Saturday, July 18, 2009

नींद कों अभी और जागना था !!

उसने सांस छुडा लिए अपने
अब मैं बिना धड़कन हूँ

उसकी यादें रिसती रहती हैं
मन पे काई जम आई है

तुम एक सुकून की रात हो
तुझमें जाग कर यूँ लगता है

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था

अरसे तक रिश्ते खुले रह गए
फिर वे कहीं चले गए बिना बताये

तुम अपनी बाहों में फैला लो मुझे
तंग गलियों में मेरा ठिकाना है

22 comments:

adwet said...

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं
बहुत अच्छा!!!

अनिल कान्त said...

आपकी कविता बड़ी जानदार होती है

निर्मला कपिला said...

उसने सांम्स छुडा लिये अपने और अब मैं बिन धडकन हूँ बहुत ही गहरे भाव लिये भावनात्मक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें आभार्

सदा said...

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं ।

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बहुत सुंदर.

सागर said...

मुमकिन है चंद रोज़ परेशान
रही हो तुम. समय पर सूरज उगा ना हो
ईमली का कोई क़तरा पका ना हो
कंबल में भी सर्द रातें कटी ना हो

तुम परबत से गिर पड़ी
मैं इंजन से कट गया...
....

इस बार तो अपने कमाल ही कर दिया.... बेजोड़... ओम भाई...

दिल कर रहा है सन्यास ले लूँ....

ओम आर्य said...

मुमकिन है चंद रोज़ परेशान
रही हो तुम. समय पर सूरज उगा ना हो
ईमली का कोई क़तरा पका ना हो
कंबल में भी सर्द रातें कटी ना हो

तुम परबत से गिर पड़ी
मैं इंजन से कट गया...

ye to gajab ka kaha sagar saab,Maja aa gaya...

ज्योति सिंह said...

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था.
sundar rachana .

Anonymous said...

Behtareen

M VERMA said...

तंग गलियो की इतनी खूबसूरत ख्वाहिश ---
बहुत खूब ओम भाई बहुत सुन्दर

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कितनी पीडा समेटे है आपका रचना कर्म.....? पीडा से उपजी कविता जीवन्त हो उठती है...

सागर said...

Shukriya bandhu... bas aapki nazm padhkar bilbilaye Nida saab yaad aate hain toh unki hi line mann hi mann dohra di.... shukriya...

Renu goel said...

उसने साँस छुड़ा लिए अपने
अब मे बिना धड़कन हूँ बहुत गहरे प्यार की अभिव्यक्ति ...
सागर जी की पंक्तियाँ पसंद आईं
मुमकिन है चाँद रोज़ परेशान रही हो तुम
समय पर सूरज उगा ना हो ...बहुत खूब

mehek said...

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था
waah ye andaz-e-kalam bhi bada judasa raha,behad hubsurat.

Razi Shahab said...

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था.

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे


bahut achcha likha aapne

नीरज गोस्वामी said...

उसकी यादें रिसती रहती हैं
मन पे कई जम आयी है

जबरदस्त रचना...जितनी तारीफ की जाये कम है...वाह.

नीरज

vandana gupta said...

bahut hi alag ahsaas liye hai.

संध्या आर्य said...

पर नींद कों अभी और जागना था
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दर्द से भरी कविता .......जिसे पढकर लिखने को कोई शब्द नही मिल रहा,क्या करे विचारे शब्द भी घायल हो जाते है दर्द से ......ढेरो शुभकामनाये

डिम्पल मल्होत्रा said...

aarse tak rishte khule rah gaye the...hw touching...fir wo chale gye kahi bina btaye....jo riste bina btaye chale jate hai na...unhe raste me khabar hoti hai ke yeh rasta koee or hai...wo apni manjil to kahi peechhe chhodh aaye...

रंजू भाटिया said...

पर नींद कों अभी और जागना था.................बहुत ही बेहतरीन

Smart Indian said...

बहुत सुंदर!

Urmi said...

इस जानदार और शानदार कविता के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!