जब से प्रेम और कविताओं के बारे में
यह कहा जाने लगा है कि
वे अब महज वस्तुएं हैं
मैं बाजार में पड़े उत्पादों से
आँख मिलाने से कतराता हूँ
मेरे लिए प्रेम, कवितायें हैं
उनका अभाव कचोटती हुई कवितायें हैं
और प्रेम के पश्चात
अस्तित्व में आया प्रेम का अभाव
और भी ज्यादा कचोटती हुई कविता
और कभी जब तुम्हें भेजने के लिए
मैंने 'पैक' की थीं कवितायें
तब भी वे वस्तुएं नहीं थीं
वे कभी भी वस्तु नहीं हुईं मेरे लिए
तुम्हारी आँखें,
जहाँ मैं मजबूत दीखता था
वहां भी झांकते हुए डर लगता है
जिसकी वजह वो अंदेशा है
कि प्रेम तुम्हारी आँखों में डूब गया हो सकता है
और वहां उन आँखों के समंदर में
कविताओं की तैरती हुई लाश देखना
बेहद डरावना होगा
पर अंजाम से बेपरवाह होकर
मुझे देखना है एक बार तुम्हारी आँखों में
जहाँ मेरी तैरती हुई लाश हो सकती है
या फिर वो विश्वास
जिसे आँख भर, भर कर
मैं भष्म कर सकूं वो आवाजें
जिनमें कहा जाता है कि
प्रेम और कवितायें महज वस्तुएं हैं अब
और तब देखना चाहूँगा
बाजार में पड़े वस्तुओं की लिजलिजी स्थिति !!
_______________
Thursday, December 30, 2010
Friday, December 24, 2010
कथा-परिकथा
मुझे अपने देखे और सुने हुए से
यह भान है कि
मृत्यु एक नियम है
सभी नियमों में सबसे ज्यादा सच और शाश्वत
और उस नियम को जीवित रखने के लिए जन्म होता है
ऐसा जानते हुए भी
मैंने इस चक्र में शामिल किया तुम्हें
तुम्हारे जन्म के लिए बना जिम्मेवार
पर अगर तुम्हें जन्मना हीं था
तो अच्छा है जन्मना मेरे माध्यम से
क्यूंकि तुम बेटियां हो
और मैं अन्य पिताओं के बारे में
दावे के साथ
नहीं कह सकता
कि वे भी मेरी तरह अहोभाव से स्वीकार करते तुम्हे
मैंने सुना है कि
नचिकेता खुद चल कर जब
म्रत्यु के द्वार पे पहुंचा
तो तीन दिन इन्तिज़ार करना पड़ा उसे
और मृत्यु इसी तरह अक्सर डर कर छिप जाती है
जब कोई सामने हो लेता है उसके
पर मेरी बेटियों
जीवन ऐसा नहीं है
वो जन्मते हीं सामने आ जाता है
आँख दिखाने लगता है
तुम आयी
एक सनातन दुःख तुम्हारी मुठ्ठी में रख कर
भेजा गया तुम्हें
तुम्हारी माँ ने कोसा अपने नसीब को
उसे थाली पीटे जाने की वजह का हिस्सा होना था
तुम्हारी दादी ने
आस-पड़ोस की स्त्रियों से साझा किया
दो पोतियों के एक साथ होने का दुःख
तुम्हारे दादा ने कहा-
'कोई चिंता की बात नहीं है'
वे शायद अपनी चिंता भुलाने में थे
तुम्हारे नाना ने कहा-
'जब दो का पता था तो
कुछ सावधानी बरतनी चाहिए थी,
मैंने तो सोंचा था कि आप जांच करा चुके हैं '
और तुम्हारी नानी ने कहा-
'कोई बात नहीं, अभी बहुत जिंदगी बाकी है'
बहुत सारे लोगों ने कहा क़ि
'दोनों एक-एक हो जाते तो काम ख़त्म हो जाता'
और बहुत सारे लोग चुप रहे
मिठाइयों और पार्टियों पे ज्यादा बात नहीं हुई
मैं बैठा सोंच रहा हूँ
संवेदनाओं की इस कठोर म्रत्यु के बारे में
जिसका
इस तीक्ष्णता से भान
मुझे अभी-अभी हो रहा है
_________________
यह भान है कि
मृत्यु एक नियम है
सभी नियमों में सबसे ज्यादा सच और शाश्वत
और उस नियम को जीवित रखने के लिए जन्म होता है
ऐसा जानते हुए भी
मैंने इस चक्र में शामिल किया तुम्हें
तुम्हारे जन्म के लिए बना जिम्मेवार
पर अगर तुम्हें जन्मना हीं था
तो अच्छा है जन्मना मेरे माध्यम से
क्यूंकि तुम बेटियां हो
और मैं अन्य पिताओं के बारे में
दावे के साथ
नहीं कह सकता
कि वे भी मेरी तरह अहोभाव से स्वीकार करते तुम्हे
मैंने सुना है कि
नचिकेता खुद चल कर जब
म्रत्यु के द्वार पे पहुंचा
तो तीन दिन इन्तिज़ार करना पड़ा उसे
और मृत्यु इसी तरह अक्सर डर कर छिप जाती है
जब कोई सामने हो लेता है उसके
पर मेरी बेटियों
जीवन ऐसा नहीं है
वो जन्मते हीं सामने आ जाता है
आँख दिखाने लगता है
तुम आयी
एक सनातन दुःख तुम्हारी मुठ्ठी में रख कर
भेजा गया तुम्हें
तुम्हारी माँ ने कोसा अपने नसीब को
उसे थाली पीटे जाने की वजह का हिस्सा होना था
तुम्हारी दादी ने
आस-पड़ोस की स्त्रियों से साझा किया
दो पोतियों के एक साथ होने का दुःख
तुम्हारे दादा ने कहा-
'कोई चिंता की बात नहीं है'
वे शायद अपनी चिंता भुलाने में थे
तुम्हारे नाना ने कहा-
'जब दो का पता था तो
कुछ सावधानी बरतनी चाहिए थी,
मैंने तो सोंचा था कि आप जांच करा चुके हैं '
और तुम्हारी नानी ने कहा-
'कोई बात नहीं, अभी बहुत जिंदगी बाकी है'
बहुत सारे लोगों ने कहा क़ि
'दोनों एक-एक हो जाते तो काम ख़त्म हो जाता'
और बहुत सारे लोग चुप रहे
मिठाइयों और पार्टियों पे ज्यादा बात नहीं हुई
मैं बैठा सोंच रहा हूँ
संवेदनाओं की इस कठोर म्रत्यु के बारे में
जिसका
इस तीक्ष्णता से भान
मुझे अभी-अभी हो रहा है
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Saturday, November 6, 2010
चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है
आज दिवाली के दिन
तारों से भरी धरती के बीच चाँद सिर्फ ख्याल में है
आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है
धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन
और खरोंच आ जाये तो करना कुछ मलहम जैसा
थी तुम्हारी आदत
कभी धूप और कभी बारिश के लिए
और कभी धूप में होती बारिश को महसूसने के लिए
चलते चले जाना धरती के छोर तक
मेरे साथ चलते हुए
अब ये सब सिर्फ ख्याल में हैं
धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
और जब मेरा पतझड़
मुझपे बडबडाने लगता है
और रात देर तक पत्तियों का गिराना नहीं रोकता
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में
पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता
_____________
तारों से भरी धरती के बीच चाँद सिर्फ ख्याल में है
आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है
धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन
