Sunday, April 4, 2010

तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद

मैं तुम्हें हमेशा याद रखना चाहता था
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो

मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े

पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद

******
तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए

उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे

मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो

******
अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह

वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के

अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं

******
ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.

17 comments:

अमिताभ मीत said...

भुला के उन को अब ये देखना है 'मीत' मुझे
दिल को रहती है और उन की ज़रुरत कब तक

डिम्पल मल्होत्रा said...

भुलाने की तुमको निकालेंगे सूरत,
बहाने बनेगे बनाते बनाते..अब भी इतना दर्द है नज़्म में की सुबह सुबह आँखे नम हुई..

संजय भास्‍कर said...

आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

कुश said...

विरह पर आपकी पकड़ लाजवाब है..

Himanshu Pandey said...

हाँ, वियोग की ऐसी कविताएं विशिष्ट मनःस्थितियों की कविताएं है । बेहतरीन !
दिनों बाद देख रहा हूँ, मुग्ध हो रहा हूँ । आभार ।

सुशीला पुरी said...

घोर प्रेम मे डूब कर ही यह लिखा जा सकता है....,स्पर्श को उठाकर कभी न ख़त्म होने वाली फुर्सत मे रखने का बिम्ब अद्भुत है ....आपकी कलम कुछ अनोखा रचेगी ,बहुत बहुत बधाई इतनी खूबसूरत अभिव्यक्ति के लिए .

vandana gupta said...

nishabd kar diya hai .........kuch nahi kah pa rahi.

kshama said...

Uff! Kitnee dardbhari nazm hai...

Ashok Pandey said...

मार्मिक कविता। लाजवाब प्रस्‍तुति।

M VERMA said...

भुलाने की हसरत दिल में न पालियेगा
ये काँटा नहीं नश्तर है कैसे निकालियेगा

लाजवाब

अपूर्व said...

बेहतरीन..तीनोम कविताएं अपने पूर्ववर्ती की उत्तरकथा लगती हैं..हर बार एक नया आयाम जोड़ते हुए..एक सम्पूर्णता की हद तक जाने वाली व्यथा-कथा!
खासकर यह पंक्ति
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
पहली नजर मे संशय बन कर उतरती है..मगर कथन के मर्म मे जाने पर अद्वितीय बन जाती है..जैसे कि किसी असहनीय पीड़ा की अनुभूति दिमाग को एक पल के लिये भी अकेला नही छोड़ती..वैसे ही कवि अपने प्रिय की स्मृति को एक भी पल को दूर नही होने देना चाहता है.,यह खास लगा कि उसका जिंदगी मे होना कवि के लिये किसी सुकून की तरह होना नही वरन एक अदम्य पीड़ा, एक लाइलाज घाव के होने की तरह है..और कवि को यह ऐसा ही स्वीकार्य है..यहाँ पर बेवफ़ा होना दर्द देने की वजह से नही होता वरन जिंदगी से दूर जाने की वजह से होता है..
और एक भारी दुख के खाई मे लुढ़कने का बिम्ब..!!
आपकी बेहतरीन कविताओं मे से एक..

siddheshwar singh said...

अच्छा एक छोटा शब्द है , लेकिन फिलहाल यही....

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कमाल कविता!!!!

सागर said...

यह आपकी शक्ति है और इसका भरपूर इस्तेमाल किया है आपने, दर्द में अगर ऐसे बिम्ब और पकड़ रखेंगे तो पढने वाले कहीं नहीं जा सकेंगे... कुश और सिधेश्वर जी ने सटीक बात कही है. मेरी तरफ से ".................."

दर्पण साह said...

वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद

क्यूंकि भुला देना भी याद रखने कि एक कवायद है...
आप ही सोचो जब आप कहते हो कि तुम भुला दी गयी हो तब भी आप उसे याद करते हैं, तो कहाँ हुआ है आपके सोचे के विपरीत.
सफ़ेद हाथी को मत सोचो....
...देखा सबसे पहले सफ़ेद हाथी ही याद आया.

अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे

कौनसे दिन?

जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह

देखा फ़िर सफ़ेद हाथी पीछा नहीं छोड़ता....
--

स्वप्निल तिवारी said...

behad khubsurati se kahi hai aapne sari baaten .... padhna achha laga..kabhi na khatm honbe wale fursat ke lamhe kabhi gar mile mujhe...to poora blog padhunga... :)