Monday, March 30, 2009

तुम नही हो यहाँ अब!

तुम नही हो अब यहाँ

जहाँ तक पहुँचते हैं मेरे हाथ
वहां तक नही हो तुम

तुम्हारे न होने पर
तुम्हारे अभाव के कारण सृजित हुए दुःख में
मुझे रोना है
फूट-फूट कर
तुम्हारे छाती में सर घुसा कर
किसी छिरियाये हुए बच्चे की भांति
अपना हाथ-पाँव-माथा पटकते हुए

पर तुम नही हो यहाँ अब
तुम्हारी छाती भी नही
बस तुम्हारा अभाव है जो रोने के लिए
पर्याप्त दुःख सृजित करता है ।

Saturday, March 28, 2009

नाच!

वे स्थैर्य में जकड़ी हुईं हैं !
इक अदृश्य शिकंजे में।

जानता हूँ
कि जैसे हीं कोई
नाचना शुरू करेगा
खुल जायेंगी वे गिरहें
वे सारे बंधन
जो अनचाहे बांधे हुईं हैं उनको
और वे सब झूम उठेंगी

दरअसल वे इन्तिज़ार में हैं
कि कोई सिर्फ़ शुरू भर कर दे
क्यूँ कि उन सब के भीतर एक नाच कैद है
जो बाहर आकर झूम जाना चाहता है

आइये, शुरू करें
नाचना
अपने लिए और उन सबके लिए भी
ताकि वो सोया हुआ नाच एक बार जाग उठे
खुल सकें वो गिरहें
और पोर-पोर में दबी थिड़कन
बाहर निकल आए.

Friday, March 27, 2009

वो जंजीरें....

उन परिस्थितियों,
उन दबाबों के बारे में
जिसमे
नौ महीने तक अपने गर्भ में
अपना रक्त-मांस-मज्जा बाँटते रहने के बाद
वो फेंक देती है,
बिलखता हुआ उसे
शहर के किसी सुनसान कोने में
और चली जाती है

उन जंजीरों के बारे में,
जो नौ महीने तक
कतरा-कतरा जमा हुए
दुनिया के सबसे अटूट रिश्ते की ताकत से भी
तोडी नही जा पातीं

उन कर्णभेदी तानो और
हृदयभेदी उपाहासों के बारे में
जानते हुए
बड़े होकर तुम
क्या समझ सकोगे वो पीड़ा
जो उसने अपने कलेजे से तुम्हें हटाते हुए सहा होगा
वैसा दर्द जो कर्ण को
अपना कवच-कुंडल उतारने में हुआ होगा
वो होती रही होगी बार-बार बेहोश
न जाने कितने महीनो तक
और अजीवित मौन रही होगी
कई साल तक शायद।

क्या तुम उस स्त्री को
मुक्त कर सकोगे
उस अपराध बोध से
वो जंजीरें काट कर
उन परिस्थितियों , दबाबों को छाँट कर।

Wednesday, March 25, 2009

दुखों को जानते हुए !

जब तुम पूछती हो - मैं कैसा हूँ
तब मैं ,
हँसते हुए छिपा लेता हूँ
उदास बीत रहे अपने बोझिल दिनों को,
आर्थिक मंदी की चपेट में आ गई मेरी नौकरी को,
बचत खाते के धीरे-धीरे खाली होते जाने और
माथे पे रोज कल की लटकती हुई तलवार को ,
बाएँ हाथ में दुर्घटना के दौरान आ गए मोच को,
दोपहर की भूख को कचौरी, समोसे या पैटीज से बुझा देने को,
हथेली के पसीने
और सिगरेट की संख्या में हो गए इजाफे को
और भी इस तरह की कई सारी चीजों को
मैं हँसते हुए छिपा लेता हूँ माँ
जब तुम पूछती हो - मैं कैसा हूँ!

मैं जानता हूँ माँ
जब तुम कहती होगी
अपने बारे में कि तुम अच्छी हो
तुम भी इसी तरह
छिपा लेती होगी अपने सभी दुखों के बारे में
मेरे दुखों के बारे में जानते हुए


Tuesday, March 24, 2009

विस्थापित स्वर!