और खरोंच आ जाये तो करना कुछ मलहम जैसा
थी तुम्हारी आदत
कभी धूप और कभी बारिश के लिए
और कभी धूप में होती बारिश को महसूसने के लिए
चलते चले जाना धरती के छोर तक
मेरे साथ चलते हुए
अब ये सब सिर्फ ख्याल में हैं
धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
और जब मेरा पतझड़
मुझपे बडबडाने लगता है
और रात देर तक पत्तियों का गिराना नहीं रोकता
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में
पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता
_____________
Tuesday, November 2, 2010
जहाँ प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
अभी कुछ देर पहले हीं
मैं जलती आँखों के साथ
नींद की एक लोकल ट्रेन में चढ़ा हूँ
और थोड़ी देर बाद हीं
मेरी नींद को
एक सपने पे उतर जाना है
जहां मेरी नींद अक्सर उतरती है
उस सपने से सटी एक जगह है
जहाँ मुझे अपना आशियाना बनाना था
जिसे मैं कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया
और मालुम नहीं कब तक ऐसा रहेगा
दरअसल
ये शहर कभी एक दलदल है
जहाँ भारी मात्रा में
प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
और जहाँ घर की नींव नहीं बन पाती
और कभी एक बाजार है
जहाँ आदमी की धारिता आंकने की प्रक्रिया
लगातार चलती रहती है
ताकि उसे कर्ज दिए जा सकें
इस शहर का दिया हुआ एक डर है
जो मुझमें खुलेआम घूमता है
वो लौट कर जाने के लिए एक घर के ना होने का डर है
और कभी लौट कर न जा पाने का डर है
खुलेआम घुमते हुए यह डर मुझे कभी भी पकड़ लेता है
और लगभग हर रात
मेरी नींद डर कर उस सपने पे उतर जाती है
जिससे सटी वो जगह है
पर इससे भी बड़ा एक और डर है
कि किसी रात जब मैं
नींद की लोकल ट्रेन से जब सपने पे उतरने को होऊं तो
वहां कोई छिन्न-भिन्न पड़ा हो
और उसके बाद मुझे मालुम नहीं
कि मेरी नींद कहाँ जाया करेगी
__________
मैं जलती आँखों के साथ
नींद की एक लोकल ट्रेन में चढ़ा हूँ
और थोड़ी देर बाद हीं
मेरी नींद को
एक सपने पे उतर जाना है
जहां मेरी नींद अक्सर उतरती है
उस सपने से सटी एक जगह है
जहाँ मुझे अपना आशियाना बनाना था
जिसे मैं कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया
और मालुम नहीं कब तक ऐसा रहेगा
दरअसल
ये शहर कभी एक दलदल है
जहाँ भारी मात्रा में
प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
और जहाँ घर की नींव नहीं बन पाती
और कभी एक बाजार है
जहाँ आदमी की धारिता आंकने की प्रक्रिया
लगातार चलती रहती है
ताकि उसे कर्ज दिए जा सकें
इस शहर का दिया हुआ एक डर है
जो मुझमें खुलेआम घूमता है
वो लौट कर जाने के लिए एक घर के ना होने का डर है
और कभी लौट कर न जा पाने का डर है
खुलेआम घुमते हुए यह डर मुझे कभी भी पकड़ लेता है
और लगभग हर रात
मेरी नींद डर कर उस सपने पे उतर जाती है
जिससे सटी वो जगह है
पर इससे भी बड़ा एक और डर है
कि किसी रात जब मैं
नींद की लोकल ट्रेन से जब सपने पे उतरने को होऊं तो
वहां कोई छिन्न-भिन्न पड़ा हो
और उसके बाद मुझे मालुम नहीं
कि मेरी नींद कहाँ जाया करेगी
__________
Sunday, October 24, 2010
वे कंधे नहीं पहुंचे अब तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था
वहां अभी तक
तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे
मैं अक्सर टाल जाता हूँ
वहां से गुजरना,
वहां बैठ कर सुबकता हुआ मैं
तेज कर देता है अपना रोना
मुझे देखते हीं
पर अक्सर नहीं भी टाल पाता
और ये देखने पहुँच हीं जाता हूँ
कि शायद तुम्हारे कंधे पहुँच गए हों अब
मैं जानता हूँ
कहाँ होंगे तुम्हारे कंधे अभी
और अगर पहुंचूं वहां मैं
तो तुम रोक न पाओ और बढ़ा दो उन्हें
पर जाने कौन है
जो जिद पे अड़ा है कि
वे कंधे वहां क्यूँ नहीं पहुंचे अभी तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था
________
वहां अभी तक
तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे
मैं अक्सर टाल जाता हूँ
वहां से गुजरना,
वहां बैठ कर सुबकता हुआ मैं
तेज कर देता है अपना रोना
मुझे देखते हीं
पर अक्सर नहीं भी टाल पाता
और ये देखने पहुँच हीं जाता हूँ
कि शायद तुम्हारे कंधे पहुँच गए हों अब
मैं जानता हूँ
कहाँ होंगे तुम्हारे कंधे अभी
और अगर पहुंचूं वहां मैं
तो तुम रोक न पाओ और बढ़ा दो उन्हें
पर जाने कौन है
जो जिद पे अड़ा है कि
वे कंधे वहां क्यूँ नहीं पहुंचे अभी तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था
________
Friday, October 8, 2010
वो वक्त अतीत में गिर गया है
यह बिलकुल हीं रात है
और इसकी परिधि के भीतर
ठीक चाँद इतनी खाली जगह है
और बाकी सभी जगह अमावस बिछी हुई है
इस वक्त उस खाली जगह को महसूसना हीं
मेरी कविता है
और उसे लिख देना
तुम्हें पा लेने जैसा है
पर तुमने जाते हुए
वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया था
और वक्त का वो हिस्सा जिसमें कवितायेँ
लिखी जानी थी,
अतीत में गिर गया है
___________
और इसकी परिधि के भीतर
ठीक चाँद इतनी खाली जगह है
और बाकी सभी जगह अमावस बिछी हुई है
इस वक्त उस खाली जगह को महसूसना हीं
मेरी कविता है
और उसे लिख देना
तुम्हें पा लेने जैसा है
पर तुमने जाते हुए
वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया था
और वक्त का वो हिस्सा जिसमें कवितायेँ
लिखी जानी थी,
अतीत में गिर गया है
___________
Wednesday, September 29, 2010
और ज्यादा समय तुम्हारे पास
साँसें और ज्यादा तुम्हारे फेफड़ों में
रक्त से और लाल
धमनियां तुम्हारी
आग और पानी बराबर-बराबर
अकम्पित जीवन
और पाँव रखने से पहले
रौशनी गिरे
राह पर
मिटटी, बारिशें और खुश्बुएं
रहें सदा अंकुरित
तुम्हारे भीतर
और एक बड़ा कद
और ज्यादा समय हो
इस जन्म दिन के बाद
तुम्हारे पास.
