दरवाजे रंग लिये खडी रहीं
तुम्हारे पाँव देहली तक फिर लौट कर नही आये
मेरे आधे रंग अभी भी यूँ ही पडे हैं
शुक्र है कुछ तुम साथ ले गयी थी
चौखटो ने रंग धोये नही
शाम तक इंतिज़ार किया तेरी आहटो का
हालांकि वे जानती थी कि तुम्हारा आ पाना होगा असंभव सा
तुम्हारी पैरों में कोई और ही दहलीज जो बंध गयी है
पर फिर भी इंतिजार किया
शायद अपने सुकून के लिये
कभी यूँ भी लगता है
कि तुम गयी ही कब थी और ये इंतिज़ार क्यों है
पर फिर भी ......
अच्छा लगता है ये सोंच कर कि
मेरे कुछ रंग तुम्हारे पास रहेंगे हमेशा
उन्हें रखना सहेज कर
और देख लेना उन्हें
कभी अगर लगे कि जिंदगी बेरंग होने लगी है
वे रहेंगी तुम्हारे पास तो मेरी होली आती रहेगी
Sunday, May 31, 2009
Wednesday, May 27, 2009
तुझे देखा है कई बार ख्वाब में
तुझे देखा है कई बार ख्वाब में
सोचता हूँ कोई शेर लिखू तेरे किताब में
बडी देर तक आंखे रही बेचैन
जो छिपा लिया तुने चेहरा हिजाब में
जाने कब तक लहरे रक्श करती रही
जाने किसने मिला दी समंदर शराब में
तुमने तो खोल दी अनजाने ही में आंखो की धार को
तुम्हे क्या पता कौन बह गया उस शैलाब में
हम पीते है, हमे मालूम है
कितना तो नशा है उनकी नजर में और कितना शराब में
करे जो कोई सवाल आडे- तिरछे तुमसे तो
कह देना उनसे कि तुम रहते हो खुदा के रुआब में
सोचता हूँ कोई शेर लिखू तेरे किताब में
बडी देर तक आंखे रही बेचैन
जो छिपा लिया तुने चेहरा हिजाब में
जाने कब तक लहरे रक्श करती रही
जाने किसने मिला दी समंदर शराब में
तुमने तो खोल दी अनजाने ही में आंखो की धार को
तुम्हे क्या पता कौन बह गया उस शैलाब में
हम पीते है, हमे मालूम है
कितना तो नशा है उनकी नजर में और कितना शराब में
करे जो कोई सवाल आडे- तिरछे तुमसे तो
कह देना उनसे कि तुम रहते हो खुदा के रुआब में
Tuesday, May 26, 2009
जितना भी तुमने छुआ है मुझे !
मैं रोज जी लिया करूंगा
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का
हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे
तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश
कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू
और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी
टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर
तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का
हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे
तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश
कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू
और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी
टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर
तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.
Sunday, May 24, 2009
कैक्टस से बढ़ कर है प्यार!
गर्मियों के मौसम आ गए,
आँगन में
देर तक सीधी तेज धूप गिरती है
नमी के कतरे
एक-एक कर उडे जा रहे हैं
और जल्द हीं खत्म हो जाने को हैं
आँगन की मिटटी
और रेत के बीच के सारे फर्क
लू के थपेडे बहा ले गए हैं
वो भी अपना सारा बादल समेट कर
आसमान के दूसरे कोने में चली गई है
पर आँगन में, उगाया था
जो पौधा प्यार का
अभी भी सूखता नही
जाने कहाँ से लेता है नमी
और कैसे बचाता है लू के थपेडों से ख़ुद को
सूखे रेतीले मौसमो के थपेडो में
टिके रहने के नजरिये से
कैक्टस से बढ़ कर है प्यार!
