एक लम्बे दुःख ने
थका दिया है मुझे
या फिर उबा दिया है शायद
सुबह उठ कर जो आ बैठा था
बालकनी में इस कुर्सी पर
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है
लहू मांगती है अब
सुख का ताप, थोडा सा
और
जिस्म पसीना मांगता है
सुबह-सुबह आईने में
मेरा चेहरा भी मांगता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो
मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन
अपनी हीं हथेली से
दबाता रहता हूँ उन्हें
पर कई हिस्से छूट जाते हैं
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
Monday, August 31, 2009
Saturday, August 29, 2009
जिद
धूप में पड़े रहे वो
खुले आसमान के नीचे
सूखते-टटाते
आखिर तक
पहले रंग उतरे उनके
और फिर उधडती गई
धीरे-धीरे
सीवन उनके बीच की,
छाँव खींच कर वे
आशियाना जमा लिये होते, गर
एक ने मान ली होती दूसरे की जिद
मगर वे अड़े रहे
न छाँव खींची, न जिद अपनी
पड़े रहे वे धूप में चिद्दिया उड़ने तक.
जाने क्यूँ, जाने कैसे!
खुले आसमान के नीचे
सूखते-टटाते
आखिर तक
पहले रंग उतरे उनके
और फिर उधडती गई
धीरे-धीरे
सीवन उनके बीच की,
छाँव खींच कर वे
आशियाना जमा लिये होते, गर
एक ने मान ली होती दूसरे की जिद
मगर वे अड़े रहे
न छाँव खींची, न जिद अपनी
पड़े रहे वे धूप में चिद्दिया उड़ने तक.
जाने क्यूँ, जाने कैसे!
Thursday, August 27, 2009
आंखों की धार भी चुपचाप बहती है !
एक सन्नाटा है यहाँ अब
छितराया हुआ
फर्श पर, बरामदे में, आँगन में, ज़ीने पर
बाहर लॉन में
हर तरफ
सन्नाटे को देखने के लिए
नजर घुमानी नहीं पड़ रही
सब खाली हो चुके हैं आवाज से
न ताकत बची है बुदबुदाने की भी किसी में
और न वजह
हवा सांय-सांय भी नहीं कर रही
आंखों की धार भी चुपचाप बहती है
जाने कौन तोडेगा ये सन्नाटा अब
वो तो कह गया है
कि कभी नहीं आएगा
छितराया हुआ
फर्श पर, बरामदे में, आँगन में, ज़ीने पर
बाहर लॉन में
हर तरफ
सन्नाटे को देखने के लिए
नजर घुमानी नहीं पड़ रही
सब खाली हो चुके हैं आवाज से
न ताकत बची है बुदबुदाने की भी किसी में
और न वजह
हवा सांय-सांय भी नहीं कर रही
आंखों की धार भी चुपचाप बहती है
जाने कौन तोडेगा ये सन्नाटा अब
वो तो कह गया है
कि कभी नहीं आएगा
Tuesday, August 25, 2009
अब कोई अंत नही दुःख का !
