Sunday, June 28, 2009

दो मजबूर लोग !

तुम मजबूर थी

प्यार हो नहीं पाया था तुम्हें



मैं मजबूर था

प्यार हो गया था मुझे

इश्क में

रिश्ते घने हो जाते हैं जब
कोहरे की तरह,
तो इश्क हो जाते हैं

तभी तो दिखाई नही देता
कुछ भी इश्क में.

Saturday, June 27, 2009

पतझड़ के उन्ही सुखे पत्तों पर !

गुजरता रहेगा वक़्त
पर मौसम टंगे रहेंगे
पतझड़ के उन्ही सुखे पत्तों पर

आर पार जाती रहेंगी साँसें पर
ह्रदय पर के दबाब कम नही होंगे

पसरती रहेगी धूप
छत और आंगन के कंधों पर
पर छू नही पायेगी वे देह की सीलनो को

बहुत सारा पानी बहता रहेगा पर
रक्त टिका रहेगा वहीँ
जहाँ कटे थे रिश्ते

लिखी जाने वाली किताबें
तेरे किरदार के इंतज़ार में
गुमसुम बैठी रहेंगी

तेरे लौटने तक
सब कुछ टंगा रहेगा
मेरे साथ दीवार की खूंटी पर

Friday, June 26, 2009

उसकी हथेली में मेरा क्षितिज रहता है ! !

राह में पूरी हुई
तलाश मंजिल की

मिल गयी तेरी उँगलियाँ
थाम कर चलने के लिये

मंजिल या मोकाम में और क्या होता है
सिवाए इस एहसास के

कि कोइ है
थामने के लिए
गर कभी लम्हें लड़खडायें

कि कोई है
जिसके कांधे पे अपना वजूद रख दो
तो और बढ़ जाए

कि कोई है
जिसकी हथेली में क्षितिज रखा जाए
तो वो और नूरी हो जाए

कि कोई है
जिसकी आँखों से
बहा जा सकता है धार बनकर
कभी मौका हो तो

और क्या होता है मंजिल या मोकाम में !

शुक्रिया
इस विराट सृष्टि का
जिसमे ये सब घटित हुआ

शुक्रिया
उस राह का
जिस पर वो राह मिली

शुक्रिया
उस तलाश का
जिसने खोजी मंजिल

और सबसे ज्यादा
शुक्रिया तुम्हारा
जो मेरे हाथ अपने हाथ में आने दिये।

Thursday, June 25, 2009

खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे

उसने कहना छोड़ दिया
और मैने भी

वो सारे शोर
जो कभी कमरे और
उनसे निकल कर बरामदे तक पहुँचते थे,
भीतर ही उमड़ने घूमड़ने लगे गुबार बनकर

पर खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे
और सांकलें चढी रही दरवाजों पे
हम अड़े रहे अपनी-अपनी जिद पर

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग

पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये

आज हम सोंचते हैं
कभी हम एक साथ, एक कोने में
बैठ कर रो लेते.

Tuesday, June 23, 2009

बिना नज़्म के तुम्हें कैसे छुऊं !!

कभी-कभी
कोई भी नज़्म
उगा कर नही लाती सुबह

आ के बैठ जाती है
आँगन में अनमनी सी
जाने क्या सोंचती हुई
बैठी रहती है देर तक यूँ हीं

चाय पी कर भी ताज़ी नहीं होती ये सुबहें

उन रातों को,
जिनकी वे सुबहें होती हैं
नज़्म के बीज नही गिरते
आसमान खाली रहता है तारों के पेड़ से
और बादल भरे हुए

ऐसी सुबहों को
मैं बहुत परेशां रहता हूँ
कि बिना नज़्म के तुम्हें कैसे छुऊं !!

