Wednesday, November 11, 2009

ऐसा नही है कि ये धुंध नया है !!

ऐसा नही है कि ये धुंध नया है
धुंध होते आए हैं
और आँखें मात खाती रही हैं

जब जाड़े के दिनों में
साइकिल पे निकला करता था
सुबह-सुबह ट्यूशन के लिए,
ये धुंध तब भी किया करती थी परेशान

ये धुंध तो हटाये नही हटती थी
जब बारहवीं की परीक्षा में
पहले निस्कासित और फिर बाद में
अनुतीर्ण होना हो गया था

इस धुंध ने हाथ पकड़ लिए थे मेरे
जब एक उमरदराज़ औरत के प्रेम में था
और निकलना चाहता था
और तब भी जब मुझे पड़ने लगे थे
मिर्गी के दौड़े अचानक से

पढ़ाई पूरी होने के बाद
रोजगार की तलाश में
जब निकल आया था घर से मैं
तब भी बिल्कुल यही धुंध छाई हुई थी चेहरे पे

आज भी धुंध हैं कुछ
और मैं जानता हूँ आगे भी रहेंगे ये
क्यूँकि जिंदगी बिना धुंधों के सफर नही करती

अभी तक के सारे धुंधों से तो
निकाल लाए हो तुम,
ऊँगली पकड़े रखा है मेरा
और अकसर पूछते हो
कि मैं कहीं लडखड़ा तो नही रहा
और आश्वस्त हो जाते हो जान कर कि मैं सकुशल हूँ.

पर मैं सोंचता हूँ उन दिनो के बारे में
जब धुंध तो होगी, पर तुम नही रहोगे

तब मैं कैसे निकलूँगा उन धुंधों से पापा !!!

28 comments:

Mithilesh dubey said...

बहुत ही उम्दा रचना । लाजवाब अभिव्यक्ति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

धुंध को लेकर अच्छी परिकल्पना की है!
बढ़िया विष्लेषण!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

उफ्फ्फ्फ्फ़..... बहुत सारी धुंध पाले रखे है आप तो !
आख़िरी पंक्तियों ने धुंद साफ़ कर दी..... सुन्दर !!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

Sirf ek shabd kahunga.........


Nishabd hoon.........

Speechless........

Ultimate.........

Marvellous............

Highly imaginative....

Mists to be touched.......

Apanatva said...

bahut hee sunder rachana . ye dhoondh bhee kafee kuch seekha jatee hai jeevan ko . anubhav rah dikhate chale jate hai .

सदा said...

जिन्‍दगी बिना धुंधों के सफर नहीं करती, बहुत ही सुन्‍दर एवं लाजवाब प्रस्‍तुति, बधाई ।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

उत्तम बात कही

अजय कुमार said...

जीवन में तरह तरह के धुंध आते हैं , इसका बखूबी वर्णन
और पिता का महत्त्व भी समझाता हुआ

दिगम्बर नासवा said...

BAHOOT KHOOB OM JI ........ DHUND KO PRATIBIMB MAAN KAR BEJOD KALPANA DOUDAAI HAI AAPNE .... KADAM KADAM PAR UNKI JAROORAT IS DHUND KO MITAANE MEIN ........ APNE ASTITV KO SAAMNE LAANE MEIN .... FIR KABHI IS DHUND KE BAAHAR KI DUNIYA KO SPASHT DEKHNE MEIN ..... MAA, PITA YA GURU YA BACHPAN KI KOI CHAAHAT ......... SACH MEIN KISI NA KISI KE SAHAARE की जरूरत हर किसी को पढ़ती है ....... AUR वो सहारा जब दूर हो जाता है ......... BAT INSAAN BAS SOCHTA HI RAH जाता है ..........

DIL KE JAZBAATON को GAHRE ABHIVYAKT KIYA है AAPNE ..........

डिम्पल मल्होत्रा said...

jaise ab tak niklte aaye hai dhundh se hmesha nikalte rahenge.....aameen....

Ambarish said...

zindgi bina dhundhon ke safar nahi karti... papa hon na hon, dhundh to paar karna hi padega.. mere bhaiya ek puraane geet ki tarz par mujhe kahte hain.. abhi to tune jeeti hai bas zameen, mukammal aasman pada hai jeetne ko...

kshama said...

Ek dhundse aanaa hai, ek dhoond me jana hai..

निर्मला कपिला said...