यहाँ जब
मैं लिख रहा हूँ उस दुःख को
तुम उस दुःख के भीतर पड़ी हो बेहोश
और इससे पहले कि मैं शरीक होऊं
तुम्हारे दुःख में,
दुःख तुम्हें फ़िर लील लेता है
तुम्हें तो अंदाजा भी नही होगा
तुम्हारे दुःख का,
तुम तो बेहोश हो
और हमें सिर्फ़ अंदाजा है
यहाँ मैं लिख रहा हूँ दुःख
और तुम भोग रही हो अपनी छाती पर
आख़िर इसी छाती से पिलाया था न
तुमने दूध उसको
(मेरी बुआ के इकलौते पुत्र 'राहुल' की असमय मृत्यु पर, लगभग १६ वर्ष की अवस्था में )
मैं लिख रहा हूँ उस दुःख को
तुम उस दुःख के भीतर पड़ी हो बेहोश
कभी-कभार,
एक आध मिनट के लिए
तुम आती हो बाहरऔर इससे पहले कि मैं शरीक होऊं
तुम्हारे दुःख में,
दुःख तुम्हें फ़िर लील लेता है
तुम्हें तो अंदाजा भी नही होगा
तुम्हारे दुःख का,
तुम तो बेहोश हो
और हमें सिर्फ़ अंदाजा है
यहाँ मैं लिख रहा हूँ दुःख
और तुम भोग रही हो अपनी छाती पर
आख़िर इसी छाती से पिलाया था न
तुमने दूध उसको
(मेरी बुआ के इकलौते पुत्र 'राहुल' की असमय मृत्यु पर, लगभग १६ वर्ष की अवस्था में )
Monday, August 24, 2009
छोटे-छोटे फासले !
(१)
लम्बी दूरी की
कॉल दरें
घटाई जा रही हैं !
बातें, अब
दूरियां कम करने के लिए
नही की जाती
(२)
एक जगह होती है,
चोट को
अक्सर वहीं लगना होता है
दिल को
बार-बार
उसी जगह से टूटना होता है
(३)
कुछ चोटें
यूँ लग जाती हैं
कि फ़िर ,
नाखून
कभी नही जमते दुबारा
(४)
कुछ दुःख,
लाख छींटें मारो आंखों में
पानी के,
आँख छोड़ कर नहीं जाते
कुछ दुःख, लाख छुपाओ पकड़ लिए जाते हैं
(५)
कुछ उगी हुई फुंसियाँ,
कुछ घाव
फटें होंठ और सुखा मौसम
तुम्हें भूलने में काम आ रहे हैं !
लम्बी दूरी की
कॉल दरें
घटाई जा रही हैं !
बातें, अब
दूरियां कम करने के लिए
नही की जाती
(२)
एक जगह होती है,
चोट को
अक्सर वहीं लगना होता है
दिल को
बार-बार
उसी जगह से टूटना होता है
(३)
कुछ चोटें
यूँ लग जाती हैं
कि फ़िर ,
नाखून
कभी नही जमते दुबारा
(४)
कुछ दुःख,
लाख छींटें मारो आंखों में
पानी के,
आँख छोड़ कर नहीं जाते
कुछ दुःख, लाख छुपाओ पकड़ लिए जाते हैं
(५)
कुछ उगी हुई फुंसियाँ,
कुछ घाव
फटें होंठ और सुखा मौसम
तुम्हें भूलने में काम आ रहे हैं !
Friday, August 21, 2009
आओ थोड़ा और आगे चलते हैं !
छोटा सा एक स्पर्श
धीमे से
तुम्हारी उंगलियों में फँसाया था कभी,
वो भी ख्वाब में
और कैसे अंगीठी हो गयी थी तुम्हारी साँसे
पीछे दीवार से टिका कर तेरी पीठ
मैने देनी चाही थी तुम्हें
अपनी धौंकनी
याद है?
पर तुमसे सहेजा ना गया था
और अकबका कर चली गयी थी तुम
ख्वाब से,
जैसे कि डर गई होओं लौ में बदलने से .
आज फिर देखा है तुम्हे
वही ख्वाब है,
पर आज तुमने अपनी पंखुडी पे
मेरे लब आने दिये
और लौ पकड़े तुमने ख़ुद अपनी हाथों से
कुछ रिश्ते ख्वाब में ही आगे बढ़ते हैं शायद!
ये कविता मेरी आवाज में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करे
धीमे से
तुम्हारी उंगलियों में फँसाया था कभी,
वो भी ख्वाब में
और कैसे अंगीठी हो गयी थी तुम्हारी साँसे
पीछे दीवार से टिका कर तेरी पीठ
मैने देनी चाही थी तुम्हें
अपनी धौंकनी
याद है?