कुछ स्वर,

जो लब्जों के पनाह में

जगह नही पाते

उन खामोश स्वरों की रूहें

सदियों तक, इंतिज़ार करती हैं

कि शायद कभी कोई आवाज़,

कोई लब्ज आकर ,

उसे अपना जिस्म पहना दे

और उन कानों तक पहुँचा दे

जिनके लिए

उन्हे मौन में हीं छोड़ दिया गया था।


स्वर मरते नही,

वे कहीं छूट जाते हैं

मौन और लब्ज के बीच भटकते हुए।


वे दिखाई भी नही पड़ते

कि उन्हे कोई शब्द दिए जा सकें

पर वे रहते हैं

अपने वजूद में जिंदा।


अभी भी होंगें कई

हमारे आस पास,

फ़िज़ा में भटकते हुए


इसलिए किसी भी स्वर को बे-आवाज़ मत छोड़िए


आइए

हम मिल कर उन बेअवाज़ स्वरों को

पहचानने का कोई तरीका ढूँढें

और उन्हें आवाज़ देने की कोशिश करें


वे हमारे द्वारा हीं विस्थापित किए गये स्वर हैं.

Monday, March 23, 2009

साइड पन्च- कार से होने वाला फिजिकल और इमोसनल अत्याचार

दिल बड़ी नाजुक चीज होती है पर जाने क्यूँ लोग उसी पे हीं वार करते रहते हैं। छोटे छोटे लोग करें तो बच भी जाएँ पर जब बड़े-बड़े करें तो, भगवान हीं बचाए उन वारों से, तलवारों से। वैसे देखा जाए तो दिल का हाल बेहाल तो पहले से हीं था, अब और भी बदहाल होने वाला है और इस दिल की बदहाली में वे लोग फंसेंगे जिनके पास मुश्किल से एक मोटरबाइक है और जो कार खरीदने की झंझटें नही पाल सकते हैं या फ़िर पालना नही चाहते हैं। मिस्टर दबे ऐसे हीं एक आदमी हैं. पर अब, मिस्टर दबे खोलिए लब, क्या करेंगे अब?

अब तक तो आप समझ गए होंगे कि मेरे इस अनाप शनाप वकवास के पीछे की वजह टाटा की एक लाख रुपये वाली नैनो कार है और मिस्टर दबे के दिल पे एक लाख के कार से होने वाला फिजिकल और इमोसनल अत्याचार है ।

क्या मतलब ?

नंबर एक -उदारीकरण और उधारीकरण (जरा सा डाउन पेमेंट करो और बड़ा सा उधार लो) की महिमा से मोटरसाइकिल तो मिस्टर दबे के घर में पहले हीं आ गयी थी और किसी खास शनिवार या इतवार को बीबी कभी जिन्स - टी-शर्ट में बाइक के दोनों तरफ पैर करके बैठ जाती तो मोटरसाइकिल का मीटर इस उम्र में भी 70 के पार तो चला हीं जाता है । और आप तो जानते हैं गति प्रेमिका और बीबी के बीच का फर्क मिटा देती है । जो की दिल की तबियत के लिए अच्छा होता है. मेरे दोस्तों, मिस्टर दबे के लिए ये किसी फिजिकल और इमोसनल अत्याचार से कम तो नही होगा गर उन्हें कार खरीदना पड़ेगा।

नंबर दो -मिस्टर दबे जब चारपहिया हो जायेंगे, उनकी जो थोडी बहुत एक्सरसाइज हो जाया करती थी बाईक को आगे-पीछे करने में या दायें-बाएँ करने में और आदि-इत्यादि में, वो सब भी खत्म हो जायेगी। और चूँकि कार ज्यादा पेट्रोल पीती है, बजट को बिगाड़ने से बचने के लिए उन्हें निश्चित तौर पे सनफ्लावर आयल कि जगह डालडा या खजूर पीना पड़ेगा। अफ़सोस इस बात का है कि मिस्टर दबे को नही चाह कर भी कार खरीदनी हीं पड़ेगी क्यूंकि मिस्टर दबे के यहाँ सफाई का करने आने वाली बाई के पास भी नैनो होगी (नीचे एस एम् एस स्टोरी पढ़ें ) और तब उनकी बीबी के लिए ये नाकाबिले बर्दाश्त होगा कि मिस्टर दबे बाईक में ऑफिस आयें-जाएँ। यहाँ आप तय करें कि मिस्टर दबे के दिल पे कौन सा वाला अत्याचार ज्यादा हो रहा है।

