Tuesday, October 14, 2008

इनकार करती हैं


दर्ज करती हैं ये
हर रात मेरे ख्वाबों पे अपना बोसा

जिंदा करती हैं खामोशियों को

लबेन तेरी मेरे लबों पे गुलाब रखती हैं।

मैं इस पल में हूँ

और ये बीती रैना

पर ये ज़्यादा जिंदा हैं ।

तेरी ठहरी आवाज़ों पे कान रख के

अपनी कई तन्हाईयाँ काटी हैं मैंने

और सुबह सुबह उठ कर कई बार

बिस्तर की सलवटों में पाया है तुझे मैने

कहा था ना कि तुम जा नही paaogi.

3 comments:

Unknown said...

ओम भाई क्या खूब लिखा । धन्यवाद

विवेक सिंह said...

बेहतरीन !

रंजना said...

वाह...बहुत भावपूर्ण लिखा है...आभार.