रक्त से और लाल
धमनियां तुम्हारी
आग और पानी बराबर-बराबर
अकम्पित जीवन
और पाँव रखने से पहले
रौशनी गिरे
राह पर
मिटटी, बारिशें और खुश्बुएं
रहें सदा अंकुरित
तुम्हारे भीतर
और एक बड़ा कद
और ज्यादा समय हो
इस जन्म दिन के बाद
तुम्हारे पास.
Sunday, September 19, 2010
रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
लोग झिझके नहीं गले लगने में
और गले लगना इसलिए हो कि रोया जा सके
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
कवितायें तभी हों
जब भर जाएँ उनमें दुःख पूरी तरह
और कहानियों में भी
रुला देने की हद तक हो अवसाद
किसी भी तरह
बचा ली जाए रोने की परंपरा
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
_____________
और गले लगना इसलिए हो कि रोया जा सके
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
कवितायें तभी हों
जब भर जाएँ उनमें दुःख पूरी तरह
और कहानियों में भी
रुला देने की हद तक हो अवसाद
किसी भी तरह
बचा ली जाए रोने की परंपरा
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
_____________
Monday, September 13, 2010
हम चाहते हैं कि समंदर हो जाएँ !
हम पिघल गए थे
पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें
हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...
________
पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें
हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...
________
Tuesday, September 7, 2010
सपनो से भरी एक कविता बाकी है!
यहाँ जीते हुए
हमेशा यह याद रखना जरूरी सा लगता है
कि यहाँ से वहां
वक़्त तीन दसमलव पांच घंटे आगे चलता है
और जब तक मैं सही वक़्त तक पहुंचूं
पीछे छूट जाने का भय काबिज हो जाता है
हालांकि यहाँ भी
जागने और सोने के लिए
सुबह और रात है
पर तुम्हारी अनुपस्थिति में
वक़्त का कोई न कोई कोना
नींद की पकड़ से
बाहर छूट जाता है
और मेरी सुबह वक़्त के
उसी कोने से शुरू होती है
इच्छा होती है कि
तुम्हें एक दफा गहरी नींद में
यहाँ के वक़्त में सोता देखूं
तो शायद नींद का वो कोना पकड़ में आ जाए।
नींद के अभाव में
सपनो से भरी एक कविता अभी बाकी है
हमेशा यह याद रखना जरूरी सा लगता है
कि यहाँ से वहां
वक़्त तीन दसमलव पांच घंटे आगे चलता है
और जब तक मैं सही वक़्त तक पहुंचूं
पीछे छूट जाने का भय काबिज हो जाता है
हालांकि यहाँ भी
जागने और सोने के लिए
सुबह और रात है
पर तुम्हारी अनुपस्थिति में
वक़्त का कोई न कोई कोना
नींद की पकड़ से
बाहर छूट जाता है
और मेरी सुबह वक़्त के
उसी कोने से शुरू होती है
इच्छा होती है कि
तुम्हें एक दफा गहरी नींद में
यहाँ के वक़्त में सोता देखूं
तो शायद नींद का वो कोना पकड़ में आ जाए।
नींद के अभाव में
सपनो से भरी एक कविता अभी बाकी है
Friday, August 20, 2010
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
वे टूटें
भूकंप के मकानों की तरह
और फटें
बादलों की तरह
हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर
देखें उनका टूटना और फटना
लिखे उनके दुख और खुश होवें
टूट पड़ें सड़क पे
लाल बत्ती के हरी होते हीं
और बाजू में
बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते
साइकिल वाले की साँसों का
उथल-पुथल देखते हुए
पार कर जाएँ सफ़र
रात की तेज बारिश में
बह गयी हों सारी यादें
तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ
खुद से बातें करना
और समय पे पहुँच जाएँ दफ्तर
दाल सौ रुपये किलो जाए
तो उसके साथ हम बेंच दे
अपनी मासूमियत
वो जलाएं हमें
और हम खींचें कश
मनहूस वक्त के छल्ले हर तरफ घूमते हों
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
____
भूकंप के मकानों की तरह
और फटें
बादलों की तरह
हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर
देखें उनका टूटना और फटना
लिखे उनके दुख और खुश होवें
टूट पड़ें सड़क पे
लाल बत्ती के हरी होते हीं
और बाजू में
बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते
साइकिल वाले की साँसों का
उथल-पुथल देखते हुए
पार कर जाएँ सफ़र
रात की तेज बारिश में
बह गयी हों सारी यादें
तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ
खुद से बातें करना
और समय पे पहुँच जाएँ दफ्तर
दाल सौ रुपये किलो जाए
तो उसके साथ हम बेंच दे
अपनी मासूमियत
वो जलाएं हमें
और हम खींचें कश
मनहूस वक्त के छल्ले हर तरफ घूमते हों
अब और बंजर होने की जगह नहीं हो
और हमारा क्या
हमारे दिमागों में पतझड़ का मौसम हो
और वहां पहुँचने वाली नसें सूखी.
____
Saturday, August 14, 2010
कवितायेँ बचाती है हरीतिमा
हर नयी कविता
जगह बनाती है
दूसरी नयी कविता के लिए
प्रकृति के हर जीव की तरह
कवितायेँ भी रखती हैं अपना बीज
स्वयं में हीं
और लगातार बचाती हैं हरीतिमा
***
जरूरी होती हैं कवितायेँ
कवितायेँ न हो
तो हो सकता है मैं भी
किसी कटघरे में होऊं
और मुझ पर कोई मुकदमा हो
जब तक कवितायें हैं
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी बचते रहेंगे
कटघरे में होने से
***
जगह बनाती है
दूसरी नयी कविता के लिए
प्रकृति के हर जीव की तरह
कवितायेँ भी रखती हैं अपना बीज
स्वयं में हीं
और लगातार बचाती हैं हरीतिमा
***
जरूरी होती हैं कवितायेँ
कवितायेँ न हो
तो हो सकता है मैं भी
किसी कटघरे में होऊं
और मुझ पर कोई मुकदमा हो
जब तक कवितायें हैं
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी बचते रहेंगे
कटघरे में होने से
***
Tuesday, August 10, 2010
कवि का डर टूटा नहीं है अब तक !