आँगन में
देर तक सीधी तेज धूप गिरती है
नमी के कतरे
एक-एक कर उडे जा रहे हैं
और जल्द हीं खत्म हो जाने को हैं
आँगन की मिटटी
और रेत के बीच के सारे फर्क
लू के थपेडे बहा ले गए हैं
वो भी अपना सारा बादल समेट कर
आसमान के दूसरे कोने में चली गई है
पर आँगन में, उगाया था
जो पौधा प्यार का
अभी भी सूखता नही
जाने कहाँ से लेता है नमी
और कैसे बचाता है लू के थपेडों से ख़ुद को
सूखे रेतीले मौसमो के थपेडो में
टिके रहने के नजरिये से
कैक्टस से बढ़ कर है प्यार!
Friday, May 22, 2009
जो बह गये पानी
मिल बैठ कर
बात कर लेते हैं
जब मन, भरा बादल हो जाता है
साथ में बरसना भी हो जाता है कभीकभार
जब पुरवइया के झोंके विरहा गाते हैं
किसी पुराने समय के हिसाब में
खुशियों को चुनौती दे दी गई
मार दी गई चुन चुन कर
उनकी किलकारियाँ
खौफ की डुगडुगी
डंके की चोट पर बजायी गयी
लहू बहाये गये
घर के दीवारो से लग कर सिसकियाँ बोलती रहीं
पर कहीं कोई कान नही हुआ मौजूद
धरती के सीने पे दर्दो के चकत्ते बडे होते गये
चक्कर खा कर
गिरते रहे हौसले और विश्वास के वजूद
और एक समय तक बंधे हुए सारे बांध टूट गये
जो बह गये पानी
उन्हीं की याद में वे
मिल बैठ कर बात कर लेते हैं
और बरस लेते हैं
जब मन भरा बादल हो जाता है।
बात कर लेते हैं
जब मन, भरा बादल हो जाता है
साथ में बरसना भी हो जाता है कभीकभार
जब पुरवइया के झोंके विरहा गाते हैं
किसी पुराने समय के हिसाब में
खुशियों को चुनौती दे दी गई
मार दी गई चुन चुन कर
उनकी किलकारियाँ
खौफ की डुगडुगी
डंके की चोट पर बजायी गयी
लहू बहाये गये
घर के दीवारो से लग कर सिसकियाँ बोलती रहीं
पर कहीं कोई कान नही हुआ मौजूद
धरती के सीने पे दर्दो के चकत्ते बडे होते गये
चक्कर खा कर
गिरते रहे हौसले और विश्वास के वजूद
और एक समय तक बंधे हुए सारे बांध टूट गये
जो बह गये पानी
उन्हीं की याद में वे
मिल बैठ कर बात कर लेते हैं
और बरस लेते हैं
जब मन भरा बादल हो जाता है।
डरी हुई कविता
एक लम्बा अरसा हुआ
एक हल्की सी उम्मीद और
एकाध मुस्कराहट के साथ
वक़्त फांकते हुए
धूल चटाने के हौसले खुद मिट्टी होने को हैं
आवाज उठाने वाले सिर महज
सिर हिलाने वाले न बन जाये
ये डर है
हाथों में कसी मुठ्ठियों की जगह
प्रार्थना लेने लगी है
बाजुओ में वो पहले से पंजे नही रहे
दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी
दुनिया के दबाब में
और दुनिया जस की तस बनी रहती है
चलती रहती है
ताकत, अन्याय और शोषण के पहियों पर
एक हल्की सी उम्मीद और
एकाध मुस्कराहट के साथ
वक़्त फांकते हुए
धूल चटाने के हौसले खुद मिट्टी होने को हैं
आवाज उठाने वाले सिर महज
सिर हिलाने वाले न बन जाये
ये डर है
हाथों में कसी मुठ्ठियों की जगह
प्रार्थना लेने लगी है
बाजुओ में वो पहले से पंजे नही रहे
दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी
दुनिया के दबाब में
और दुनिया जस की तस बनी रहती है
चलती रहती है
ताकत, अन्याय और शोषण के पहियों पर
Thursday, May 21, 2009
कश में नहीं आयी
लबो पे हरकत करती रही
पर कश में नहीं आयीWednesday, May 20, 2009
ताजे मौन देना
ये बातें
जिनका अस्तित्व मौन में हैये बातें किसी दायरे में नहीं
उनके सपने हैं निराकारये बातें फ़िज़ा में भटकती रहती है
कभी वक़्त मिले तो छू
कर इन्हे थोड़े ताज़े मौन दे देना।Monday, May 18, 2009
स्वर लहरियां दौड़ रही हैं!
