Sunday, July 11, 2010

स्त्री के हक़ में कविताएं

*
जैसे कठिन होता है
पुरुष होते हुए
उबले हुए गर्म आलू छीलना
और बिना चिमटे के अंगीठी में रोटियां सेंकना
उसी तरह कठिन है
पुरुष होते हुए अभी जीना भी

क्यूंकि अभी भी जरूरी है
कि लिखी जाएँ स्त्री के हक़ में कविताएं

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तुम्हारी कमीज से
जब करीब आयी मेरी नाक
पसीने की गंध से भर गए नथुने
पर चूम कर हीं लौटा
तेरा पसनाया हुआ
वो गर्दन का तिल

जानता हूँ
इस एक बेडरूम,
हौल और किचेन की परिधि के भीतर
दिन भर न जाने कितने होते होंगे काम

***
बारिशें आती हों
और पृथ्वी भींगने के लिए
खड़ी हो जाती हो
घूमना छोड़ कर

तुम्हें जब कभी देखा है एक टक
मिट्टी महकी है
तेरी सोंधी-सोंधी सी

इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा

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19 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

हर बार की तरह सुंदर अभिव्यक्ति के साथ .... सुंदर रचना....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर ....बहुत संवेदनशीलता से लिखी हैं

वन्दना अवस्थी दुबे said...

हमेशा की तरह सुन्दर.

Udan Tashtari said...

बहुत गहन अभिव्यक्ति! वाह!

Renu goel said...

अगर बारिश में गल जाती स्त्री तो फिर
स्त्री , का अस्तित्व ही न होता ,...ये बारिशें उसकी ताकत बनकर उभरती हैं ...

संध्या आर्य said...

कल एक टुकडा
यादो का मिला
पुरानी दरख्त से टंगा
जिसके शरीर से लगे
हर एक जख्म हरे थे
तन्हाई मे सुबक रहे थे
सबके सब!

संध्या आर्य said...

कुछ अंजाने दर्द से
सपने जख्मी होते गये
बहारो की नम आंखे
पिघलती रही
रिश्तो की उमस भरी बादलो से

जब कभी तेरे मासूम सवाल
मेरे कंधे से होकर गुजरे
उन्हे अकसर गले से लगा लिया !

वाणी गीत said...

सुन्दर ..!

vandana gupta said...

वाह्…………॥बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

राजकुमार सोनी said...

शानदार.

sonal said...

इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा


behad khoobsurat panktiyaan

M VERMA said...

इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा

गलते हुए नही देखा पर गली है वह
सूरज के ढलते ही रोज ढली है वह
बहुत सुन्दर रचनाएँ .. शानदार

अनामिका की सदायें ...... said...

गहरे भावो की पोटली सी ये सुन्दर कविता अच्छी लगी.

अजय कुमार said...

सुंदर है ,अच्छी अभिव्यक्ति ।

सदा said...

बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

vaah!

नीरज गोस्वामी said...

ओम भाई...कमाल किया है आपने....कमाल मतलब कमाल...शब्द और भाव इस तरह पिरोये हैं अपनी इस कविता में के क्या कहूँ...वाह...वा...करते ज़बान नहीं थक रही...
नीरज

अपूर्व said...

इतना ही कठिन होता है एक पुरुष होते हुए अपने भीतर की स्त्री को बचाये रखना..भारी आँधियों के बीच एक दिया छुपाये रखना होता है आँचल की ओट..तभी कभी-कभी स्त्री के हक मे कविता से ज्यादा उबले आलू छील लेना या रोटी सेंकना काम कर जाता है..इसीलिये कविता करना भी थोडा स्त्री होना ही होता है...
बारिश के इंतजार की जमीन की सदियों लम्बी कसक को बड़े शिद्दत से उकेरा है कविता मे...

संध्या आर्य said...

अपूर्व जी की टिप्पणी कुछ शब्द जेहन मे ऐसे ही आ गये जो कुछ इसतरह है......

तू नही है
एक शब्द महज
टुकडा टुकडा एहसासो का
कतरा कतरा शब्द जो तेरे
आँखो से अश्को मे आते
होता कोई झील समंदर

ख्वाब मे भींगते
शब्दो के पर
निशा नयन की क्षितिज पर

मौन से होते सन्नाटो तक
गर जो शब्द होती आवाजो मे
सदियो की है साथ तुम्हारी
लिखी होती हर कविता पर!