoji said...

..और जब हम फ़ैले
तो सब कुछ समेट लाएं
अपने अन्दर
बन कर समंदर...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बेहद प्रभावी और सुंदर अभिव्यक्ति .......

सुशीला पुरी said...

ओह !!!
लाजवाब !!!

संध्या आर्य said...

हमे दौडना है सांस के भर जाने तक
और रगो मे दौडती खून को
शरीर के पूरे सिरे और धमनियो मे पहुचने तक
लाल खून को गाढा होने से बचाना है

क्योकि प्रदूषण हमारे रगो के गर्मी
को नष्ट कर रही है
और भाग रहे है हवा को पीते हुये
बदहवास हिमालय की ओर से आने वाली
गंगा मे डुबकी लगाने के लिये

पर हमे यह याद रहनी चाहिये की
पलास्टिक की बोतलो मे डुबकी नही
लगा सकते
और खाली हो गयी है गंगा
प्लास्टिक के बोतलो से !

रश्मि प्रभा... said...

अपनी रचना वटवृक्ष के लिए भेजिए - परिचय और तस्वीर के साथ
'
ye wali aur bhi koi

संध्या आर्य said...

उंगलियो से बंधी सांसे
मुठ्ठियो मे उलझ जाती है तब
और घण्टो फंसी सांसो को
न छोड पाने मे जब
मै असमर्थ हो जाती हूँ तब

चल देती हूँ किसी चारागाह मे
हरी सांसो के बाडे से लग
और पी लेती हूँ थोडा जीवन
सांसो की उल्झन सुलझ जाती है

सकून मिलता है हरियाली से
फंसी सांसो को मुठ्ठियो मे

हथेलियो मे दूब निकल आये है
बंद मुठ्ठियो के बीच
दे देती है मुठ्ठीभर जीवन
फंसी सांसो को !

शरद कोकास said...

शुरू की पंक्तियाँ बेहद अपीलिंग हैं ।

emoticons said...

हर शख्स में हो नहि सकता इतना सब्र और सीखना भी आसान नही.जहां हर बूंद तोड़ रही हो बान्ध वो समंदर के पास क्या जायेगा.

पिघल गये और कविता आर-पार गयी.