पोंछ-पोंछ कर
जमा रहा है एक-एक स्वर
कोई, इन
बेतरतीब पड़े
धूल से पटे दराजों में
रैक और किचेन की पट्टियों पे
सन्नाटे ने अकेला महसूस करते हुए
शायद तहखाने में
पकड़ लिया है एक कोना
स्वर लहरियां दौड़ रही हैं पूरे घर में
आँगन में अरसे से सूखा पड़ा संगीत
भींग रहा है
यूँ लग रहा है जैसे
मौन का खाली घर बस रहा है
जमा रहा है एक-एक स्वर
कोई, इन
बेतरतीब पड़े
धूल से पटे दराजों में
रैक और किचेन की पट्टियों पे
सन्नाटे ने अकेला महसूस करते हुए
शायद तहखाने में
पकड़ लिया है एक कोना
स्वर लहरियां दौड़ रही हैं पूरे घर में
आँगन में अरसे से सूखा पड़ा संगीत
भींग रहा है
यूँ लग रहा है जैसे
मौन का खाली घर बस रहा है
Friday, May 15, 2009
गुनगुनी धूप वाले मौसम
कुछ गुनगुनी धूप वाले मौसम होते हैं
जो पसर जाते हैं जिंदगी की अलगनी पर
कुछ इस तरह जैसे कि वे सारा पतझर ढांप लेंगें।
तमाम उगे हुए दर्द और सुखी हुई तन्हाईयाँ गिरा कर
वो भर देते हैं नंगी शाखों को कोंपलों से।
कोयल कूकती है, पपिहे गाते है
और योवन दुबारा पनपने लगता है।
गुनगुनी धूप वाले मौसमों को भी जाना होता है
वे चले जाते हैं
पर जब कभी चाँद मद्धम हो, रातें
सर्द और जिंदगी को कहीं दुबकने का जी हो
तो वो गुनगुनी धूप वाले मौसम उतर आते हैं अलगनी से
और ढांप लेते हैं अपनी धूप से
ऐसा ही एक मौसम मेरी डायरी में रखा है
वो मौसम तुम्हारा है
और उसमे तुम्हारी गुनगुनी धूप है।
जो पसर जाते हैं जिंदगी की अलगनी पर
कुछ इस तरह जैसे कि वे सारा पतझर ढांप लेंगें।
तमाम उगे हुए दर्द और सुखी हुई तन्हाईयाँ गिरा कर
वो भर देते हैं नंगी शाखों को कोंपलों से।
कोयल कूकती है, पपिहे गाते है
और योवन दुबारा पनपने लगता है।
गुनगुनी धूप वाले मौसमों को भी जाना होता है
वे चले जाते हैं
पर जब कभी चाँद मद्धम हो, रातें
सर्द और जिंदगी को कहीं दुबकने का जी हो
तो वो गुनगुनी धूप वाले मौसम उतर आते हैं अलगनी से
और ढांप लेते हैं अपनी धूप से
ऐसा ही एक मौसम मेरी डायरी में रखा है
वो मौसम तुम्हारा है
और उसमे तुम्हारी गुनगुनी धूप है।
Thursday, May 14, 2009
प्राणवायु में निरंतर उठापटक है
प्राणवायु में निरंतर उठापटक है
किसी दूसरे सफ़र पे
निकल जाना चाहती है आत्मा
मगर द्वंद में जकड़ी देह रोक लेती है
एक तरफ
जीवेशना और पेट की आड़ ले कर
पाप अपनी ईंटें जोड़ता है अनवरत
और दूसरी तरफ
एक भीड़ भरे चौराहे पे
चेतना अपने देह्गुहों में