जाना नहीं हुआ उस तरफ
ताकने का मन नहीं हुआ बिलकुल भी
बहुत दिन हुए
देखी नहीं कोई कविता
अभी जिधर कविता का होना है
उधर पत्थर फेंकती औरतें हैं,
जीप जलाते मासूम
और देखते हीं गोली मार देने के लिए
तत्पर हथियारबंद
उसकी तरफ देखने से
कभी भी लग सकती है आँख में गोली
कविता जब खो देती है विश्वास
उसके साथ जाने में डर लगता है
और कवि का डर
टूटा नहीं है अब तक
***
ताकने का मन नहीं हुआ बिलकुल भी
बहुत दिन हुए
देखी नहीं कोई कविता
अभी जिधर कविता का होना है
उधर पत्थर फेंकती औरतें हैं,
जीप जलाते मासूम
और देखते हीं गोली मार देने के लिए
तत्पर हथियारबंद
उसकी तरफ देखने से
कभी भी लग सकती है आँख में गोली
कविता जब खो देती है विश्वास
उसके साथ जाने में डर लगता है
और कवि का डर
टूटा नहीं है अब तक
***
Sunday, July 25, 2010
खाल उतारने की प्रक्रिया जारी है!
ये अच्छा है
कि इस कविता में जिन्हें आना था
उनमे से कुछ तो अभी व्यस्त हैं
एक मरे बैल की खाल उतारने में
कुछ अपनी छाती से
भूख पिला रही हैं अपने बच्चों को
और कुछ इस इंतज़ार में हैं
कि उनके देह हों तो वे उन्हें बेंच सके
और इसलिए ये संभव है
कि कविता अब वीभत्स होने से बच जाए
जहाँ खाल उतारने की प्रक्रिया जारी है
वहां किसी उत्सव की आशा में
ढेर सारे बच्चे
घेरे में खड़े हैं
अपनी लपलपाती आँखों के साथ
और बार-बार लताड़ने पे भी
पीछे नहीं हटते
उधर ऊपर ताड़ के पेंड़ो पे बैठे
कौवो,गिद्धों और चीलों को भी
इस उत्सव का भान है
और उनके इन्तिज़ार नहीं थकते
वे शायद ईमानदार भी हैं
नहीं तो बस्ती में कई बच्चों का वजन इतना भर है
कि उन्हें लेकर उड़ा जा सकता है
क्षमा कीजिये गर
ये कविता वीभत्स होती जा रही हो
और कवि असंतुलित
जबकि पूरी कोशिश की जा रही है कि ऐसा न हो
जैसे इस तरह की कई चीजें
अभी आपसे छुपाई जा रही हैं कि
बाढ़ और अकाल के दिनों में
सिर्फ सड़ी अंतड़िया होती हैं उनके खाने के लिए
वैसे मुझे लगता है
कवि के असंतुलित हो जाने में
कोई बुराई नहीं है
गर दुनिया के एक अरब लोग भूख से दबे हों
और उठ नहीं पा रहे हों
और कुछ लोग लगे हों इसमें कि
उनके खाल उतारे जा सकें
कि इस कविता में जिन्हें आना था
उनमे से कुछ तो अभी व्यस्त हैं
एक मरे बैल की खाल उतारने में
कुछ अपनी छाती से
भूख पिला रही हैं अपने बच्चों को
और कुछ इस इंतज़ार में हैं
कि उनके देह हों तो वे उन्हें बेंच सके
और इसलिए ये संभव है
कि कविता अब वीभत्स होने से बच जाए
जहाँ खाल उतारने की प्रक्रिया जारी है
वहां किसी उत्सव की आशा में
ढेर सारे बच्चे
घेरे में खड़े हैं
अपनी लपलपाती आँखों के साथ
और बार-बार लताड़ने पे भी
पीछे नहीं हटते
उधर ऊपर ताड़ के पेंड़ो पे बैठे
कौवो,गिद्धों और चीलों को भी
इस उत्सव का भान है
और उनके इन्तिज़ार नहीं थकते
वे शायद ईमानदार भी हैं
नहीं तो बस्ती में कई बच्चों का वजन इतना भर है
कि उन्हें लेकर उड़ा जा सकता है
क्षमा कीजिये गर
ये कविता वीभत्स होती जा रही हो
और कवि असंतुलित
जबकि पूरी कोशिश की जा रही है कि ऐसा न हो
जैसे इस तरह की कई चीजें
अभी आपसे छुपाई जा रही हैं कि
बाढ़ और अकाल के दिनों में
सिर्फ सड़ी अंतड़िया होती हैं उनके खाने के लिए
वैसे मुझे लगता है
कवि के असंतुलित हो जाने में
कोई बुराई नहीं है
गर दुनिया के एक अरब लोग भूख से दबे हों
और उठ नहीं पा रहे हों
और कुछ लोग लगे हों इसमें कि
उनके खाल उतारे जा सकें
(संजुक्त राष्ट्र के हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के आठ राज्यों में २६ अफ़्रीकी देशों से ज्यादा गरीब लोग रहते हैं )
***
Friday, July 16, 2010
उनकी शक्लें ढह गयी हैं आँखों में
यह बहुत बुरा है कि
कुछ भी नहीं है मेरे पास अभी
जिसकी शक्ल कविता हो
और पीछे जो भी कहा था मैंने
उनकी शक्लें भी
ढहती जा रही हैं मेरी आँखों में
कविता निकल गयी है मुझसे
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने के लिए
मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है
*****
कुछ भी नहीं है मेरे पास अभी
जिसकी शक्ल कविता हो
और पीछे जो भी कहा था मैंने
उनकी शक्लें भी
ढहती जा रही हैं मेरी आँखों में
कविता निकल गयी है मुझसे
जो कवि में
चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
आशा रोपती है
और जरिया बनती है कवि होने के लिए
मैं पूरा कर आया हूँ
वह वक़्त
जिसके बाद एक कवि
बलात्कारी हो जाता है,
पेंड काटता है
और पैसे कमाता है
*****
Sunday, July 11, 2010
स्त्री के हक़ में कविताएं
*
जैसे कठिन होता है
पुरुष होते हुए
उबले हुए गर्म आलू छीलना
और बिना चिमटे के अंगीठी में रोटियां सेंकना
उसी तरह कठिन है
पुरुष होते हुए अभी जीना भी
क्यूंकि अभी भी जरूरी है
कि लिखी जाएँ स्त्री के हक़ में कविताएं
**
तुम्हारी कमीज से
जब करीब आयी मेरी नाक
पसीने की गंध से भर गए नथुने
पर चूम कर हीं लौटा
तेरा पसनाया हुआ
वो गर्दन का तिल
जानता हूँ
इस एक बेडरूम,
हौल और किचेन की परिधि के भीतर
दिन भर न जाने कितने होते होंगे काम
***
बारिशें आती हों
और पृथ्वी भींगने के लिए
खड़ी हो जाती हो
घूमना छोड़ कर
तुम्हें जब कभी देखा है एक टक
मिट्टी महकी है
तेरी सोंधी-सोंधी सी
इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा
****
जैसे कठिन होता है
पुरुष होते हुए
उबले हुए गर्म आलू छीलना
और बिना चिमटे के अंगीठी में रोटियां सेंकना
उसी तरह कठिन है
पुरुष होते हुए अभी जीना भी
क्यूंकि अभी भी जरूरी है
कि लिखी जाएँ स्त्री के हक़ में कविताएं
**
तुम्हारी कमीज से
जब करीब आयी मेरी नाक
पसीने की गंध से भर गए नथुने
पर चूम कर हीं लौटा
तेरा पसनाया हुआ
वो गर्दन का तिल
जानता हूँ
इस एक बेडरूम,
हौल और किचेन की परिधि के भीतर
दिन भर न जाने कितने होते होंगे काम
***
बारिशें आती हों
और पृथ्वी भींगने के लिए
खड़ी हो जाती हो
घूमना छोड़ कर
तुम्हें जब कभी देखा है एक टक
मिट्टी महकी है
तेरी सोंधी-सोंधी सी
इतनी बारिशें हुईं
पर उसे गलते नहीं देखा
****
Tuesday, July 6, 2010
किसी भी तरह इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो...