एस एम् एस स्टोरी: घर में सफाई का काम करने वाली बाई ट्राफिक में काफी देर से फंसी है और तब अपने मोबाईल से फोन लगाती है और कहती है ' मई काम पे थोडा देर से आएगी, इधर बहुत ट्राफिक है और मई फंस गई है, वो पईदल होती तो किधर से भी निकल के आ जाती पर मई अपने नैनो में हई न मेमसाब'

नंबर तीन -आप क्या सोंचते हैं मिस्टर दबे का हाल क्या बाई से कम होगा। अक्सर ऑफिस में लेट होना, बॉस की फटकार सुनना और घर पे होना तो बीबी से सुनना, फटकार सुन के दिल क्या नहीं हो जायेगा बीमार. और तो और फिर पता नहीं किस किस तरह के प्रदुषण अलग, वो सब तो दिल को हीं झेलना है. ऑक्सीजन के लिए वैसे हीं मारा मरी चल रही है जाने क्या होगा मिस्टर दबे के नाजुक दिल का. एक बात और, मिस्टर दबे को एक्सीडेंट से डर भी बहुत लगता है, सो एक्सीडेंट से बच भी गए तो हार्ट अटैक ....रोड की माँ-बहन होगी सो अलग.

अबे बकवास बंद कर......


[नोट- चाइना में , एक मेयर जू जोंघेंग ने 2006 में १० लाख निवासियों से अपील की कि कृपया और कार न खरीदें . क्यूँकि नगर के सड़क पे बहुत ज्यादा दबाब हो गया था और एक्सीडेंट बहुत बढ़ गए थे .]

Saturday, March 21, 2009

लटों वाली लड़कियां !

खिड़कियाँ थीं
और उनपे परदे थे और
परदे सिर्फ़ इसलिए नही थे कि
खिड़कियाँ थी
बल्कि इसलिए कि उन खिड़कियों के उस तरफ़
जवान होती हुईं कुछ
लटों वाली लड़कियां थीं

इन लटों वाली लड़कियों के फिराक में
हम आते-जाते
खिड़कियों की तरफ़ झांकते -ताकते
कभी कभी उनमें से कुछ लड़कियां
लटों को हटाती हुई हमारी ओर भी ताकतीं
और फ़िर हम इस फिराक में
और आने जाने लगते

हमारा आना -जाना जब कुछ ज्यादा हीं बढ़ जाता तो
ये लटों वाली लड़कियां
मुस्कुरातीं हुई परदे खींच देतीं
और हमारी पतंगें बहुत ऊंची उड़ने लगतीं आसमान में।

ख्यालों में हम
अक्सर मुस्कुराते, गाते-बतियाते
उन खिड़कियों के पार जाके

एन वक्त पे
हम उन रास्तों पे,
बेवजह हीं निकल पड़ते
अपने-अपने साइकिलों पे होके सवार
जहाँ से उनके गुजरने की होती गुंजाइश

शाम के साथ
ये लटों वाली लड़कियां
जब उतर आतीं अपनी छतों पर
आस पास के अपने ठिकानो पे
हम बिना नागा किए खड़े मिलते
अपने अपने आकाशों पे अपना चाँद टांकते हुए

ढूंढते रहते हम
उनके चेहरों पे
प्यार से भरी आँखें
और आंखों में भरा प्यार
उन दिनों हम बहुत करते प्यार

हममें से ज्यादातर
नही जानते कि
कहाँ गयीं वो लड़कियां लटों वाली
किनसे प्यार किया उन्होंने आखिरकार
और वो कितना प्यार की गयीं
पर अंदेशा है कि
जिनको प्यार किया उन्होंने आखिरकार
वे हमारी तरह हीं
किसी और जगह और समय में
किन्हीं और हीं लटों वाली लड़कियों पे
लुटा चुके थे अपना प्यार.

Wednesday, March 18, 2009

इस कंटीले वक्त में


किस तरह
किया जाए प्रेम
कि उसे लाया न जा सके
वासना की परिभाषा के अंतर्गत

किस तरह
बिठाई जाए मुस्कान होंठों पर
कि वो बनावटी के कटघरे में नही पड़ें

किस तरह
मिलाऊं हाथ
कि स्पर्श में हृदय का एहसास उतार सकूं
जैसा कि गले मिल के होता है

किस तरह
करूँ दया
कि उसमें दंभ की बू न आए
और
किस तरह
जताऊँ सहानुभूति
कि उसमें खोजी न जा सके इर्ष्या से उपजी खुशियाँ