Monday, June 22, 2009

खिल कर गमले की मिट्टियो में

लिहाफ हो जाता है प्यार तेरा
ओढ के लेटता हूँ जब सर्दियो में

नजरो में रखता हूँ तेरी यादो के पन्ने
और पलट लिया करता हूँ उदासियों में

मौसम को यूँ बेकाबू किया न करो
खिल कर गमले की मिट्टियो में

गुनगुनी धूप में छत पे आ कर
बचा लिया करो मुझे सर्दियों में

तेरी दूरी ने बनायी खराशे जिस्म पे
और खरोंचे मेरी हड्डियो में

एक थोड़ा ठंढा सूरज उगाना है !

क्या तुमने देखा !!!

सुबह,
मैंने तुम्हारे गार्डेन में
जो धूप की कलमी लगाई है

उसमें पानी देती रहना

एक थोड़ा ठंढा सूरज उगाना है

आने वाले
गर्मियों के मौसम के लिए

तुम कहती रहती हो न
कि ये सूरज आजकल बहुत गर्म रहता है!

Sunday, June 21, 2009

उसका जाना...

वो सारे सामान ले आई थी
लौटा देने के लिए।

वो हमारी आखरी तय मुलाक़ात थी
जिसमे उसे मेरा दिया
सब कुछ लौटा देना था
और फ़िर
एक लंबे गहरे रिश्ते से मुंह फेर लेना था

उसे खुरच देने थे
मेरी यादों के सारे निशान
समय की देह से
और मुझे अजनबी दुनिया मैं फेंक कर
खाली हो जाना था

निकाल कर रख दिए उसने
एक-एक कर सारे सामान
और उनके साथ वे सब ख्वाब भी,
जो आँखों से निकालते वक्त
नमकीन हो गए थे.

फिर न जाने कितनी देर
हम भींगते कमरे में बैठे रहे
और आखिर में
जब निकलने का वक़्त हुआ
तो इतनी तेज बारिश कि...

आखिरकार उस तेज बारिश में हीं जाना हुआ

मैंने उसके दुपट्टे के कोने में
शगुन के एक सौ एक रुपये बाँध दिए और
उसने निकलने से पहले मेरे पैर छू लिए।

Friday, June 19, 2009

वे गुलमुहर के पेड़ वहां पहले नही थे

मेरी बांहों पे
अपना सर टिका कर
तुमने जो तय कर दिए थे
मेरी जिंदगी के रास्ते

उन रास्तों से
तुम भी कभी फ़िर गुजरो
तो देखना
उनके दोनों तरफ
गुलमुहर के पेड़ खड़े मिलेंगे
हमेशा अपने लाल फूलों के साथ

वे गुलमुहर के पेड़ वहां पहले नही थे

साकी

वहीं पे है पडा अभी तक वो जाम साकी
निकल आया तेरे मयखाने से ये बदनाम साकी

नजर में ठहरी हुई है वो तेरी महफिल अभी तक
जो पी आया तेरे होठो से एक कलाम साकी

हो न जाये ये परिंदा कोई गुलाम
कहते हैं शहर में बिछे हैं पिंजडे तमाम साकी

मुझे मालूम है मेरी गुमनामी के बारे में
तमन्ना है तुझको करे सब सलाम साकी

लिखने लगे जो अपनी दास्तान साकी,
उसमें आने लगा बार बार तेरा नाम साकी

खुदा हाफिज़ करने में है न अब कोइ गिला
उसकी तरफ से आ गया है मुझको पैगाम साकी

Thursday, June 18, 2009

अपनी देह का इंतज़ार करते!

तुम चली गई थी
पर तुम्हारे जाने के बाद
अब भी वहीँ
पार्क की उसी उदास बेंच पर
बैठी हुई है रूह
अपनी देह का इंतज़ार करते

एक देह वहां है

पर उसे वो अपना मान नही रही

Wednesday, June 17, 2009

मांग लेना मेरी उँगलियों की मदद

ख्वाब बुनने में
कभी उलझ जाए कोई ताना,
छूटने लगे कोई सिरा कभी
या फ़िर घिस जाए, टूट जाए


कभी महसूस हो जरूरत
तो संकोच मत करना

अवश्य मांग लेना मेरी उँगलियों की मदद

तुम्हारे ख्वाब के ताने
नही होंगे मेरे न सही,
पर उन तानो पे
मेरा स्पर्श
मुझे बचाता रहेगा
अपने होने की व्यर्थता के एहसास से

Tuesday, June 16, 2009

तेरी आवाज में मेरा नाम!

