Sunday, January 3, 2010

तुम्हें तो नीम भी नही मिलता होगा!


रात जब दो बजा देती है
और लाख कोशिशों के बावजूद
हर्फ़ उतार नहीं पाते उसकी आगोश कों
कागज़ पे
मैं कंही भी, जो भी मिल जाए,
उसमें समां जाने के लिए
निकल पड़ता हूँ सुनसान सड़क पर।

मैं लिपट जाता हूँ नीम से
और लिपटा रहता हूं
सोंचते हुए देर तक
नीम की लम्बी उम्र और
और बिना आगोश के जीने की उसकी विवशता के बारे में।

मैं फटकारता हूँ
ख़ुद को उसकी विवशता पर
और छोड़ देता हूँ अपनी शक्ल को
रोता हुआ हो जाने के लिए
यह जानते हुए
कि इस अँधेरी रात में किसी के बिना देखे
धीमे-धीमे रोना सम्भव है,
पर रोना धीरे-धीरे तेज हो जाता है

और मुझे पकडनी पड़ती है अपनी शक्ल

रोते-रोते यह भी सोंचता हूँ
कि मैं निश्चित रूप से अब प्यार नही करता उससे
और इसलिए हीं नही उतार पाता
उसकी आगोश को कागज़ पर
और फ़िर और जोर से रोने लगता हूँ प्यार के ख़त्म हो जाने पर,

पर यह शायद प्यार हीं होगा,
जो ख़त्म होने पे मुझे रुलाता है

इन सबके बावजूद
मैं हमेशा ये सोंचता हूँ
कि दो बजने और
कागज़ पे आगोश न बना पाने की
उसकी भी अपनी रुलाई होगी

जिसे रोने के लिए वह अपने मुंह में कपडे कोंच लेती होगी
क्यूंकि रात कों दो बजे उसके लिए घर के बाहर जाना संभव नहीं होता होगा
और उसे तो नीम भी नही मिलता होगा !



21 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत सुन्दर रचना . नववर्ष की शुभकामना

रश्मि प्रभा... said...

नीम की लम्बी उम्र,जीने की विवशता या औरों के लिए जीना .........
बहुत ख़ास एहसास संजोये हैं

shikha varshney said...

kuch alag si rachna hai,alag se ahsas..sunder ...achcha laga padhna..navvarsh ki shubhkaamnayen aapko

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है....अपने भीतर के एंकाकीपन को बहुत सुन्दर शब्दो से अभिव्यक्त किया है।बधाई।

M VERMA said...

और तुम्हें तो नीम भी नही मिलता होगा!
इस विवशता को समझ लेने का माद्दा भी तो उसी को है जो आगोश को हर्फ से नही दिल से समझते हैं
बेहतरीन

Razi Shahab said...

सुन्दर रचना .

Kajal Kumar said...

भई बहुत सुंदर.

गौतम राजऋषि said...

सोच रहा हूँ कि इस बिम्ब की प्रेरणा कहाँ से मिली आपको?

अद्‍भुत!!!

कंचन सिंह चौहान said...

रोना रोकने के लिये मुँह में कपड़ा कोंचना.....

कुछ ऐसा याद आया जो जाने कैसे आपने लिख दिया....!

रंजू भाटिया said...

बहुत कुछ समेट लिया आपने अपने इस लिखे में ...बहुत कड़वा सच है यह ठीक नीम जैसा ..सुन्दर अभिव्यक्ति

सागर said...

भारी बोझ !....

के सी said...

इन सब के बावजूद, मैं हमेशा ये सोचता हूँ कि दो बजने को है...
समय के चिन्हों का इतना खूबसूरत उपयोग कई बार वहीं रोक लेता है .. सुंदर कविता .

डिम्पल मल्होत्रा said...

जिसे रोने के लिए वह अपने मुंह में कपडे कोंच लेती होगी
क्यूंकि रात कों दो बजे उसके लिए घर के बाहर जाना संभव नहीं होता होगा
और उसे तो नीम भी नही मिलता होगा ! kis tarah aapne neem ke dukh se uske dukh ka warnan kiya hai.shayad koee gulmohar ho ab par neem apni jagah hai.kisi ne is diwali diye bhi to nahi jlaye the neem pe.

pallavi trivedi said...

दूसरे की विवशता को समझना और उसे इस तरह से नज़्म की शकल में उतार देना.....वाह

Renu goel said...

जुदाई का अहसास भी प्यार का ही नाम है ...भावनाओं में बहकी हुयी कविता ...
नव वर्ष की शुभकामनाएं ..

ज्योति सिंह said...

behtrin laazwaab rachna man ko chho gayi ,nav varsh mangalmaya ho aapke liye ,haardik shubhkaamnaaye

Yogesh Verma Swapn said...

sach hai use to neem bhi nahin milta hoga, bahut khoobsurat abhivyakti, omji badhaai.

सदा said...

बहुत कुछ कहती सुन्‍दर पंक्तियां, भावमय प्रस्‍तु‍ति, आभार ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

एहसासों को नए अंदाज़ में लिखा है....नीम के पेड़ से लिपट कर सोचना ...नयापन लिए हुए है....

सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई

अपूर्व said...

अब इस फ़ीलिंग के लिये क्या कहूँ मैं..रात के दो बजे की यह कश्मकश कि घड़ी के कदम वहीं थम क्यो नही जाते ठिठक कर..आगोश के पन्ने मे उतर पाने तक..मगर मगर यह आगोश भी व्यक्त किये जाने के लिये उतना ही तरसता होगा जितना कि वे हर्फ़ उस कागज पर उतरने के लिये..और खुद नीम किसी के आलिंगन के एक पल के लिये..
इस कविता की एक अन्य खूबसूरती इसमे पैसिव कारकों का प्रयोग है जो इस उदासी की तासीर को और सघन कर देती है...रात का दो बजा देना..शक्ल को रोता हुआ हो जाने का मौका देना..और रोने देना..
जबर्दस्त.

Prem said...

vखुले दिल से भावों को व्यक्त करती सुंदर रचना .नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं .