Monday, October 5, 2009

निष्ठुर

भूख थे वहाँ कतार में खड़े
और
पेट उनके, आग में पक रहे थे

चेहरे पहले लार लार हुए
फिर सूख कर लटक गये
इंतेज़ार में,
जीभ पपड़ीदार हुए फिर
आस में भोजन के
मगर शर्म नही आयी उसे.

वो भीतर
आसन पे विराजमान
अपने
दप-दप करते चेहरे के साथ
मजे से
चढ़ावे खाता रहा.

30 comments:

Mishra Pankaj said...

ओम भाई मस्त है भाई आपने तो गजब की कविता लिखी है
नमस्कार

डिम्पल मल्होत्रा said...

mujhe pata nahi ki kavita kis sandarbh me likhi gyee hai par kisi tarah ki aas me koee sharam nahi hiti...etna janti hun...sabko alag alag cheejo ki bhukh hai or wo pana chahte hai..pet ki bhookh ka andaza apki kavita se laga sakti hun....

अशरफुल निशा said...

Apna apna bhagya.
Sundar bhaav.
Think Scientific Act Scientific

kshama said...

Khaamosh kar diya aapne...yahee aapkee zabadast taqat hai..hamesha 'gagar me sagar' bhar dete hai...!

सागर said...

आपकी नयी तस्वीर बहुत डरावनी है... कहती है बिना कमेन्ट दिए मत जाना ! कैसा खौफ है यह... :)

सागर said...

आपकी नयी तस्वीर बहुत डरावनी है... कहती है बिना कमेन्ट दिए मत जाना ! कैसा खौफ है यह... :)

vandana gupta said...

ek katu satya ko ujagar karti rachna.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

waaqai mein ek dar sa dikhta hai is kavita mein........

दप-दप करते चेहरे के साथ
मजे से
चढ़ावे खाता रहा... katu vyang....


bahut achcha likha hai aapne

विनोद कुमार पांडेय said...

Om ji, Thoda hatkar par abhivyakti wahi puarni wali. behtareen...badhayi..sundar bhav..

Abhishek Ojha said...

'निष्ठुर' ही उपयुक्त शीर्षक हो सकता था इसके लिए !

Alpana Verma said...

बहुत सही kahaa!

कटाक्ष करती कविता!

Ambarish said...

katu par satya

रश्मि प्रभा... said...

shaandaar abhivyakti

Kusum Thakur said...

पूर्ववत अच्छी अभिव्यक्ति . आपको बधाई !

Dr Ankur Rastogi said...

Der tak yaad rehne waali rachna. Badhai.

Apanatva said...

omji bahut hee gaharee chap chodane walee rachana rahee ye . Badhai

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत भावुक कर देने वाली रचना सही है....

Renu goel said...

दो बहने हैं गरीबी और भूख ...बचपन से साथ निभाती आई हैं ...एक को मार दो दूसरी खुद बखुद मर जायेगी

Yogesh Verma Swapn said...

ek misaal abhivyakti, badhaai.

अपूर्व said...

ओम भाई आपका यह नया अन्दाज तो झकझोर गया और बड़ा बेहतरीन और सामयिक लगा..
पेट उनके, आग में पक रहे थे
भूख से बड़ी आग क्या होगी..जिसमे मिट्टी के जिस्म पकते नही झुलस जाते हैं..
बीच के स्टैन्जा का चित्र इतना भयावह और सजीव लगा कि पाण्डेय जी की हल्दीघाटी याद आ गयी..
और यहाँ भीतर बैठे ’वो’ की व्यंजना बहुत सशक्त और धारदार लगी..यह दान पर चलने वाले पूज़ाघरों की व्यवस्था भी हो सकती है, टैक्स पर चलने वाले पार्लियामेंट की भी और ठगी पर चलने वाले बाजार की भी..
बहुत खूब..नयी नयी फ़्रीक्वेन्सीज देखने को मिल रही हैं आपकी

अपूर्व said...

हाँ प्रथम पंक्ति मे ’भूख थी’ प्रयोग किया है आपने या ’भूखे थे’..थोड़ा कन्फ़्यूज कर गया

ushma said...

ॐम जी ! आपकी कविताओं ने तो ,
परसाई जी की कविताओ की याद दिला दी !
बहुत मार्मिक व्यंग्य रचनाये हैं ! आभार !

Meenu Khare said...

बहुत मार्मिक व्यंग्य रचनाएँ.

Udan Tashtari said...

बहुत जबरदस्त/ उम्दा रचना.

सुशीला पुरी said...

गज़ब.........

दर्पण साह said...

aaj us kathit bhagvan ko bhi nahi chora?
andaaz nirala hai !!

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

वाणी गीत said...

मजे से चढावे खाता रहा ..निष्ठुर कविता ..!!

दिगम्बर नासवा said...

सच में मंदिर मैं बैठा भगवान् कभी कभी बहुत निष्ठुर हो जाता है .......... पर उसकी चाल को कौन समझ सकता है .....

Anonymous said...
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