नींद औंधा पड़ा है
रजाई में सिकुड़ कर,
इस तरह जैसे सर्दी ज्यादा हो
और रजाई कम पड़ गयी हो
बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
कुछ हीं देर में नींद नंगी हो जायेगी शायद
निहायत कमजोर सा कोई वक़्त
अपने टखने में
दर्द लिए चल रहा है,
शायद अपने बुढापे में है.
आईने में
जब देखती हैं आँखें
दिखाई पड़ती हैं
कुछ सफ़ेद पपनियाँ
ऐसे में मैं ढूंढता फिरता हूँ
तुम्हारे हाथों से
बनायी हुई
एक कप कड़क काली चाय
ऐसा तबसे है जबसे
तुम छोड़ गयी हो मेरा किचेन !
31 comments:
कविता हो तो ऐसी। तरस गए कि कब ऐसा रच पाएँगे?
दाम्पत्य की प्रगाढ़ता कैसे दैनिन्दिन समस्याओं को डाइलूट कर देती है - देखना हो तो यह कविता देखें।
आलोचक कहेगा, अरे भाई, उस समय सहधर्मिणी बेचारी आराम फरमा रही होगी। खुद बना कर क्यों नहीं पी लेते? नारीवादियों को पुरुष की कु-आदत नज़र आएगी। लेकिन भैया! उस भाव का क्या करें जो कष्टों में सहधर्मिणी की याद दिला देते हैं ? कुसंस्कारी ही सही भाव को कुछ तो भाव दो।
बधाई आर्य जी।
टखने में दर्द और चाय की फर्माइश क्या जुगलबंदी है।
बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
bahut hi sunder panktiyan.....
poori kavita bahut khoobsoorti se likha hai aapne....
ऐसे में
तुम्हारे हाथो से
एक कप कड़क चाय
हो जाये अगर
आह्हहहा !
इक गरम चाय की प्याली हो
कोई उसको पिलाने वाली हो ........ तररारा पम..पम !
बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
बहुत खूब और दर्द के वक़्त की याद चाय की इच्छा और उस से जुडा हुआ बहुत कुछ है आपकी इस रचना में ..बेहतरीन ..
हमेशा की तरह लाजवाब एक बेहतरीन प्रस्तुति...ओम जी कहाँ कहाँ से विचार ढूढ़ लाते है आप शब्द शब्द दिल मे समा जाते है...बेहद उम्दा रचना...बधाई
मन के दर्द और भावों को शब्दों में बखूबी पिरोया है.
सही लिखते हैं--
अनुपस्थिति में ही किसी के महत्व का ज्यादा मालूम चलता है...
बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना, हर शब्द जाने कितना कुछ कहता हुआ ।
जीवन को बेहतरीन शब्दो मे पिरोया है आपने सपनो के माध्यम से।
आपकी सभी रचनाएँ पढ़ कर कौतूहल जागता है कि वो कौन निष्ठुर है जो आपको ऐसी कविताएँ लिखने पर मजबूर करता है...
पीठ, कमर, टखने में दर्द मेरे भी होता है... वक़्त से पहले हम दोनों बुड्ढे हो गए... तो क्या समय आ गया है की हमें होम स्वीट होम के रास्ते निकल जाने चाहिए... पर क्या जिन ये दर्द वहां ख़तम जो जायेंगे ? फिलवक्त यक्ष प्रश्न तो यही है ? है के नहीं ???
ऐसे में मैं ढूंढता फिरता हूँ
तुम्हारे हाथों से
बनायी हुई
एक कप कड़क काली चाय
===
बहुत खूब
ओम भाई, ऐसा सिर्फ आप ही कह सकते हो...
बेहतरीन !!
ये बताइए कि
"शायद अपने बुढ़ापे में है."
और
"आईने में
जब देखती हैं आँखें
दिखाई पड़ती हैं
कुछ सफेद पपनियाँ"
और
"ऐसा तबसे है जबसे
तुम छोड गयी हो मेरा किचेन !"
बाद में जोड़े क्या?
या
टिप्पणी करते समय मुझसे पढ़ने से छूट गई थी ये पंक्तियाँ?
यदि छूट गईं थीं तो बड़ी भारी चूक हुई है मुझसे पहली टिप्पणी करने में।
मैं हतप्रभ हूँ अपनी चूक पर।
सोचता ही जा रहा हूँ. . .