***
हम भरे हुए बादल हैं
इस इंतज़ार में कि
कस कर भींचें जाएँ
हम बरसने को प्यासे हैं
हमने बहुत आसमान नापें हैं
आवारों की तरह
भदभदा जाने की चाह में
और रोके भी रखा है खुद को
कहीं भी भदभदा जाने से
हम इन्तिज़ार में हैं
क्यूंकि बीता वक़्त बीत गया है
और आने वाला अभी पहुंचा नहीं है
हम हैं बेवक्त बरस जाने
और बेमतलब भदभदा जाने से
जानबूझ कर बचते हुए
****
लहरों की आवाजों में खराशें हैं
गला रुंधा सा लगता है
और सारे शब्द सिथुए हो गए हैं
मैं इन्तिज़ार में हूँ
कि वो आये कहीं से भी,
चाहे सहलाये , चाहे बातें करे
या फिर झकझोड़ दे इस सन्नाटे को
वो आये कि
किसी भी तरह
इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो
*****
बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे
कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा
*****
हम भरे हुए बादल हैं
इस इंतज़ार में कि
कस कर भींचें जाएँ
हम बरसने को प्यासे हैं
हमने बहुत आसमान नापें हैं
आवारों की तरह
भदभदा जाने की चाह में
और रोके भी रखा है खुद को
कहीं भी भदभदा जाने से
हम इन्तिज़ार में हैं
क्यूंकि बीता वक़्त बीत गया है
और आने वाला अभी पहुंचा नहीं है
हम हैं बेवक्त बरस जाने
और बेमतलब भदभदा जाने से
जानबूझ कर बचते हुए
****
लहरों की आवाजों में खराशें हैं
गला रुंधा सा लगता है
और सारे शब्द सिथुए हो गए हैं
मैं इन्तिज़ार में हूँ
कि वो आये कहीं से भी,
चाहे सहलाये , चाहे बातें करे
या फिर झकझोड़ दे इस सन्नाटे को
वो आये कि
किसी भी तरह
इस सन्नाटे की पकड़ ढीली हो
*****
बंद कमरे में
पालथी मारे बैठे हैं
साँसों के दो पुलिंदे
कोई भी उठ कर
दरवाजे नहीं खोल रहा
*****
Thursday, July 1, 2010
सपने बिना शीर्षक के अच्छे नहीं लगते
जिस सपने में
पहली बार तुम मिली मुझे
उसे मैंने जागने के बाद
न जाने कितनी बार देखा होगा
पहले की तरह हीं
आगे भी
मैं देखता रहूँगा
बार-बार उसे,
उस ख्वाब को
जिसमें मैं चूम आया था
तुम्हारी आँखों के आग
यह तय होते हुए भी
कि तुम मिलोगी किसी नियत समय में
एक निश्चित जगह पर
मैं ढूंढता रहूँगा तुम्हे
बेपनाह सड़कों पर
और मेरी हताश और थकान
तुम छिपा लेना अपने वक्ष में
जब मिलो मुझे
हम बांटते रहेंगे
अपनी व्यस्तताएं
और बनाते रहेंगे निरंतर
प्यार के लिए जगह और समय
और हमेशा रखेंगे ये ख्याल
कि आगे पृथ्वी को छोटे होते जाना है
और धीरे-धीरे उसके
अपनी धुरी पे
घूमने के घंटे कम होते जाने हैं
सहवास के दौरान
मैं तुम्हारे आँखों में भर दूंगा सपने
ताकि कुछ और नन्हें सपने
खोल सकें अपनी पलकें
ताकि गर कभी प्रेम क्षीण हो जाए
जैसे कवितायें क्षीण होकर क्षणिकाएं हो जाती हैं
तब भी वे नन्हे सपने पहाड़ पे चढ़ सकें
और उनका कोई शीर्षक हो
क्यूंकि सपने क्षणिकाएं नहीं हैं
वे बिना शीर्षक के अच्छे नहीं लगते
*****
पहली बार तुम मिली मुझे
उसे मैंने जागने के बाद
न जाने कितनी बार देखा होगा
पहले की तरह हीं
आगे भी
मैं देखता रहूँगा
बार-बार उसे,
उस ख्वाब को
जिसमें मैं चूम आया था
तुम्हारी आँखों के आग
यह तय होते हुए भी
कि तुम मिलोगी किसी नियत समय में
एक निश्चित जगह पर
मैं ढूंढता रहूँगा तुम्हे
बेपनाह सड़कों पर
और मेरी हताश और थकान
तुम छिपा लेना अपने वक्ष में
जब मिलो मुझे
हम बांटते रहेंगे
अपनी व्यस्तताएं
और बनाते रहेंगे निरंतर
प्यार के लिए जगह और समय
और हमेशा रखेंगे ये ख्याल
कि आगे पृथ्वी को छोटे होते जाना है
और धीरे-धीरे उसके
अपनी धुरी पे
घूमने के घंटे कम होते जाने हैं
सहवास के दौरान
मैं तुम्हारे आँखों में भर दूंगा सपने
ताकि कुछ और नन्हें सपने
खोल सकें अपनी पलकें
ताकि गर कभी प्रेम क्षीण हो जाए
जैसे कवितायें क्षीण होकर क्षणिकाएं हो जाती हैं
तब भी वे नन्हे सपने पहाड़ पे चढ़ सकें
और उनका कोई शीर्षक हो
क्यूंकि सपने क्षणिकाएं नहीं हैं
वे बिना शीर्षक के अच्छे नहीं लगते
*****
Wednesday, June 30, 2010
***
जिनको भी दुःख हो
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ
कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...