किस तरह जिउं
इस कंटीले वक्त में
बिना रक्त बहाए
निकाल सकूं अपना समय।

Sunday, March 15, 2009

यूँ हीं

1)
तेरी तार छेड़ी थी
और उस सृजित ध्वनि का पीछा किया था
देखा कि
मौन के इश्क में आ पहुंचा हूँ।
२)
जिन लोगों को
नही मिल पाता प्यार,
क्या जयादातर वही लोग
वासना के शिकार नही हो जाते ?
३)
कुछ ऐसे सवाल होते हैं
जो एक के बाद एक दिए गए जबाबों के
पीछे खड़े होते जाते हैं
एक नया सवाल बनाते हुए।
४)
ये कौन है
जो मर जाना चाहता है
और बचे रहना भी
एक ही शरीर में
एक ही समय में ।
५)
नींद के धागे
आँखें नही कातती आजकल
चरखा यूँ हीं पड़ा है
ख्वाब भी नही पहने कई रोज से।

Saturday, March 14, 2009

लापता लोग

(घुघूती बासूती जी को पढ़ के अभी मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ गई)

अखबार में छपी है,
फोटो के साथ दी हुई है
लापता होने की ख़बर।

ये लापता लोग
जिनकी कोई ख़बर नही है इनके परिजनों को ,
सिर्फ़ ये लोग हीं लापता नही है

लापता लोगो की कई और श्रेणियां हैं ...

लापता वे लोग भी हैं,
जिनके सारे परिजन
किसी आतंकवाद के शिकार हो गए
और वे लोग भी जिन्हें
उनकी मांएं, किन्ही परिस्थितियों में
कहीं रोता हुआ छोड़ आयीं
और वे लोग भी
जो ओल्ड-एज होम में रहते हैं,
इसी तरह के कई और भी लोग लापता हैं
इस दुनिया में


असलियत में
लापता लोगों की ख़बर
किसी अखबार या टेलीविजन पे नही आती
दरअसल, लापता वे लोग होते हैं
जिनको अपना कहने वाला
इस दुनिया में कोई नही होता

Friday, March 13, 2009

दरकी हुई दुनिया

दुनिया,
किसी किनारे पे खत्म नही होती
ऐसा कहते हैं खोज के परिणाम।

मैं ज्यादा दूर गया नही हूँ
अभी किनारे की ओर
पर कहाँ जाया जाता है मुझे नही पता
जब दुनिया बीच में हीं खत्म हो जाती है
ना हीं किसी खोज के परिणाम कहते हैं

तब जब दुनिया बीच में हीं दरक जाती है
पृथ्वी अपनी धूरी पे नही घूमती
दुनिया में मौसम नही बदलते
पतझर अटका हुआ रहता है शाखों पे,
चाँद उगता नही और अँधेरा डूबता नही
तब कहाँ जाया जाता है मुझे नही पता

तुम्हारे जाने के बाद डालियों पे,
हरे पत्ते नही लौटे अब तक
तो क्या हुआ गर मेरी सांस चलती है
और उंगलियों में कलम पकड़ लेता हूँ .

मुझ पे तो कील रख के ठोक दिया गया
वक़्त का सारा ख़ालीपन
और छोड़ दिया गया है
अपने बहते लहू के सहारे।

मैं जाता हूँ
उन दरारों में भी कभी कभी
जो मेरी दुनिया के
अचानक दरकने से बनी है
और ढूँढता हूँ उस टूटी दुनिया के छोर को
जो खो गयी है
पर वो वहां नही मिलती

कभी कोई छोर मिल जाए गर तुम्हे
मेरी दरकी दुनिया के
तो gujaarish है
खींच लाना उसे मुझ तक।

मैं हाथो में शुकराना लिए तुम्हारा इंतिज़ार करूंगा।

Thursday, March 12, 2009

गुस्ताखी माफ़ !

