Wednesday, October 8, 2008

एक टुकड़ा शब्द


लहू-लुहान
तड़पता रहा देर तक
और दम तोड़ दिया आखिर.

सारे आवाज़ एक बार फिर तोड़ दिए थे
फर्श पे पटक के उसने.

सन्नाटा दीवार के कानो पे बर्फ हो गया था
और जिंदा बचे अल्फाज़
पूरी ताकत से अपनी कंपकंपी संभाल रहे थे.

ऐसा हीं हो जाया करता था अक्सर.

एक दिन अपनी आवाज़ उठा के वो चली गयी
और दीवारों को सन्नाटे में छोड़ दिया

1 comment:

संध्या आर्य said...

सन्नाटा दीवार के कानो पे बर्फ हो गया था
और जिंदा बचे अल्फाज़
पूरी ताकत से अपनी कंपकंपी संभाल रहे थे.

इस कंपकंपी को कैसे सम्भाली होगी आपने यह सोचकर ही कंपकंपी होने लगती है...... सचित्र कर दिया है आपने अपनी पीडा को जिसे padhakar रोम रोम सिहर जाते है

बहुत गहरी जख्म बयान करती है ये पंक्तियाँ....