***
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ
कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...
***
Sunday, June 20, 2010
जब रातें सारी ख्वाब में बर्बाद होती हों !
जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी
जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह
सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर
उस तरफ चली जाती हैं
----------
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में
जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी
जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं
जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह
सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस
वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर
उस तरफ चली जाती हैं
----------
Saturday, June 12, 2010
बंजर होने के ठीक पहले
चूहे दौड़ते थे
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
-----
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
-----
Tuesday, June 8, 2010
शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था
चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक
पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है
वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था
चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक
पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो
पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को
उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी
शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है
वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे
Saturday, May 29, 2010
रिश्ते भी देह बदलते हैं...
घर लौटता हूँ
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं
वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था
उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है
कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं
दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है
कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था
तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है
दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं
तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्मा हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें
******
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं
वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था
उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है
कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं
दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है
कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था
तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है
दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं
तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्मा हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें
******
Sunday, May 23, 2010
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
###
आजकल न कविता है
न प्रेम है
और न प्रेम कवितायें
सिर्फ भेदती हुई एक खामोशी है
जो शाम के
धुंधले प्रकाश के मर जाने के बाद भी
चिलचिलाती रहती है
और एक कई रातों से नहीं सोया एकांत है
जिसमें तुम्हें कहीं न पाकर
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
और बिस्तर पे देर तक आवारागर्दी करते हैं
सांस में इस तरह सन्नाटा है
जैसे आवाज और जीवन दोनों हीं
मृत्यु के नोंक पे ठहरे हों
एक हफ्ते से
अखबार में रोज तस्वीर के साथ
मेरे गुम होने की सूचना छपती है
और सुबह जब मैं दफ्तर के लिए ट्रेन पकड़ता हूँ
तो लोग कहते हैं
मैं क्यूँ कुरते पाजामे में घर से निकल आया था
और घर नहीं लौटता
मैं चुप रहता हूँ
और मन हीं मन उनको बताता हूँ कि
प्रेम बिना सब मृत्यु है
और फिर वे सब
सहमति में सिर हिलाते हैं
###
आजकल न कविता है
न प्रेम है
और न प्रेम कवितायें
सिर्फ भेदती हुई एक खामोशी है
जो शाम के
धुंधले प्रकाश के मर जाने के बाद भी
चिलचिलाती रहती है
और एक कई रातों से नहीं सोया एकांत है
जिसमें तुम्हें कहीं न पाकर
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
और बिस्तर पे देर तक आवारागर्दी करते हैं
सांस में इस तरह सन्नाटा है
जैसे आवाज और जीवन दोनों हीं
मृत्यु के नोंक पे ठहरे हों
एक हफ्ते से
अखबार में रोज तस्वीर के साथ
मेरे गुम होने की सूचना छपती है
और सुबह जब मैं दफ्तर के लिए ट्रेन पकड़ता हूँ
तो लोग कहते हैं
मैं क्यूँ कुरते पाजामे में घर से निकल आया था
और घर नहीं लौटता
मैं चुप रहता हूँ
और मन हीं मन उनको बताता हूँ कि
प्रेम बिना सब मृत्यु है
और फिर वे सब
सहमति में सिर हिलाते हैं
###
Wednesday, May 12, 2010
जरूरतें रात के वक़्त ज्यादा रोती थीं
लगभग हर सेकेंड
वे एक बच्चे को जन्म देती थीं
और वे खुद सात की संख्या में
हर घंटे मर जाती थीं
वे कुछ ऐसी दुनिया की औरतें थीं
जो सिर्फ आंकड़ों में विकसित होती थी
जिस शहर में
प्रधानमंत्री का निवास स्थान था
उसमें सब-सहारा से भी अधिक कुपोषित लोग थे
मगर सरकार का यह कहना था
कि ऐसा सिर्फ जनसँख्या ज्यादा होने की वजह से था
बच्चों को उनके पैदा होते हीं
हाथ में दुःख थमा दिया जाता था
दुःख जब बजता था
वे बच्चे मुस्कुराते थे
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी
बच्चों को
रात में थप्पड़ खाए बिना नींद नहीं आती थी
मार खाकर वे रोते हुए थक कर
खाली पेट सो जाते थे
ये तरीका उस दुनिया की माओं ने इजाद किया था
उनकी माओं के स्तन
कभी इतने विकसित नहीं होते थे
कि उनमें दूध आ सके
और उनके पिता
उस शहर की सड़कों पे रिक्शा चलाते थे
जहाँ प्रधानमंत्री रहते थे
और जहाँ सड़कों के किनारे
फूटपाथ बनाने पे स्थाई रोक थी
क्यूंकि सरकार मानती थी
कि पैदल चलने वाले कहीं से भी जा सकते थे
इसलिए सड़कों को सिर्फ तेज गाड़ियों के लिए छोड़ दिया जाए
हालांकि,