कुछ लोग (http://pratyaksha.blogspot.com/2009/02/blog-post_25.html) ऐसी रचनाएं प्रस्तुत करते हैं जिसे पढ़ कर ये महसूस होता है कि आज तक का सब पढ़ लिखा बेकार हो गया। किसी काम के न रहें. अरे यार, जब समझने के काबिल नहीं हो तो लिखोगे क्या-खाक? या तो लिखने वाले ही भंग खा के लिखते हैं या फिर पढने वाले को पढने से पहले नशा आ जाता होगा. या ये भी हो सकता है कि इस तरह की चर्चा में आने के लिए कि फलां का ब्लॉग तो समझ में हिन् नहीं आता, कुछ लोग कारगुजारी करते रहते हैं. मुझे तो लगता है लिखने वाले को भी समझ में आता है या नहीं. भाई मैं तो जयपुर में रहता हूँ और गुडगाँव जाने का किराया कभी भी झेल सकता हूँ अगर सामने वाला समझाने के लिए तैयार हो. हालांकि, सामने वाला ये भी कह सकता है कि आखिर दुनिया में और भी ब्लॉग्स हैं, तू इसके पीछे क्यूँ पड़ा है. तो भाई ये बता दूं कि पीछे पड़ने की अपनी आदत नहीं है पर इस बार न जाने कैसे रहा न गया. क्या आप बता सकते हैं कि क्यूँ न रहा गया?

नीचे उस रचना का चीड़-फाड़, जिसका जिक्र ऊपर है

कैसी आवाज़ थी ? (आप पूछ रहीं हैं या बता रही हैं?) जैसे किसी तूफान में समन्दर हरहराता हो , जैसे रेत का बवंडर गले से उठता था । उसमें पत्थरों की खराश थी , नमी थी एक खुरदुरापन था (यहाँ पे ये समझ नहीं आया कि नमी और खुरदुरापन को एक साथ क्यों लाया गया है )। रात में खुले में चित्त लेटे तारों को देखना था और किसी ऐसे ज़मीन के टुकड़े पर पाँव रखना था जो इस दुनिया का नहीं था (किसको-?)। जैसे छाती में कोई तार अटका कर खींच ले गया हो , वहाँ जहाँ अँधेरे में छिटपुट जुगनू सी रौशनी थी , फुसफुसाहटों की दुनिया थी और बहुत कुछ था , न समझने वाला (या न समझ में आने वाला? )बहुत कुछ । शायद उस बच्चे की भौंचक रुलाई सा जिसे ये नहीं पता कि उस बड़े ने क्यों उसे एक थप्पड़ मार दिया । सपने की रुलाई , गालों पर नमी छू (या छोड़?) जाती है । सपने और हकीकत के कैसे (इस 'कैसे' को मिटा दें क्या ?)तकलीफदेह झूलों पर झुलाती , उसकी आवाज़ । बीहड़ गुफा में अँधेरे को छूती आवाज़ जिसके सुरों पर ॥किसी एक टिम्बर पर रौशनी की चमकती किरण सवार हो , आँखों में चमक गया धूप का टुकड़ा , आवाज़ , जिसके सब रेशे बिखरते हों ..(?)
थक गया इतने में हीं, अब और नही होता ...

Wednesday, March 11, 2009

रंग-सबरंग!

(1)
कुछ रंग हैं कुवाँरे
रखे मेरे पास
इस होली पे
सोंचता हूँ
निकालूँ उन्हें
पर तभी जब
तुम अपनी मांग सामने कर दो
(2)
आज होली के दिन आओ
अपने होंठो पे रंग रख के,
गर तेरी इजाज़त हो
तेरे लबों पे
अपना गुलाबी इश्क रख दूँ
(3)
होली आने के
बहुत पहले से हीं
हवा हर ओर
फैला रही है
गुलाल
प्रकृति का गुलाल- धूल

Monday, March 9, 2009

मैं कृतज्ञ हूँ!

मैं कृतज्ञ हूँ

मैं कृतज्ञ हूँ
उस जीवन के प्रति
जो मुझमें और तमाम अन्य जीवों में
लगातार साँसें ले रहा है

मैं कृतज्ञ हूँ
उस सूरज के प्रति
जिसने ऊर्जा भेजने में
कभी कोई चूक नही की
और जिसके बिना
अकल्पनीय थी हमारी सर्जना

मैं कृतज्ञ हूँ
उस प्रकृति के प्रति
जिसने हवा, पानी, पेड़, बादल बिजली, बारिश, फूल
और खूशबू जैसी चीजें बनाई
और उन पे किसी का जोर नही रखा।

मैं कृतज्ञ हूँ
प्रत्येक सृजन
और उसके लिए मौजूद मिट्टी के प्रति

मैं आँसू, हंसी, शब्द, शोर और मौन जैसी
चीज़ो के प्रति भी कृतज्ञ हूँ
जो मेरी कविता का हिस्सा बनते हैं

और अन्त में
उन सब चीज़ो के प्रति
जो अस्तित्व में हैं
और जिनकी वजह से
दुनिया सुंदर बनी हुई है पर
जो यहाँ,
इस कविता में नही आ सके
जैसे स्त्री और बच्चे
मैं कृतज्ञ हूँ।

मैं कृतज्ञ हूँ सबके लिए !