पर तुमसे सहेजा ना गया था
और अकबका कर चली गयी थी तुम
ख्वाब से,
जैसे कि डर गई होओं लौ में बदलने से .
आज फिर देखा है तुम्हे
वही ख्वाब है,
पर आज तुमने अपनी पंखुडी पे
मेरे लब आने दिये
और लौ पकड़े तुमने ख़ुद अपनी हाथों से
कुछ रिश्ते ख्वाब में ही आगे बढ़ते हैं शायद!
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Thursday, August 20, 2009
Wednesday, August 19, 2009
जहाँ मैं लिखता हूँ...
जहाँ मैं लिखता हूँ
घंटों तर करता रहता हूँ
जमीं पानी से
कि शब्द अंकुरित हों अच्छे से
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ छाँव भी और धूप भी
कि पक्तियां झुलसे न
और उसमे आये ताकत भी
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां से दूर जा कर पीता हूँ सिगरेट
कि धुआं न पी ले रुबाई
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ एक रुमाल
कि कागज़ गीले न हों
गर टपक जाए आँख धुंधली होकर
जहाँ मैं लिखता हूँ
लगा रखे हैं मैंने वहां पे बाड़
कि कोई अड़ियल शब्द पहुँच कर
गुस्ताखी न कर दे
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहाँ रहता हूँ कितना सचेत
कि कोई नज्म
रुखाई से पेश न आ जाए
मैं करता हूँ सारी कोशिशें
कि तुम तक पहुंचे सिर्फ और सिर्फ
एक मुलायम कविता
मैं लिखता हूँ इतने जतन से
और तुम पढ़ती भी नही
घंटों तर करता रहता हूँ
जमीं पानी से
कि शब्द अंकुरित हों अच्छे से
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ छाँव भी और धूप भी
कि पक्तियां झुलसे न
और उसमे आये ताकत भी
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां से दूर जा कर पीता हूँ सिगरेट
कि धुआं न पी ले रुबाई
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ एक रुमाल
कि कागज़ गीले न हों
गर टपक जाए आँख धुंधली होकर
जहाँ मैं लिखता हूँ
लगा रखे हैं मैंने वहां पे बाड़
कि कोई अड़ियल शब्द पहुँच कर
गुस्ताखी न कर दे
जहाँ मैं लिखता हूँ
वहाँ रहता हूँ कितना सचेत
कि कोई नज्म
रुखाई से पेश न आ जाए
मैं करता हूँ सारी कोशिशें
कि तुम तक पहुंचे सिर्फ और सिर्फ
एक मुलायम कविता
मैं लिखता हूँ इतने जतन से
और तुम पढ़ती भी नही
Monday, August 17, 2009
याद में
इस लड़खड़ाती रात में
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ
उसकी यादों का वजूद
मेरे हर गिरते पल को थाम लेता है
याद में ये राहें इतनी व्यस्त नही हैं
यहाँ प्यार से चलने के लिये
जगह भी है और वक़्त भी
इन पर जरा बेफिक्र हो कर चला जा सकता है
याद में उसकी लबे हैं पंखुडी जैसी
जहाँ गुलाब महकता है
एक लहर है नजरों में
जिस पर समंदर बहकता है
इस लड़खड़ाती रात में
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ
और उम्मीद है कि
एक पुख्ता सुबह तक पहुँच जाऊंगा
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ
उसकी यादों का वजूद
मेरे हर गिरते पल को थाम लेता है
याद में ये राहें इतनी व्यस्त नही हैं
यहाँ प्यार से चलने के लिये
जगह भी है और वक़्त भी
इन पर जरा बेफिक्र हो कर चला जा सकता है
याद में उसकी लबे हैं पंखुडी जैसी
जहाँ गुलाब महकता है
एक लहर है नजरों में
जिस पर समंदर बहकता है
इस लड़खड़ाती रात में
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ
और उम्मीद है कि
एक पुख्ता सुबह तक पहुँच जाऊंगा
Sunday, August 16, 2009
सिर्फ़ मन्नतें बदली हैं !
