Tuesday, November 17, 2009

क्यूँ टूट गये???

वो रिश्ते जिनके बीज
ख्वाब में गिर कर हीं रह गये
मेरी माटी नही छू पाए
उन रिश्तों की पौध
ऊग आई है
आज मेरे सूने आंगन के एक कोने में

मैं हाथ नही लगाता
उनकी पाकीज़ा कोंपलों पे,
डरता हूँ, अपने हक के बारे में सोंच कर.

सिर्फ सुनने की कोशिश करता हूँ उन्हे
हाथ में आ जाए शायद कोई स्वर.

वे खुल कर बोलती नही


चुपके से दलील मांगती हैं,
सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???

31 comments:

Mithilesh dubey said...

बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति । बधाई

Himanshu Pandey said...

गजब लिख दिया -
"क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???"

भावना की थाती मिलती है यहाँ, बस आता हूँ इसलिये बार-बार ।

दिगम्बर नासवा said...

चुपके से दलील मांगती हैं,
सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये...

KUCH KHWAAB JINKO PREM KI UMAS MAHI MILI UG HI NAHI PAATE ..... PAR KUCH KHWAAB, KUCH RISHTE PALTE RAHTE HAIN YAADON KI JHURMUT MEIN .... KISI SAWAAL KE INTEZAAR MEIN ....

AISE KUCH SAWAALON KA JAWAAB DENE MEIN IK UMR BEET JAATI HAI ...

BAHOOTY HI LAJAWAAB PRASTUTI HAI OM JI ....

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

मै हाथ नहीं लगाता
उनकी पाकीजा कोंपलों पे
डरता हूँ अपने हक़ के बारे में सोचकर.

वाह, सुन्दर !! बहुत खूब !

rashmi ravija said...

बहुत ही ख़ूबसूरत कविता...इतने अनछुए अहसास..जैसे हाथ लगाओ तो बिखर जाएँ...सुन्दर अभिव्यक्ति

शारदा अरोरा said...

बेहद सुंदर , उन्हीं कोंपलों की तरह नाजुक जो सचमुच एक कवि के मन में ही जन्म ले सकती हैं|

अजय कुमार said...

बेहद सुन्दर ,भावुक और कोमल रचना

सागर said...

वो रिश्ते जिनके बीज
ख्वाब में गिर कर हीं रह गये
मेरी माटी नही छू पाए
उन रिश्तों की पौध
ऊग आई है
आज मेरे सूने आंगन के एक कोने में

* खुबसूरत कल्पना... *

मैं हाथ नही लगाता
उनकी पाकीज़ा कोंपलों पे,
डरता हूँ, अपने हक के बारे में सोंच कर.

*अच्छा डर* विशेष कर पाकीज़ा कोंपलों पर दाद...

हाथ में आ जाए शायद कोई स्वर.
वे खुल कर बोलती नही

* क्या उम्मीद है या की आशा ? क्या दोनों समानार्थी शब्द हैं ?

Anonymous said...

बेहद सुन्दर !!

डिम्पल मल्होत्रा said...

चुपके से दलील मांगती हैं,
सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये....


ये क्या चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये!!!
तुम्हे तो साथ मेरा दूर तक निभाना था....

shikha varshney said...

"क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???"
Bahut kuch keh dia aapne..dil ke bhaut kareeb lagi rachna.

सदा said...

मै हाथ नहीं लगाता
उनकी पाकीजा कोंपलों पे
डरता हूँ अपने हक़ के बारे में सोचकर

बहुत ही भावमय प्रस्‍तुति ।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

वो रिश्ते जिनके बीज
ख्वाब में गिर कर हीं रह गये
मेरी माटी नही छू पाए
उन रिश्तों की पौध
ऊग आई है
आज मेरे सूने आंगन के एक कोने में

waah! pehli panktiyon ne hi man moh liya.....

bahut hi khoobsoorat kavita........

रश्मि प्रभा... said...

un rishton kee jo paudh ugee hai aangan me, uski khushboo karwat na le

M VERMA said...

सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???
इतने नाज़ुक - रचना भी नाज़ुक
बहुत सुन्दर

आनन्द वर्धन ओझा said...

ओम भाई,
बहुत-बहुत पाकीज़ा कविता, कमनीय, कोमल भावों की सुदर अभिव्यक्ति... ये जो 'जरा-सी करवट बदलने' वाली बात है, उसने तो गज़ब ढा दिया है ! बार-बार पढ़ता हूँ और रोमांचित होता हूँ ! कभी-कभी और ज्यादातर भी, आप सूत्रों में बहुत कुछ कह जाते हैं बन्धु !
आभार, बधाई !! सप्रीत--आ,

Chandan Kumar Jha said...

बहुत सुन्दर !!!!!!

रंजू भाटिया said...

चुपके से दलील मांगती हैं,
सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???

बेहद पसंद आई आपकी यह रचना ..कोमल से रिश्ते अब तो दलील मांगने में भी डरते हैं ..खुल कर बोलने की बात कौन करे ..एक सच छिपा है इन में आज के वक़्त का ...

नीरज गोस्वामी said...

सीधे सरल शब्दों में कहूँ तो अद्भुत रचना...शब्द कौशल में आपका जवाब नहीं ओम जी... वाह
नीरज

विनोद कुमार पांडेय said...

खुल कर नही बोलती मगर उनकी भाषा सब कुछ कह जाती है..एक बेहतरीन अभिव्यक्ति ओम जी बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ..धन्यवाद

वन्दना अवस्थी दुबे said...

ओम जी, इतनी नाज़ुक कविता है, कि इसमें छूने से टूटने का अहसास कर पा रहे हैं हम. और अन्तिम पंक्तियां...क्या कहें-
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???

अपूर्व said...

सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???

इन ख्वाबींदे रिश्तों की नजाक़त को इससे ज्यादा बेहतर शब्द क्या नसीब होंगे अब...

मगर पता नही क्यों...अधूरे ख्वाब और अधूरे रिश्ते ही याद रह जाते हैं हमेशा..बस...

Unknown said...

waah !
waah !
waah !

Razi Shahab said...

achcha laga padhkar

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वो रिश्ते जिनके बीज
ख्वाब में गिर कर हीं रह गये
मेरी माटी नही छू पाए
उन रिश्तों की पौध
ऊग आई है
आज मेरे सूने आंगन के एक कोने में
bahut bhavuk se khayaal....sundar abhivyakti

vandana gupta said...

kya kahun om ji nishabd kar diya.

Science Bloggers Association said...

मन के भावों की कोमल अभिव्यक्ति, जो मन को छू कर निहाल कर गयी। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बड़ी मासूमियत से आपने रिश्तों की उम्र बता दी..

Yogesh Verma Swapn said...

wah ,"kyun toot gaye...........karwat badalne men hi. behatareen abhivyakti.

Dr. Shailja Saksena said...

तितली के पंखों पर सवार
माटी की गँध,
रिश्तों की कोंपल के
खुले-अधखुले बँध,
भाव की जुन्हाई में
मन पोर-पोर चमकता है।
आपकी कविता में
गहरी संवेदना का
सूरज दमकता है।

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

chupke se daleel maangti hai...
wah wah kya bhaav hai sir..
ati uttam...