बियाबान मौन का है
और ये बंजारा जिस्म, मेरा
और एक भटकाव है उस मौन में
जो ख़त्म हीं नहीं होता

आँखे तेरी गुम हो गयी आवाज के निशाँ ढूँढती है

वक्त खानाबदोश हो गया है
रोज डेरा बदल लेता है
गाड़ देता है तम्बू , जहाँ भी कोई आहट ,
धुंधली सी भी आहट सुनाई दे जाती है
तेरी आवाज की

बस एक बार वो ध्वनियाँ मिल जाएँ
जिनमे तुम बुलाया करती थी मुझे
तो अपना वक्त उससे टांक दूं
और खत्म करून ये सफ़र.

Sunday, June 14, 2009

उसने भी किनारे कर दिया मुझको !

उफनते समंदर में
डाल दिया ख़ुद को

उसकी आगोश में
गहरे डूबने के लिए

उसके पानी में
हमेशा कुछ छलकता दीखता था
मुझे लबालब करने को आतुर

सो उसकी अथाह उफनते पानीदार आगोश में
सरक गया मैं

पर उसने भी बहा कर
किनारे कर दिया मुझको

Saturday, June 13, 2009

दीवारें, जो एक घर बनाती थीं

गुजर गयीं दीवारें
दीवारें, जो एक घर बनाती थीं

पहले वे सीली हुईं
फ़िर धीरे-धीरे
उखड-उखड कर गिर गए पलस्तर
और फ़िर नंगी हो गई इंटें

रिसने लगी फ़िर
छत की आँख भी एक दिन
पर वो भूला हीं रहा
घर नही लौटा

भींग कर मोटी होती रहीं खिड़कियाँ और किवाड़
फ़िर पल्ले लगने बंद हो गए

अंतर्मन बैठा पसीझता रहा
और इंतज़ार के आख़िर में
गल कर पानी हो गया एक दिन

बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है

Friday, June 12, 2009

तुम्हारी खिड़की पे रख दिया करूंगा सुबह!

सुबह-सुबह

अलसुबह

हर रोज , एक सुहानी सुबह

मैं रख दिया करूंगा

तुम्हारी खिड़की पे


तुम ले लेना जाग कर


मैं नहीं चाहता कि

रात भर तुम मेरे साथ

रह कर मेरे ख्वाबो में

किसी और की सुबह से दिन शुरू करो.

Thursday, June 11, 2009

प्यार के पीले हो जाने के पहले !

ये कुछ अन्तिम पंक्तियाँ हैं
जिन्हें मैं लिख लेना चाहता हूँ
जल्दी से,
तुम्हारे प्यार में


उजला गहरा छलछलाता प्यार
जो कल तक तुम्हारी आंखों में दीखता था
बदल कर पीला हों चुका है


और ख्वाब किरचों में बदल कर
नींद को लहुलुहान कर चुके हैं


वो इन्तिज़ार भी अब ख़त्म होने को है
जिसके बाद
बेवफा की शिनाख्त हो जाती है
और उस पर मुहर लगा दी जाती है


इसके बाद
जो भी लिखा जाएगा
उसमे नफ़रत, एक अपरिहार्य भाव होगा


पर इससे पहले
मैं लिख लेना चाहता हूँ
अन्तिम पंक्तियाँ प्यार की
ताकि लौटा जा सके कभी उस प्यार में
और उसके ख्वाबों में
इस नफरत से उबर जाने के बाद।

Wednesday, June 10, 2009

अब घर से नहीं भागती लड़कियां !

