(1)
पहले
तो तुमने छेड़ दी तारऔर अब
जब संगीत बजने लगा है तो
कान बंद कर लिए तुमने !
(2)
जो हाथ
पास आकर
कंधे पे आ जाते थेवे अब यूँ हीं जेब में पड़े रहते हैं.
(३)
शामें
अब कुछ यूँ गुजर जाती हैकि बैठना नही हो पाता
अपने पास
ख़ुद को महसूसते हुए
(५)
दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है
24 comments:
sundar vicharon ki sundar kavita..
kisi ke dene ke baad bhi ek dukh aa jata hai..wo isliye ki kisi apne ne diya..
behad umda rachana..badhayi..ho om ji..
बहुत ही अच्छा लिखा है बधाई ।
विचारों को सुंदर तरीके से माला में पिरोया है।
सारी क्षणिकाएं ग़ज़ब की हैं..आप की लेखनी का ये चमत्कार देख चकित हूँ...वाह...मेरी बधाई स्वीकारें...
नीरज
पहले तो तुमने छेड़ दी तार और अब जब संगीत बजने लगा है तो कान बंद कर लिए तुमने !!
क्या बात है.. जोरदार
१, २, ३, और ५.. ४थी कहां है.. वो भी पढेगें..
दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है
सब लाजवाब......... कुछ ही शब्दों में कही गहरी बात.......... दिल में सीधे उतार गयीं सब की सब....... मन से अपने आप निकलता है ..... वाह कितना सच लिखा है
क्या-क्या कह जाते हैं आप!!! इतनी सहजता से?
omji dukh wali baat toh gazab ki hai
bhaai kamaal ho
aur kamaal karte ho.................
abhinandan !
gajab ke teer mare hain aapne in shanikaon ke madhyam se.... Khaskar jeb me haath pade rahte hain...wali to behad sateek aur marak!!!
शामें
अब कुछ यूँ गुजर जाती है
कि बैठना नही हो पाता
अपने पास
ख़ुद को महसूसते हुए
-वाह!! आज पूरे रंग मे दिखे भाई.आनन्द आ गया.
चिमटे से बस इतना पकडने का भाव निराला है । आभार
सहजता को सलाम!!!
पहले तो तुमने छेड़ दी तार
और अब जब संगीत बजने लगा है
तो कान बंद कर लिए तुमने !
वाह
शामें
अब कुछ यूँ गुजर जाती है
कि बैठना नही हो पाता
अपने पास
ख़ुद को महसूसते हुए
हमेशा हे जिन्दगी के करीब होती है आप्की अभिव्यक्ति गज़ब की क्षणिकायें बधाई
शामें
अब कुछ यूँ गुजर जाती है
कि बैठना नही हो पाता
अपने पास
ख़ुद को महसूसते हुए
हमेशा हे जिन्दगी के करीब होती है आप्की अभिव्यक्ति गज़ब की क्षणिकायें बधाई
सुन्दर रचना..
अच्छा लिखा है आपने..
अच्छी रचना |दुःख की अभिव्यक्ति भी उत्तम
अच्छी रचना बधाई...
दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है.
.... बेहतरीन ..
सुन्दर!
जो हाथ कभी दूर से हीं बुलाने लग जाते थे,
पास आकर कंधे पे आ जाते थे वे अब यूँ हीं जेब में पड़े रहते हैं.
Bahut khub.
दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है
बहुत ही मर्मस्पर्शी है यह रचना.......
शामें अब कुछ यूँ गुजर जाती है कि बैठना नही हो पाता
अपने पास ख़ुद को महसूसते हुए
बहुत ही सुन्दर भाव .........जब इंसान खुद से नाराज होता है तो अपने आप से रु-ब-रु नही हो पाता है शायद ......बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति .........
आभार
रंजन जी, आप जिद कर रहें हैं तो...
४)
मैं बेकार था, तुम छोड़ गयी
अब , जब तुम छोड़ गयी हो
तो फिर मेरे पास फिर काम है
तुम्हें पाने का!
dukh kitni bhi tarah ka ho sahna khud ko hi padta hai.....
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