सरकार ये खुल कर नहीं बताती थी
कि पैदल चलने वाले लोग दरअसल
विकास की रफ़्तार में खड्डे थे
पर प्रयत्नशील थी कि
२०२० तक सारे खड्डे भर दिए जाएँ
और इसलिए आंकड़ों पे
अंधाधुंध काम हो रहा था
विकास के इस षड़यंत्र में
पानी दो रुपये प्रति घूँट बेचा जाता था
और ये कोशिश की जा रही थी
कि लोग भोजन खरीदने से पहले
दांतों की संडन रोकने के लिए टूथपेस्ट खरीदें
क्यूंकि प्रधानमंत्री पे
टूथपेस्ट की बिक्री बढाने के लिए
कई तरह के दबाब थे
तो इस तरह
विकास के इस नए युग में
चूँकि सड़कों के किनारे फूटपाथ नहीं थे
उन सभी बच्चों के पिता
अपने रिक्शों पे सोते थे
और ज्यादातर रातों को
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं
***
वे एक बच्चे को जन्म देती थीं
और वे खुद सात की संख्या में
हर घंटे मर जाती थीं
वे कुछ ऐसी दुनिया की औरतें थीं
जो सिर्फ आंकड़ों में विकसित होती थी
जिस शहर में
प्रधानमंत्री का निवास स्थान था
उसमें सब-सहारा से भी अधिक कुपोषित लोग थे
मगर सरकार का यह कहना था
कि ऐसा सिर्फ जनसँख्या ज्यादा होने की वजह से था
बच्चों को उनके पैदा होते हीं
हाथ में दुःख थमा दिया जाता था
दुःख जब बजता था
वे बच्चे मुस्कुराते थे
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी
बच्चों को
रात में थप्पड़ खाए बिना नींद नहीं आती थी
मार खाकर वे रोते हुए थक कर
खाली पेट सो जाते थे
ये तरीका उस दुनिया की माओं ने इजाद किया था
उनकी माओं के स्तन
कभी इतने विकसित नहीं होते थे
कि उनमें दूध आ सके
और उनके पिता
उस शहर की सड़कों पे रिक्शा चलाते थे
जहाँ प्रधानमंत्री रहते थे
और जहाँ सड़कों के किनारे
फूटपाथ बनाने पे स्थाई रोक थी
क्यूंकि सरकार मानती थी
कि पैदल चलने वाले कहीं से भी जा सकते थे
इसलिए सड़कों को सिर्फ तेज गाड़ियों के लिए छोड़ दिया जाए
हालांकि,
सरकार ये खुल कर नहीं बताती थी
कि पैदल चलने वाले लोग दरअसल
विकास की रफ़्तार में खड्डे थे
पर प्रयत्नशील थी कि
२०२० तक सारे खड्डे भर दिए जाएँ
और इसलिए आंकड़ों पे
अंधाधुंध काम हो रहा था
विकास के इस षड़यंत्र में
पानी दो रुपये प्रति घूँट बेचा जाता था
और ये कोशिश की जा रही थी
कि लोग भोजन खरीदने से पहले
दांतों की संडन रोकने के लिए टूथपेस्ट खरीदें
क्यूंकि प्रधानमंत्री पे
टूथपेस्ट की बिक्री बढाने के लिए
कई तरह के दबाब थे
तो इस तरह
विकास के इस नए युग में
चूँकि सड़कों के किनारे फूटपाथ नहीं थे
उन सभी बच्चों के पिता
अपने रिक्शों पे सोते थे
और ज्यादातर रातों को
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं
***
Labels:
औरत,
कुपोषित लोग,
जनसंख्या,
दुनिया,
प्रधानमंत्री,
विकसित,
शहर,
सरकार,
हाथ
Friday, May 7, 2010
गुजरा वक़्त कान के पास आ कर बोलता है...
###
पहाड़ों के नीचे की खाई
झील बन गयी थी
खारे पानी की
पर आँखों का बरसना नहीं रुका था
रुका तो वो भी नहीं था...
चला गया था आँखों से निकल कर
जाने किसकी फिक्र थी और कैसी जिद,
पीछे छोड़ गया था
पहाड़ पे बैठी आँखें
पर गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा
हथौड़े उसके भी पड़ते होंगे
और वो भी बरसना चाहता होगा
पर उसकी खाई कहीं खो गयी होगी
आखिर फैसला उसका हीं तो था
उस पहाड़ों के नीचे की खाई
जो लबालब भर जाती है
हर साल बारिश के मौसम में,
पानी उसका खारा हीं रहता है
बारिश के मौसम में दोनों को साथ होना बहुत पसंद था
###
मैंने बहुत तेज चलाई थीं
चप्पुएँ
पर उस रात के दोनों किनारे
पानी में देर तक डूबे रहे थे
वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।
सपनों का घटता-बढ़ता रहा आकार
कभी वे नींद से लम्बे हुए
और कभी झपकियों से छोटे
सुबह तुम्हारा फैसला था
कि तुम चले जाओगे
वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
तब से उस पहाड़ पे बैठी रहती है...
###
पहाड़ों के नीचे की खाई
झील बन गयी थी
खारे पानी की
पर आँखों का बरसना नहीं रुका था
रुका तो वो भी नहीं था...
चला गया था आँखों से निकल कर
जाने किसकी फिक्र थी और कैसी जिद,
पीछे छोड़ गया था
पहाड़ पे बैठी आँखें
पर गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा
हथौड़े उसके भी पड़ते होंगे
और वो भी बरसना चाहता होगा
पर उसकी खाई कहीं खो गयी होगी
आखिर फैसला उसका हीं तो था
उस पहाड़ों के नीचे की खाई
जो लबालब भर जाती है
हर साल बारिश के मौसम में,
पानी उसका खारा हीं रहता है
बारिश के मौसम में दोनों को साथ होना बहुत पसंद था
###
मैंने बहुत तेज चलाई थीं
चप्पुएँ
पर उस रात के दोनों किनारे
पानी में देर तक डूबे रहे थे
वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।
सपनों का घटता-बढ़ता रहा आकार
कभी वे नींद से लम्बे हुए
और कभी झपकियों से छोटे
सुबह तुम्हारा फैसला था
कि तुम चले जाओगे
वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
तब से उस पहाड़ पे बैठी रहती है...
###
Sunday, May 2, 2010
सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी
###
इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है
सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है
###
###
वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर
पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको
जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा
अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस
कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.
###
इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है
सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है
###
रात गर्म थी हवा
लू के थपेड़े उड़ रहे थे हर तरफ
आंधी सा हाल था
इतनी धूल उड़ी कि इंसानियत ने बंद कर ली आँखें
अंधेरा कसा रहा चप्पे चप्पे पे.
काले आसमान से एक तारा भी नही निकला
जो टिम-टिमा दे जरा देर के लिए भी.
सुबह सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी.
###
वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर
पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको
जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा
अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस
कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.