Sunday, March 8, 2009

बाहें खोलो परमात्मा !

मैं चाहता हूँ
कि मेरा बहाव हो
तुम्हारे सागर की तरफ़
उमड़ता-उफनता
बदहवास भागता
तीव्र आवेग और प्यास से भरा
दौड़ा चला जाता हो मेरा पानी
तुम्हारे अथाह्पन में समां जाने के लिए

ऐसा हो कि
तुम्हारी गहराई में गहरे उतर कर
तेरी लय ताल में बहते हुए
मेर सारे किनारे टूट जाएँ
और मुश्किल हो जाए
मेरे लिए अपना स्वयं बचाना

मैं चाहता हूँ
मैं तुझमें अवस्थित हो जाऊं
और मेरा चाहना तुम्हारा चाहना हो जाए

तुम अपनी देह में मुझे
जगह तो दोगे न परमात्मा
मैं आता हूँ
अपनी बाहें खोले रखना !

Saturday, March 7, 2009

जीवन परमात्मा है

जिंदगी
जो भी उगा दे
तुम्हारी मिटटी में
अपना लो उसे

जिन्दगी
जो भी पका दे
तुम्हारे पतीले में
खा लो उसे

जिंदगी
जो भी सुना दे
तुम्हारे कानो में
सुर दो उसे

जिंदगी
जो भी दिखा दे
मान लो सच उसे

परमात्मा के बनाये जीवन में
परमात्मा हीं दीखता है,
परमात्मा हीं बजता है,
परमात्मा ही खिलता है,
परमात्मा हीं मिलता है .

Wednesday, March 4, 2009

उम्मीद

दरार पड़ते समय दर्द होता है
और
दर्द होने से दरारें पड़ती हैं

दर्द और दरार दोनों हीं क्रमवार हैं
एक के पीठ पे एक

दरारें पड़ रही हैं
दर्द हुआ जा रहा है

दर्द हुआ जा रहा है
दरार पड़ती जा रही है

कुछ समय बाद दर्द नही होगा
दर्द होने के लिए पानी जरूरी है बदन में

फ़िर शायद दरार भी नही होगा
क्रम टूटेगा

पर चाहता हूँ क्रम टूटे नही
पानी बचा रहे
क्यूंकि जब तक
एक भी बूँद पानी है
चमन के लौटने की उम्मीद है

Tuesday, March 3, 2009

सतह पर सवाल

किससे मिलूं
और किससे छिप कर निकल जाऊं
कि मिलने पर
कौन मुस्कुराएगा एक सच्ची मुस्कान

किससे खुलूं
और किससे नही
कि खुलने पर
कौन नही उठाएगा
फायदा मेरे कमजोरियों का

किसे दूँ उंगली
और किसे हाथ
कि हाथ बढ़ाने पर
कौन नही चाहेगा मेरे पहुँचा पकड़ना

क्या करूँ मैं

क्या वास्ता रखने के लिए
रखूं सिर्फ़ वास्ता
और शामिल हो जाऊं
उन्ही लोगों के भीड़ में
जो संशय और सवाल दोनों
एक साथ पैदा करते हैं

या फ़िर
इसी तरह जीता रहूँ
संशय और सवाल के बीच
ख़ुद को धकेलते हुए

Monday, March 2, 2009

बनने और टूटने के फलस्वरूप

जितनी बनाई मैंने
वे सब टूटी
कुछ वजह से,कुछ बेवजह भी

फ़िर उन्हें जोड़ा भी
जो टूट गयीं थीं
कुछ जुड़ीं भी, कुछ नही भी

जो जुड़ीं
वे फ़िर से भी टूटीं

उनके अलावा वो भी टूटीं
जो मैंने नही बनाई
पर जो अपने आप बनी हुई थीं पहले से हीं

आज की तारीख में
कुल जमा एक भी नही है
जो टूटी नही हो
एक बार भी

और
मैं अपने बदन पे
न जाने कितनी गांठें लिए
जी रहा हूँ.