Sunday, January 31, 2010

पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...

कुछ दुखों कों अस्तित्व में आना था
मेरा शरीर काम आया
मुक्त हुए वे देह पाकर

मगर अपनी अंतिम यात्रा पे
जाते-जाते
वे राह बता गए
और कई सारे दुखों को

और तब से उनकी आमद
बदस्तूर जारी है

सोंचता हूँ
बहुत सारे सुख भी होंगे
कतार में
देह पाकर प्रकट होने जाने के वास्ते खड़े
फिर सोंचता हूँ
शायद उन्हें भी
बता गए हों कुछ पूर्वज सुख
कुछ पते-ठिकाने
जहां प्रकट हो रहे हों वे लगातार

मैं अपनी देह लेकर
नहीं गया कभी उन तक
न हीं कोशिश की
कि पता चले उनको मेरी देह का पता

जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता रहा है
कि इस दुनिया से

पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...

Thursday, January 28, 2010

बारिश में भींगती शाम

भरी दोपहर में घर लौटकर
देखा
कि तुम कहीं और
मुझसे दूर, बहुत दूर
बारिश में भींगती शाम लग रही हो

मैंने अक्सर सोंचा है
कि तुम बारिश में भींगती शाम हीं हो
या उसके लिए
मेरा
भरी दोपहरी में होना जरूरी है
और तब
मेरी आँखें मुस्का गयी हैं ये जान कर कि
दरअसल मेरी सोंच हीं तुम्हारी बारिश में भींगी है
और मैं
कभी भी भरी दोपहर में घर लौट कर
तुम्हें
बारिश में भींगी शाम की तरह पा सकता हूँ

तुम जवान हीं पैदा हुई
मैंने देखा तुम्हे जनमते हुए अपने ख्वाब में
एक भरी दोपहर को घर लौट कर ली हुई झपकी में.
तुम मेघ भरे काले दुपट्टे में जन्मीं थी
जो बरस कर मुझे पसीने से तर-बतर कर गयी थी
उसके बाद तो
मेरी आँखों ने
तुम्हारा सुरीलापन न जाने कितनी दफा पढ़ा
और तुमने एक बार भी अपनी धुनें गिरने नहीं दीं

न जाने कितनी रातों को हम चले चाँद के साथ
वो घटता-बढ़ता रहा
और हम जोड़ते रहे अपनी रातों के लिए
जरूरते भर रोशनी
वे सफ़र कभी ख़त्म नहीं हुए
और आज भी बदस्तूर जारी हैं
आज भी मैं उठता हूँ
तो उसी बिस्तर से
जहाँ से उठाई थी मैंने आखरी नींद तुम्हारे साथ

मुझे मुबारक है वो झपकी
और वो ख्वाब
जिसमें पैदा हुई तुम
और अक्सर मनाता हूँ तुम्हारा जन्म दिन
भरी दोपहर में घर लौट कर
जिसमें तुम बारिश में भींगती शाम लगती हो
भले हीं दूर, बहुत दूर शायद..

Saturday, January 23, 2010

जगहें, जहाँ प्यार अब उपस्थित नहीं

हालांकि
यूथ हॉस्टल के जरा आगे
जहाँ शहीद स्मारक है
उनकी सीढ़ियों पे अभी भी बैठते हैं कुछ युगल
अभी भी होती है उन पे बारिश
और कभी-कभी तो ख़ास सिर्फ उन सीढ़ियों के लिए हीं
मैं नहीं गुजरता उस तरफ से,
मुझ पे नहीं होती अब बारिश


उसी तरह
डियर पार्क के पास
अभी भी बिकती है कॉफ़ी
बल्कि अब बढ़ गयी हैं कॉफ़ी की दुकाने वहां पे
और उससे सटे बगीचे में पड़े पत्थर के बेंचों पे
स्थायी रूप से बैठा करते हैं
सहसंबंध
पर मैं संबंध के सह नहीं अब


इसके अलावा वे अवस्थित हैं

जलमहल के किनारे
नाहरगढ़ की ऊँचाइयों पे
सेन्ट्रल पार्क के भव्य खालीपन में

जवाहर कला केंद्र की कलाओं में
यहाँ कुछ और नाम आसानी से जोड़े जा सकते हैं

कुछ और भी जगहें हैं
जो प्यार में उगाई गयी हैं
या उगाई जा रही हैं
जिनके बारे में कईयों कों मालुम नहीं
पर जहाँ जन्म लेती हैं
अनंत प्रेम कलाएं नियमित तौर पे


पर मुझे क्यूँ लगता है
कि स्टेच्यु सर्कल से लेकर सेन्ट्रल पार्क तक
या फिर यूनिवर्सिटी से लेकर जवाहर कला केंद्र तक
या आमेर से लेकर जंतर मंतर तक
कहीं बचा नहीं है प्यार
बिलकुल हीं नहीं

मैं अक्सर सोंचता हूँ...
प्यार तो शाश्वत है
वो तुम्हारे जुदा होने से ख़त्म कैसे हो सकता है !