( यह कविता लिखते वक्त जेहन में आलोक धन्वा जी की कविता-भागी हुई लड़कियां- कि कुछ पंक्तियाँ थी। इस कविता कों आप http://chitthanama.blogspot.com/2008/09/blog-post_12.html, यहाँ पढ़ सकते हैं ).


घर से नहीं भागती लड़कियां अब

कभी कभार, इक्का-दुक्का हीं
खबर मिलती है कि
फलां लड़की भाग गयी
या फिर वो भी नहीं मिलती

न अब घर की जंजीरें वैसी रहीं शायद
न लड़के, जिनके साथ भागती थी लड़कियां
न वैसा प्यार, जिनके लिए भागा जा सके
और न ख़ुद लड़कियां हीं
घर से भागने की हद तक प्यार करने वाली

या शायद
एक और बात हो सकती है कि
लड़कियों का भागना अब कोई खबर हीं न रह गया हो

लड़कियों का न भागना
या उनके भागने पे कोई खबर न बनना
समाज के बदलाव की एक महत्वपूर्ण खबर है
जिसके लिए अभी कहीं जगह नहीं है

Tuesday, June 9, 2009

ध्यान

दुःख गर
बहुत गहरा हो जाए
और सारी चेतना
उसी दुःख के कील से बींध जाए तो
ध्यान का जन्म होता है

आजकल दोनों आँखों के बीच वाली जगह पे
चेतना
दुःख से बीन्धी हुई रहती है
और मैं ध्यान में .

Monday, June 8, 2009

किस तरह तुम छू पाओगी बसंत अब !

अब
किस तरह तुम
छू पाओगी बसंत
जबकि
अभी-अभी तुमने
बुहार कर
एक जगह इकठ्ठा किये गए
सारे पतझड़ को
पैर मार कर
सभी मौसमों पे छीतेर दिया है

Sunday, June 7, 2009

बदन पे हरा उगा नही कुछ जाने कबसे...

कितना तय होता है
लौटना
हरे पत्तों का, पेड़ों पर
पतझड़ के बाद

पेड़ अच्छे हैं
बहार का इंतज़ार
उनके लिए
इतना लंबा और अनिश्चित नही होता ...

जाने कबसे बैठा हूँ
उसकी आमद के इंतज़ार में
बदन पे हरा उगा नही कुछ जाने कबसे...

Friday, June 5, 2009

रात, नीम और मैं !

सारी रात
मैं उस नीम के
गले लग के रोती रही

सुबह देखा तो
वो और लहलहा रहा था

मेरे आंसू भी
उसने सींचने के वास्ते
इस्तेमाल किए होंगे

Tuesday, June 2, 2009

शरीर में टिके रहने की वजह

शरीर में टिके रहने की वजह
देती है साथ कोई तमन्ना


एक ख्वाहिश है जो
नही जाती छोड़कर कभी


कोई ख्वाब है जो
कभी रूठता नही


टूटता नही है एक
नशा है जो उम्मीद का


मन के आले में अरमानो का एक दीया है
जो अपनी लौ नही समेटता


एक जिंदगी है जो
कभी मरती नही


और कितनी चाहिये वजहें
इस
शरीर में टिके रहने के लिये.

जानते थे वे नही आयेंगी

वो शाम का किनारा जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और जिंदगी की सारी लहरें गायब हो गयी थी अचानक धूंधलके में
उसी किनारे पे मेरी ख्वाहिशें ठहर गयी थीं।

पूरा
का पूरा जिस्म झोंक दिया एक छोटे पेट के वास्ते
मुझे याद भी आईं बहुत बार, वो ठहरी हुई ख्वाहिश
और मैं भूला भी बहुत बार।


पर
जब कभी जिस्म को फुरसत मिली पेट से
देखा जरूर उस किनारे को
जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और उन लहरों को जो गुम हो गयी थी अचानक।

ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही, आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!