मुक्ति के सपने समेटे खड़ी है
एक सवाल है जो अक्सर
चकरघन्नि सा घुमाता हुआ आता है
और हर बार पहले से तगडी चोट करता है
ख़ुशी की चौडाई
दुःख के गोलाई के न्यूनतम अंश से भी
कम पड़ती है अक्सर
दर्द इतना है
कि मन बार-बार अपनी साँसे बंद करता है
प्राणवायु में निरंतर उठापटक है
किसी दूसरे सफ़र पे
निकल जाना चाहती है आत्मा
मगर द्वंद में जकड़ी देह रोक लेती है
एक तरफ
जीवेशना और पेट की आड़ ले कर
पाप अपनी ईंटें जोड़ता है अनवरत
और दूसरी तरफ
एक भीड़ भरे चौराहे पे
चेतना अपने देह्गुहों में
मुक्ति के सपने समेटे खड़ी है
एक सवाल है जो अक्सर
चकरघन्नि सा घुमाता हुआ आता है
और हर बार पहले से तगडी चोट करता है
ख़ुशी की चौडाई
दुःख के गोलाई के न्यूनतम अंश से भी
कम पड़ती है अक्सर
दर्द इतना है
कि मन बार-बार अपनी साँसे बंद करता है
प्राणवायु में निरंतर उठापटक है
Wednesday, May 13, 2009
फिर मिल जाता है आसमान
फिर मिल जाता है आसमान
जब परिंदो में उडान लौट आती है
कल रात कुछ ऐसा ही हुआ
थका सा, एक शाख पे
थका सा, एक शाख पे
वो बैठा था
जब छू गयी थी कोइ संजीवनी हवा
परो पे ताजे कुछ जोश उभर आए थे
और वो उड चला था
और देखा कि बेजान परो पे
फिर से वही उडान लौट आयी थी
उसके सामने
उसके सामने
अब फिर से एक पूरा आसमान है
उस संजीवनी हवा में तेरा स्वर था प्रिये
Tuesday, May 12, 2009
दरारें
दरारें बनाती हैं ख्वाब, नींद में
एक लम्स छू गया था कल ख्वाब में
सुहाने एक मौसम की तरह
और उसे ढूँढता फ़िर रहा हूँ मै नींद नींद आज
कल कोई और छू जायेगा
और कल किसी और तलाश में हो जाऊँगा
ख्वाब देखता रहा हूँ
और खोजता भी रहा हूँ
इस उम्मीद में
कि शायद रूबरू हो कभी
पर कोई कितना भागे
और किसके पीछे
वक्त के साथ
ख्वाब भी तो बदलते रहते हैं
एक के बाद एक दूसरा ख्वाब और
एक के बाद एक दूसरी तलाश
और नतीजतन
अब सैकड़ों दरारें हैं नींद में
एक लम्स छू गया था कल ख्वाब में
सुहाने एक मौसम की तरह
और उसे ढूँढता फ़िर रहा हूँ मै नींद नींद आज
कल कोई और छू जायेगा
और कल किसी और तलाश में हो जाऊँगा
ख्वाब देखता रहा हूँ
और खोजता भी रहा हूँ
इस उम्मीद में
कि शायद रूबरू हो कभी
पर कोई कितना भागे
और किसके पीछे
वक्त के साथ
ख्वाब भी तो बदलते रहते हैं
एक के बाद एक दूसरा ख्वाब और
एक के बाद एक दूसरी तलाश
और नतीजतन
अब सैकड़ों दरारें हैं नींद में
Monday, May 11, 2009
एक रिश्ता जो ठहर गया
वो पानी नही ठहरा.......