वही दर है
वही मैं
सिर्फ़ मन्नतें बदली हैं
कभी मांगता था
कि तू जिंदगी में आ जाए
और अब मांगता हूँ
कि तू बस और याद न आए
वही मैं
सिर्फ़ मन्नतें बदली हैं
कभी मांगता था
कि तू जिंदगी में आ जाए
और अब मांगता हूँ
कि तू बस और याद न आए
Friday, August 14, 2009
कागज़ की स्वतंत्रता!
ट्रैफिक सिग्नल पे
गाड़ियों के शीशे ठोक-ठोक कर
बेच रहा है वो
कागज़ के तिरंगे
और इस तरह
कमा रहा है
थोडी सी आजादी
अपनी भूख से
आज स्वतंत्रता दिवस की
पूर्व संध्या पर
एक कसी मुट्ठी वाली कविता
लड़की
सिक्का-सिक्का जमा कर रही हैThursday, August 13, 2009
सिर्फ उस क्षण के लिए !
सिर्फ उस क्षण के लिए,
जब वो देखती हो मेरी आँखों में
उसे वहां प्यार न दिखे
इतना सामर्थ्य दो मुझे बस,
बस इतना करो.
मैं चाहता हूँ
वो भी गुजरे उस स्थिति से,
जिससे मैं गुजरता हूँजब वो देखती हो मेरी आँखों में
उसे वहां प्यार न दिखे
इतना सामर्थ्य दो मुझे बस,
बस इतना करो.
मैं चाहता हूँ
वो भी गुजरे उस स्थिति से,
Monday, August 10, 2009
तुम यहाँ भी हो !
अभी इक ऊँची पहाड़ी पे हूँ
यहाँ दिखा है एक फूलझुक कर देख रहा हूँ उसमें
तुम्हारा रंग
और नासपुटों में जा रही है
तुम्हारी खुशबू
Saturday, August 8, 2009
कुछ होता था...
मैंने सिगरेट पीनी छोड़ दी थी
मेरे दुःख अब धुएँ में नही बदलते थे
बातों का सिलसिला मेरे हाथों टूट गया था
मेरे हाथ में तभी से मोच आ गई थी
शहर में रोने की कोई जगह नही थी
शहर में रोने पर कर्फ्यू था
मैं अपने दोस्त की माँ से मिलता था
अक्सर मुझे माँ याद आती थी
मेरी माँ में मुझे जो माँ के अलावा था,
वो दिखाई दे जाता था
उस तक पहुँचने के लिए एक सड़क काफ़ी नही थी
वो एक बदलती हुई मंजिल थी
कांपती रात के किनारे पे वक्त मुझे
देर तक बिठाये रखता था
और फ़िर सवेरे में धकेल देता था
मैंने सारे हाथ छोड़ दिए थे
उसका हाथ थामने के लिए
अब कोई चारा नही था, गर वो छलावा थी
मेरे दुःख अब धुएँ में नही बदलते थे
बातों का सिलसिला मेरे हाथों टूट गया था
मेरे हाथ में तभी से मोच आ गई थी
शहर में रोने की कोई जगह नही थी
शहर में रोने पर कर्फ्यू था
मैं अपने दोस्त की माँ से मिलता था
अक्सर मुझे माँ याद आती थी
मेरी माँ में मुझे जो माँ के अलावा था,
वो दिखाई दे जाता था
उस तक पहुँचने के लिए एक सड़क काफ़ी नही थी
वो एक बदलती हुई मंजिल थी
कांपती रात के किनारे पे वक्त मुझे
देर तक बिठाये रखता था
और फ़िर सवेरे में धकेल देता था
मैंने सारे हाथ छोड़ दिए थे
उसका हाथ थामने के लिए
अब कोई चारा नही था, गर वो छलावा थी
Friday, August 7, 2009
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही !
