जिनको भी दुःख हो
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ
कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...
***
Wednesday, June 30, 2010
Sunday, June 20, 2010
जब रातें सारी ख्वाब में बर्बाद होती हों !
जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी
जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह
सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर
उस तरफ चली जाती हैं
----------
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी
जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह
सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर
उस तरफ चली जाती हैं
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Saturday, June 12, 2010
बंजर होने के ठीक पहले
चूहे दौड़ते थे
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
-----
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
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Tuesday, June 8, 2010
शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था
चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक
पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है
वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था
चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक
पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है
वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे
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