हजार दफा पोंछी आँख
पर
बहती रही
बारिश की नजर मुसलसल
गुबार के काले बादल
बरस कर खाली हो गए
पर सुबकिया थमी नहीं
ना सुबकिया ठहरी और ना वो पानी ठहरा
एक रिश्ता था जो बस ठहर गया था
हजार दफा पोंछी आँख
पर
बहती रही
बारिश की नजर मुसलसल
गुबार के काले बादल
बरस कर खाली हो गए
पर सुबकिया थमी नहीं
ना सुबकिया ठहरी और ना वो पानी ठहरा
एक रिश्ता था जो बस ठहर गया था
Sunday, May 10, 2009
शहर, पुराने बाशिंदे, माएं और पिता
(मदर्स डे पर ....)
शहर
अपने
पुराने बाशिंदों को
पुराने पोलीबैगों में भरकर
कुडेदानों में
फेंक आया है
वे मिल जाते हैं
कभी रेल की
उन पुरानी पटरियों पे बैठे
जहाँ से रेल नही गुजरती
और कभी
पुराने उजडे बागों में
जहाँ अब उनके सिवा
कोई नही जाता
उनकी जिंदगी से अब
कोई नही गुजरना चाहता
वे सब पुराने बाशिंदे
अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
वे सब
जिन्दगी को रोज कोसते हुए गुजारते हैं
उनमें माएं हैं और पिता हैं !
शहर
अपने
पुराने बाशिंदों को
पुराने पोलीबैगों में भरकर
कुडेदानों में
फेंक आया है
वे मिल जाते हैं
कभी रेल की
उन पुरानी पटरियों पे बैठे
जहाँ से रेल नही गुजरती
और कभी
पुराने उजडे बागों में
जहाँ अब उनके सिवा
कोई नही जाता
उनकी जिंदगी से अब
कोई नही गुजरना चाहता
वे सब पुराने बाशिंदे
अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
वे सब
जिन्दगी को रोज कोसते हुए गुजारते हैं
उनमें माएं हैं और पिता हैं !
Friday, May 8, 2009
नींद से बिछड़ा हूँ मै
एक नींद से बिछड़ा हूँ मै
एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
चील सी उड़ती हवाएं
धूप जैसे चोट खाए
कुछ संग थे जो अरमान वो अरमान बिखरते गए
साथ में बिखरा हूँ मैं
एक नींद से बिछड़ा हूँ
मै एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
हालात गिरते गये
रंगरेज उजड़ते गये
धूप में धुंधले हुए सब श्याम पे ठहरा हूँ मैं ,
रंग का उतरा हूँ मैं
एक नींद से बिछड़ा हूँ मैं
एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
चील सी उड़ती हवाएं
धूप जैसे चोट खाए
कुछ संग थे जो अरमान वो अरमान बिखरते गए
साथ में बिखरा हूँ मैं
एक नींद से बिछड़ा हूँ
मै एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
हालात गिरते गये
रंगरेज उजड़ते गये
धूप में धुंधले हुए सब श्याम पे ठहरा हूँ मैं ,
रंग का उतरा हूँ मैं
एक नींद से बिछड़ा हूँ मैं
एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं
Thursday, May 7, 2009
मैं हमेशा उसकी वन्दगी में रहूँ।
मुद्दत से आरजू है कि तेरी चाँदनी में रहूँ।
तुम छेड़ो कोई तार कि मैं जिसकी रागिनी में रहूँ
हर तरफ तेरी लिखावट हो और,
मैं तो बस सदा उसकी स्याही में रहूँ
खुदा के रहेम-ओ-करम तुम पर मुसलसल बरसते रहें,
और मैं हमेशा उसकी वन्दगी में रहूँ।
कभी फूल तू, कभी पत्ता और कभी छतनार बरगद हो,