बस इतना ही कहूँगा......बेहतरीन नज़्म नए ख्याल......नयी बात.......खूबसूरत एहसास....
बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
bahut khoob om ji khwaab ki niyati hai toot kar bikharna.
परस्पर संबंधों की छोटी सी कड़ी भी आपके पास आकर नए आयाम में विन्यस्त हो जाती है.
सुंदर,श्रेष्ठ.
निहायत कमजोर सा कोई वक़्त
अपने टखने में
दर्द लिए चल रहा है,
शायद अपने बुढापे में है.
सिर्फ़ आपके बस की ही बात है ओम साहब..सिर्फ़ आपकी कलम ही पहचानती है यह बिम्ब..कि कोई वाह-वाह भी कहाँ तक करे..
ऐसे में मैं ढूंढता फिरता हूँ
तुम्हारे हाथों से
बनायी हुई
एक कप कड़क काली चाय...kuch cheeze ki ahmiyat kho jane ke baad hi hoti hai...jaise ki kali chaye.....
उम्र के ढलते हुवे पढाव की यादों में डूबे एकाकी जीवन के मर्म को गहरे शब्दों में गूंथा है आपने ओम जी .........
अंतिम समय में इंसान को जब हर गम सताने लगता है , जब किसी के साथ की जरूरत शिद्दर से महसूस होती है .......... उस वक़्त किसी के न होने क एहसास जीते जी मार देता है .........
गहरी सोच छिपी है इस रचना में .............
ओम भाई,
शब्दों के आईने में समाया हुआ पूरा संसार, समस्त जीवन और उसकी धूप, छाँव भी ! किस नजाकत से आपके शब्द एक चित्र खींचकर रख देते हैं--'पिपनियों के श्वेत केश', 'टखने का दर्द', 'ख्वाबों का आगन में टूट-टूटकर गिरना' और एक अदद 'काली चाय की प्याली' की प्यास ! उस पर 'जब से तुम किचन छोड़ गई हो' की मीठी शिकायत... उफ़, ये फन, ये जादू बिखेरना आप ही के वश की बात है बंधु !!
थोडी नहीं, बहुत सारी बधाइयाँ !!
सप्रीत--आ.
"Nihayat kamjor sa koi vaqt......."
kamal ki panktiyan hain...poori kavita dil ki gehraiyon tak jati hai.
शानदार.......!
ओम जी ,
ऐसे में मैं ढूंढता फिरता हूँ
तुम्हारे हाथों से
बनायी हुई
एक कप कड़क काली चाय
ऐसा तबसे है जबसे
तुम छोड़ गयी हो मेरा किचेन !
ज़िन्दगी के ऐसे पड़ाव पर साथ की बहुत ज़रुरत होती है
सुन्दर अभिव्यक्ति
om ji
aaj ki aapki rachna ek alag hi andaaz liye huye hai jismein bhavnaon ka samagam adbhut hai ............shabd aise hain jo hansate bhi hain aur rulate bhi hain..........kahin bichhadne ka dard hai to kahin ek ahsaas apne pan ka hai..........bahut hi nazuk aur khoobsoort rachna hai ........aapke har bhav ko ujagar karti...........badhayi.
Kitnee sadagee se ek pyalee chaay kee chahat jatayee hai...eeshwar kare aur aapki tanhayiyan khatm hon...sunharee dhoop me jeeven gunguna uthe...tahe dilse dua hai!
Aapki ye vedna ye kasak, kachot jaatee hai...
ये छोड़ के जाने वाली बात का बड़ा सॉलिड अनुभव है आपको :)
ऊपर जैसा की गिरिजेश जी कहते हैं, सचमुच तरस जाते हैं हम में से अधिकांश तो ऐसा रच पाने को और आपके के लिये जैसे रोजमर्रा की बात हो ये...
you are superb Om saab!
yaadan yun hi kabhi chay , kabhi rajaai,kabhi kuch ban jati hain.......yah sab ek bahana hai, unko aana hai
वाह ओम जी वाह ! अद्भुत रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ बेहद सुंदर है! उम्दा रचना !
वाह क्या बात है आपकी कविता हमेशा कुछ खास होती है
वीनस केशरी
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