कविता...तेरे शहर में फिर आसरा ढूंढने निकला हूँ!
सालों साल
फटी-उघडी देह में जीते हुए
तुम्हारे आने की आस तापती रही
और हमेशा उस किनारे से लगी रही
जहां से तुम्हारी धार गुजरनी थी
आज भी खड़ी हूँ
उसी किनारे पे
तू किधर से भी आ
मैं बह चलूंगी।
bahut sunder likha haiआज भी खड़ी हूँ उसी किनारे पे तू किधर से भी आ मैं बह चलूंगी।
बहुत उम्दा, क्या बात है!
बहुत ख़ूब.
hameshaa ki tarah..bahut acchhaa
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4 comments:
bahut sunder likha hai
आज भी खड़ी हूँ
उसी किनारे पे
तू किधर से भी आ
मैं बह चलूंगी।
बहुत उम्दा, क्या बात है!
बहुत ख़ूब.
hameshaa ki tarah..bahut acchhaa
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