हर हाल में मैं तेरी नमी में रहूँ।
हो तेरी खूबसूरती के चर्चे तमाम शहर में,
मैं तेरे हुस्न की सादगी में रहूँ
तेरे दिए की लौ कभी बुझने ना पाए,
और मैं हमेशा उसकी रोशनी में रहूँ।
तुम छेड़ो कोई तार कि मैं जिसकी रागिनी में रहूँ
हर तरफ तेरी लिखावट हो और,
मैं तो बस सदा उसकी स्याही में रहूँ
खुदा के रहेम-ओ-करम तुम पर मुसलसल बरसते रहें,
और मैं हमेशा उसकी वन्दगी में रहूँ।
कभी फूल तू, कभी पत्ता और कभी छतनार बरगद हो,
हर हाल में मैं तेरी नमी में रहूँ।
हो तेरी खूबसूरती के चर्चे तमाम शहर में,
मैं तेरे हुस्न की सादगी में रहूँ
तेरे दिए की लौ कभी बुझने ना पाए,
और मैं हमेशा उसकी रोशनी में रहूँ।
Wednesday, May 6, 2009
लुप्त होते ख्वाब
सुबह पर धूप ने अभी अभी चादर लपेटी है
दूब पर बैठे ओस के परिंदे अपने पर फैलाने लगे हैं।
ख्वाब भी नींद की आरामगाह से निकल कर
अपने-अपने तलाश में
निकल करसड़कों पे दौड़ने लगे हैं।
अपनी अपनी गति से,
अपनी अपनी उम्मीद और धुन में,
अपने अपने पेट्रोल के सहारे।
एक ही सड़क पे
एक साथ दौड़ते ख्वाबों क़ी भी
बहुत जुदा हैमंज़िल ,
बहुत जुदा है
हाथ, कंधे और आँख
इतने तीव्र और बेचैन हैं वे कि
अपने लहू की कराहें भी सुनाई नही पड़ती।
या अनसुनी कर देते हैं कि दौड़ में आगे निकल सकें।
कोई बताए उन्हे याद दिलाए कि वे ख्वाब हैं
फुर्सत और नींद ज़रूरी है उनके लिए।
वरना वे शीघ्र हीं स्खलित हो जाएँगे
और उनकी अगली पीढ़ी कगार पे होंगी.
दूब पर बैठे ओस के परिंदे अपने पर फैलाने लगे हैं।
ख्वाब भी नींद की आरामगाह से निकल कर
अपने-अपने तलाश में
निकल करसड़कों पे दौड़ने लगे हैं।
अपनी अपनी गति से,
अपनी अपनी उम्मीद और धुन में,
अपने अपने पेट्रोल के सहारे।
एक ही सड़क पे
एक साथ दौड़ते ख्वाबों क़ी भी
बहुत जुदा हैमंज़िल ,
बहुत जुदा है
हाथ, कंधे और आँख
इतने तीव्र और बेचैन हैं वे कि
अपने लहू की कराहें भी सुनाई नही पड़ती।
या अनसुनी कर देते हैं कि दौड़ में आगे निकल सकें।
कोई बताए उन्हे याद दिलाए कि वे ख्वाब हैं
फुर्सत और नींद ज़रूरी है उनके लिए।
वरना वे शीघ्र हीं स्खलित हो जाएँगे
और उनकी अगली पीढ़ी कगार पे होंगी.
Tuesday, May 5, 2009
पतझड और सीलन
पतझर में जो पत्ते
बिछड़ जाते हैं अपने आशियाने से,
वे पत्ते जाने कहाँ चले जाते हैं
उन सूखे पत्तों की रूहें
उसी आशियाने की दीवारों पे
सीलन की तरह बहती रहती है
किसी भी मौसम में ये दीवारें सूखती नही
ये नम बनी रहती है
मौसम रिश्तों की रूहों को सूखा नही सकते
बिछड़ जाते हैं अपने आशियाने से,
वे पत्ते जाने कहाँ चले जाते हैं
उन सूखे पत्तों की रूहें
उसी आशियाने की दीवारों पे
सीलन की तरह बहती रहती है
किसी भी मौसम में ये दीवारें सूखती नही
ये नम बनी रहती है
मौसम रिश्तों की रूहों को सूखा नही सकते
Monday, May 4, 2009
दिल को कोई काम नही है
कहीं कोई मुककमल मोकां नही है
जहाँ में कहीं भी चैन-ओ-आराम नही है.