मैं भी यही सोच रही थी कि हमेशा की तरह इस धुँध मे भी पता नहीं कौन होगा मगर एक सुखद आश्चर्य के साथ धुन्ध साफ हुई बहुत उम्दा रचना है बधाई

Dr. Amarjeet Kaunke said...

dhund me apke papa ka hath umar bhar apke sath bna rahe dost....

shikha varshney said...

इन धुंध के बिना जीवन नहीं है ..इन्हीं को पार कर हम आगे बड़ते हैं..बहुत कुछ सिखा गई आपकी रचना ...शुभकामनायें.

Murari Pareek said...

bahut romanchit kar diyaa ant me !!! vishes rachnaa hai !!!

Yogesh Verma Swapn said...

ghazab, mere pitaji ki yaad dila di,hridaysparshi rachna.

रश्मि प्रभा... said...

यह कलम ही तो धुंध को काट रही है....
बहुत अच्छी रचना

अपूर्व said...

सच हैं आपकी बात..
..हमारे हाँथ मे तो बस वर्तमान है..पीछे धुंधली स्मृतियाँ, लोग, घटनाएं..आगे धुंधली उम्मीदें, डर, लक्ष्य..और वर्तमान भी क्या..बस मुट्ठी की रेत !!!

और आप की आखिरी पंक्तियों पे आलोक श्रीवास्तव की एक ग़ज़ल याद आती है

मुझे मालूम है तेरी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है

Urmi said...

आपने बेहद सुंदर और गहरी सोच के साथ लाजवाब रचना लिखा है कि आपकी तारीफ के लिए मेरे पास अल्फाज़ कम पर गए! आपकी हर एक रचनाएँ एक से बढ़कर एक है!

चन्दन कुमार said...

आपके शब्दों की अभिव्यक्ति का मैं कायल हूं, जैसे लब्जों को पिरोया गया हो, भावनाएं छलकने लगती हैं, बेहतरीन और लाजवाब

सागर said...

ये धुंध तो हटाये नही हटती थी
जब बारहवीं की परीक्षा में
पहले निस्कासित और फिर बाद में
अनुतीर्ण होना हो गया था

इस धुंध ने हाथ पकड़ लिए थे मेरे
जब एक उमरदराज़ औरत के प्रेम में था
और निकलना चाहता था
और तब भी जब मुझे पड़ने लगे थे
मिर्गी के दौड़े अचानक से

... अब ना पूछना कि मैं आपका फैन क्यों हूँ?

गौतम राजऋषि said...

अपनी छोटी समझ के मुताबिक मैं एक कवि को सफल तब मानता हूँ, जब उसे पढ़ते ही उसका हर पाठक समझने लगे कि अरे! ये तो मेरी ही बात है...ये कविता तो मेरी लिखी होनी चाहिये थी!!!

आपका लिखा जब जितनी बार पढ़ता हूँ ओम भाई, ऐसा ही लगता है हर बार कि ये मैंने क्यों नहीं लिखा...कि ये तो मेरी ही बात है! लेकिन ये तो ओम की लेखनी का ही चमत्कार हो सकता है, बस।

धुंध का ये इमेज और पापा का हर इस धुंध से उबारने की तस्वीर...क्या हम सब का ही सच नहीं है???

एक बेमिसाल कविता है ये!

डॉ .अनुराग said...

साइकिल ओर साइकिल वाले दोस्त अब भी है .बस उस पर बैठने वाले लोग वक़्त के साथ बदल गए है .खो गए है

Udan Tashtari said...

बहुत करीब से गुजरती रचना. वाह!! लाजबाब!

Meenu Khare said...

आखिरी पंक्ति ने दिखा दिया की यह ओम आर्य की ही कविता है.

vandana gupta said...

om ji
nishabd kar diya..........bahut hi gahan.

विनोद कुमार पांडेय said...

अभी तक के सारे धुंधों से तो
निकाल लाए हो तुम,
ऊँगली पकड़े रखा है मेरा
और अकसर पूछते हो
कि मैं कहीं लडखड़ा तो नही रहा
और आश्वस्त हो जाते हो जान कर कि मैं सकुशल हूँ.

दिल छू लेने वाली सुंदर कविता ओम जी जिंदगी है और जीने का जज़्बा है तो हर कदम पर हमें धुंध का सामना करना पड़ेगा और ऐसी हालत में बस जैसा की आपने कहा प्यार और आशीर्वाद ही हमे सहारा देते है..बेहद उम्दा रचना..दिल में बस गयी आपकी यह रचना...बहुत बहुत धन्यवाद