Tuesday, January 19, 2010

सिरहाने में से आधा चाहिए...

सिरहाने में से
आधा चाहिए...

जब आऊं किचेन से काम कर के
और तुम पहले से रजाई में रहो
तब चाहिए
तुम्हारी हथेली और तलवे से आधा ताप

चाहिए अपने कंधे पे तुम्हारा एक हाथ
और कदम सारे साथ-साथ

जहाँ जहां मैं तुम्हारा आधा लेकर
हो सकती हूँ पूरी,
खड़ी हो सकती हूँ तुम्हारे साथ
वहां-वहां चाहिए तुम्हारा आधा

और कई जगह चाहिए पूरा भी...

ऑफिस के लिए घर से निकलते समय
चाहिए एक पूरा आलिंगन
और माथे पे एक पूरा चुम्बन
और चाहिए तुझमें अपनी पूरी सिमटन
शाम ढले जब तुम ऑफिस से लौटो तो

तुम्हारी आँखों के लौ
और होंट के स्वर भी चाहिए
जितना तुम दे सको

और बदले में इसके

मेरी तरफ से
एक पूरा ग्लास समर्पण
जब तुम घर लौट कर सोफे पे बैठो तो

बाकी कभी-कभी तो हम
साथ पान खा हीं सकते है

Friday, January 15, 2010

एक जरूरी गैर-कविता !

मैंने उसकी मदद कर दी आज
अच्छा लगा करना

मैं उसे जानता नहीं था
इसलिए और अच्छा लगा करना

बाद में जब उसने जताया आभार
और अच्छा लगा

ज्यादा अच्छा लगा
उसकी आँख में देख कर
जिसमे दिखाई पड़ी मुझे
एक कौंधी हुई विश्वास की लकीर
कि अच्छे लोग अभी भी हैं दुनिया में

उसकी आँखों में ये कौंधा हुआ विश्वास
मेरे भीतर
जरा देर के लिए
एक अच्छा आदमी पैदा कर गया

एक अच्छा आदमी
अपने अन्दर देखना अच्छा लगा

आज अनजाने में कुछ अच्छा हो गया
तो अच्छा लगा
बहुत अच्छा

Saturday, January 9, 2010

हमारे बीच केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है!

*
थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर

फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का

फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया

और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे

बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!


**
स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने

सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.


***
घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है

उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।


****
न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो

न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है


*****
तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था

वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।


*******

समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ

मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा

Sunday, January 3, 2010

तुम्हें तो नीम भी नही मिलता होगा!


रात जब दो बजा देती है
और लाख कोशिशों के बावजूद
हर्फ़ उतार नहीं पाते उसकी आगोश कों
कागज़ पे
मैं कंही भी, जो भी मिल जाए,
उसमें समां जाने के लिए
निकल पड़ता हूँ सुनसान सड़क पर।

मैं लिपट जाता हूँ नीम से
और लिपटा रहता हूं
सोंचते हुए देर तक
नीम की लम्बी उम्र और
और बिना आगोश के जीने की उसकी विवशता के बारे में।

मैं फटकारता हूँ
ख़ुद को उसकी विवशता पर
और छोड़ देता हूँ अपनी शक्ल को
रोता हुआ हो जाने के लिए
यह जानते हुए
कि इस अँधेरी रात में किसी के बिना देखे
धीमे-धीमे रोना सम्भव है,
पर रोना धीरे-धीरे तेज हो जाता है

और मुझे पकडनी पड़ती है अपनी शक्ल

रोते-रोते यह भी सोंचता हूँ
कि मैं निश्चित रूप से अब प्यार नही करता उससे
और इसलिए हीं नही उतार पाता
उसकी आगोश को कागज़ पर
और फ़िर और जोर से रोने लगता हूँ प्यार के ख़त्म हो जाने पर,

पर यह शायद प्यार हीं होगा,
जो ख़त्म होने पे मुझे रुलाता है

इन सबके बावजूद
मैं हमेशा ये सोंचता हूँ
कि दो बजने और
कागज़ पे आगोश न बना पाने की
उसकी भी अपनी रुलाई होगी

जिसे रोने के लिए वह अपने मुंह में कपडे कोंच लेती होगी
क्यूंकि रात कों दो बजे उसके लिए घर के बाहर जाना संभव नहीं होता होगा
और उसे तो नीम भी नही मिलता होगा !