तुमने मसला उठाया है तो कह देता हूँ
हम आशिकों से ज़्यादा कोई गुलफाम नही है.
जिस साहिल के बदन पे समंदर अंगराईयाँ लेता है
उस साहिल की भी कोई खुशनुमा शाम नही है
आज फिर उनके जानिब से ना कोई पैगाम आया
आज फिर दिल को कोई काम नही है.
जब तक चाहोगे बहेंगे तेरे समंदर पे
इस तिनके का और कोई दरिया-ए-जाम नही है.
एक और आख़िरी कोशिश कर के देखेंगे ज़रूर
इश्क के घर पहुँचना है कोई मंज़िल-ए-आम नही है.
जहाँ में कहीं भी चैन-ओ-आराम नही है.
तुमने मसला उठाया है तो कह देता हूँ
हम आशिकों से ज़्यादा कोई गुलफाम नही है.
जिस साहिल के बदन पे समंदर अंगराईयाँ लेता है
उस साहिल की भी कोई खुशनुमा शाम नही है
आज फिर उनके जानिब से ना कोई पैगाम आया
आज फिर दिल को कोई काम नही है.
जब तक चाहोगे बहेंगे तेरे समंदर पे
इस तिनके का और कोई दरिया-ए-जाम नही है.
एक और आख़िरी कोशिश कर के देखेंगे ज़रूर
इश्क के घर पहुँचना है कोई मंज़िल-ए-आम नही है.
Sunday, May 3, 2009
वक्त एक जगह है
(दरअसल वक्त एक जगह की तरह है जिसमे निर्वात जैसी कोई स्थिति नहीं होती वो जब खाली होती है तो खामोशी भर देती है जैसे जगह खाली नही रहती, हवा उसे भर देती है....)
[1]
बंद वक़्त के पीछे से
खुद को
उसके एक सुराख़ में डाल कर
जितना उसके नजर में आ सकता हूँ
आ रहा हूँ
भीतर कोई जगह खाली नहीं है!
वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही
[2]
वो निकल गया था एक दिन
अपना पूरा सामान लेकर
और कुछ उसका भी
उसके वक्त में
बहुत देर रहने के बाद
उसके वक्त में दरारें पड़ गयीं थीं
मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं
[३]
उस परिस्थिति में
किसी और घटना के
अटने की गुंजाइश नहीं थी
समय जरा सा भी फैलता
तो फट सकता था
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
[1]
बंद वक़्त के पीछे से
खुद को
उसके एक सुराख़ में डाल कर
जितना उसके नजर में आ सकता हूँ
आ रहा हूँ
भीतर कोई जगह खाली नहीं है!
वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही
[2]
वो निकल गया था एक दिन
अपना पूरा सामान लेकर
और कुछ उसका भी
उसके वक्त में
बहुत देर रहने के बाद
उसके वक्त में दरारें पड़ गयीं थीं
मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं
[३]
उस परिस्थिति में
किसी और घटना के
अटने की गुंजाइश नहीं थी
समय जरा सा भी फैलता
तो फट सकता था
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
Friday, May 1, 2009
वो जो इमली का पेड़ है!
वो जो इमली का पेड़
तुम्हारे घर के पास है
और जो
तेरे आते-जाते
हाथ हिलाता रहता है
जाओ जाकर गले लगा लो उसको
उसकी शाख पे तूफ़ान आया हुआ है
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