एक अरसे बाद
बिताया सारा दिन आज तुम्हारे साथ
सुबह, तुम्हारे ख्वाब में आँख खोली थी
फ़िर बरामदे में कुर्सी डाले मारता रहा तुमसे गप्प
पूरे इत्मीनान से,
इसी बीच खत्म की चाय की दो प्यालियाँ भी
फ़िर कमरे में आकर,
रोशनदान से आती हुई धुप की जिस बारीक गरमाहट में
भींगता पड़ा रहा देर तक बिस्तर पे,
वो भी तुम्हारी हीं थी
जब नहाने गया तो
वहां भी आ गई तुम
पीठ पे साबुन मलने के बहाने
परोसा खाना अपने हाथ से
खाया मेरे साथ हीं आज कितने दिन बाद
और मेरे सिंगल-बेड पे मेरे साथ लेट कर फ़िर
सुनाती रही मुझे नज्में
फिर जरा सा आँख लगते हीं जाने कहाँ चली गई
उठा तो देखा कि शाम थी और उदासी थी
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही!
बिताया सारा दिन आज तुम्हारे साथ
सुबह, तुम्हारे ख्वाब में आँख खोली थी
फ़िर बरामदे में कुर्सी डाले मारता रहा तुमसे गप्प
पूरे इत्मीनान से,
इसी बीच खत्म की चाय की दो प्यालियाँ भी
फ़िर कमरे में आकर,
रोशनदान से आती हुई धुप की जिस बारीक गरमाहट में
भींगता पड़ा रहा देर तक बिस्तर पे,
वो भी तुम्हारी हीं थी
जब नहाने गया तो
वहां भी आ गई तुम
पीठ पे साबुन मलने के बहाने
परोसा खाना अपने हाथ से
खाया मेरे साथ हीं आज कितने दिन बाद
और मेरे सिंगल-बेड पे मेरे साथ लेट कर फ़िर
सुनाती रही मुझे नज्में
फिर जरा सा आँख लगते हीं जाने कहाँ चली गई
उठा तो देखा कि शाम थी और उदासी थी
तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही!
Wednesday, August 5, 2009
तुम आ कर मना लो ना !
लाख शब्द जोड़े
धुन जगाया
सजायीं स्वरलिपियाँ
पर बोल बजे नहीं
धुन जगाया
सजायीं स्वरलिपियाँ
पर बोल बजे नहीं
चुप बैठे हैं सारे गीत
आवाज जैसे रूठ गई हो
तुम आ कर मना लो ना !
आवाज जैसे रूठ गई हो
तुम आ कर मना लो ना !
Monday, August 3, 2009
पैबंद
समय घिस-घिस कर फटता रहा
और हम उनपे पैबंद लगाते रहे
कुछ यूँ ही गुजरी जिंदगी हमारी
हालात तो हमने ढक दिये पैबंदो से
पर पैबंदो को हम नही ढक पाये.
और हम उनपे पैबंद लगाते रहे
कुछ यूँ ही गुजरी जिंदगी हमारी
हालात तो हमने ढक दिये पैबंदो से
पर पैबंदो को हम नही ढक पाये.
Sunday, August 2, 2009
तुम्हें तो मालूम था न !!
तुमने तो किया था प्यार
तुम्हें तो मालूम था
क्या होती है
विरह की वेदना
फ़िर कैसे छोड़ दिया
तुमने मुझे
अपने प्यार में अकेले
तुमने तो किया था प्यार
तुम्हें तो मालूम था न !!
तुम्हें तो मालूम था
क्या होती है
विरह की वेदना
फ़िर कैसे छोड़ दिया
तुमने मुझे
अपने प्यार में अकेले
तुमने तो किया था प्यार
तुम्हें तो मालूम था न !!
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