###
Monday, April 26, 2010
दिल भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
मैं जानती हूँ
तुमने देख ली होगी
मेरे होंठों पे वो कांपती हुई कशिश
और उनपे बार-बार जीभ फेर कर
भिंगाने की मेरी विवशता
और भांप ली होगी वो कमजोरी भी
जिसकी वजह से कोई
किसी की बांहों में निढाल हो जाता है
उस कुछ देर की मुलाक़ात में
अब बताऊँ भी तो
सदा गतिमान होने का दंभ भरने वाला
ये वक़्त क्या मान लेगा
कि वो ठहर गया था
वो धौंकनी सी जलती हुई मेरी सांस थी
जिसपे तुमने अपने पसीने वाले हाथ
रख दिए थे
और कैसे छनाके की आवाज हुई थी
मेरे रोम में
जैसे जलते कोयले पे
किसी ने पानी उड़ेल दिया हो
खुदा जानता है
कि वो दिन का वक़्त था
नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे
तुम तो चले आये थे,
मुझे तो याद भी नहीं
क्या वादे किये तुमने अपनी सीली आँखों से
मेरे लिए तो
वो नमी हीं काफी थी
थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रहती हूँ
धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
तुमने देख ली होगी
मेरे होंठों पे वो कांपती हुई कशिश
और उनपे बार-बार जीभ फेर कर
भिंगाने की मेरी विवशता
और भांप ली होगी वो कमजोरी भी
जिसकी वजह से कोई
किसी की बांहों में निढाल हो जाता है
उस कुछ देर की मुलाक़ात में
अब बताऊँ भी तो
सदा गतिमान होने का दंभ भरने वाला
ये वक़्त क्या मान लेगा
कि वो ठहर गया था
वो धौंकनी सी जलती हुई मेरी सांस थी
जिसपे तुमने अपने पसीने वाले हाथ
रख दिए थे
और कैसे छनाके की आवाज हुई थी
मेरे रोम में
जैसे जलते कोयले पे
किसी ने पानी उड़ेल दिया हो
खुदा जानता है
कि वो दिन का वक़्त था
नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे
तुम तो चले आये थे,
मुझे तो याद भी नहीं
क्या वादे किये तुमने अपनी सीली आँखों से
मेरे लिए तो
वो नमी हीं काफी थी
थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रहती हूँ
धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है
Thursday, April 22, 2010
लडकियां चोटी बांधना भूलती जाती थीं
मेरे अन्दर एक डार्क जोन बन गया था
वहां पानी नहीं पहुँचता था
और मुझे पसीझने के लिए भी
पानी दूर से लाना पड़ता था
नदियाँ एक थीं
पर उनका पानी बंटा हुआ था
पानी को बिना महसूस किये नहा लिए जाना
आम बात थी
आज की रात आप एक औरत हैं
ऐसा उसे किसी ने न तो कहा था
और न हीं महसूसा था
वो अपने चुम्बनों को
होठों से नहीं उतार पायी थी कभी
वो अकेली कमाऊ लड़की थी उस घर के लिए
दहेज़ विरोधी कानून उनंचास साल पहले बन गया था
पर बहुत सारे लड़कियों की शादी अभी भी नहीं होती थी
और बहुत जन्म भी नहीं ले पाती थी
बच्चे सुबह से उठ कर खेलने लगते थे
या काम करने लगते थे
आम जनों में यह बात फ़ैल गयी थी
कि पढ़-लिख कर आदमी बेकार हो जाता है
स्कूली युनिफोर्म पहने बच्चे
ढाबों पे चाय पिलाते थे
या साईकिल की दुकानों पे
पंक्चर ठीक करते थे
या फिर वे ऐसी जगहों पे भेंड चराते हुए देखे जाते थे
जहाँ मुश्किल से कोई घास होती थी
स्कूल का मास्टर कभी -कभी आता था
उसके दारू की दूकान बहुत चलती थी
दूध वाले, सब्जी वाले और परचून की दूकान वाले सभी को
तकनीकों का बहुत अच्छा ज्ञान था
और वे उसका भरपूर इस्तेमाल भी करते थे
कोई घोंड़े की लीद से धनिया बनाता था
तो कोई हीपोलीन से पनीर
कुछ लोग जिन्दगी के इस पार रह जाते थे
कुछ उस पार
सरकार पुल नहीं बना पाती थी
सरकार को जब भ्रष्टाचार करना होता था
तो वो विकास की परियोजनाएं लाती थीं
लडकियां चोटी बांधना भूलती जाती थीं
चोटी बाँधने वाली लडकियां अब प्यार नहीं की जाती थीं
देह से ऊपर गया प्यार
और पैसे से ऊपर गयी मानवता
दोनों हीं उनके ज्ञान में नहीं था
या वे इसे मूर्खतापूर्ण मानते थे
मनु शर्मा को उम्रकैद की सजा मिल जाती थी
पर लोगों का
कानून से भरोसा उठा हुआ हीं रहता था
वे जानते थे कि एक दिन सब मारे जायेंगे
पर वे अंतिम व्यक्ति होना चाहते थे
मरने के मामले में ...
वहां पानी नहीं पहुँचता था
और मुझे पसीझने के लिए भी
पानी दूर से लाना पड़ता था
नदियाँ एक थीं
पर उनका पानी बंटा हुआ था
पानी को बिना महसूस किये नहा लिए जाना
आम बात थी
आज की रात आप एक औरत हैं
ऐसा उसे किसी ने न तो कहा था
और न हीं महसूसा था
वो अपने चुम्बनों को
होठों से नहीं उतार पायी थी कभी
वो अकेली कमाऊ लड़की थी उस घर के लिए
दहेज़ विरोधी कानून उनंचास साल पहले बन गया था
पर बहुत सारे लड़कियों की शादी अभी भी नहीं होती थी
और बहुत जन्म भी नहीं ले पाती थी
बच्चे सुबह से उठ कर खेलने लगते थे
या काम करने लगते थे
आम जनों में यह बात फ़ैल गयी थी
कि पढ़-लिख कर आदमी बेकार हो जाता है
स्कूली युनिफोर्म पहने बच्चे
ढाबों पे चाय पिलाते थे
या साईकिल की दुकानों पे
पंक्चर ठीक करते थे
या फिर वे ऐसी जगहों पे भेंड चराते हुए देखे जाते थे
जहाँ मुश्किल से कोई घास होती थी
स्कूल का मास्टर कभी -कभी आता था
उसके दारू की दूकान बहुत चलती थी
दूध वाले, सब्जी वाले और परचून की दूकान वाले सभी को
तकनीकों का बहुत अच्छा ज्ञान था
और वे उसका भरपूर इस्तेमाल भी करते थे
कोई घोंड़े की लीद से धनिया बनाता था
तो कोई हीपोलीन से पनीर
कुछ लोग जिन्दगी के इस पार रह जाते थे
कुछ उस पार
सरकार पुल नहीं बना पाती थी
सरकार को जब भ्रष्टाचार करना होता था
तो वो विकास की परियोजनाएं लाती थीं
लडकियां चोटी बांधना भूलती जाती थीं
चोटी बाँधने वाली लडकियां अब प्यार नहीं की जाती थीं
देह से ऊपर गया प्यार
और पैसे से ऊपर गयी मानवता
दोनों हीं उनके ज्ञान में नहीं था
या वे इसे मूर्खतापूर्ण मानते थे
मनु शर्मा को उम्रकैद की सजा मिल जाती थी
पर लोगों का
कानून से भरोसा उठा हुआ हीं रहता था
वे जानते थे कि एक दिन सब मारे जायेंगे
पर वे अंतिम व्यक्ति होना चाहते थे
मरने के मामले में ...
Sunday, April 18, 2010
बढ़ते तापमान में गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
इसमें कोई अतिरंजन या रोमांटिसिज्म नहीं है
जब मैं कह रहा हूँ
कि आजकल रोज जुड़ रहा है थोड़ा-थोड़ा प्यार
हमारे बीच
पहले से जमा होते प्यार में
रोज बढ़ रहा है प्यार
रोज खिल रहे हैं
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब हमारे बीच
बढ़ते प्यार के साथ
यह एक अलग सा अनुभव है मेरे लिए
जिसमें कुछ सपने रोज हो रहे हैं पूरे
और बन रहें हैं रोज कुछ नए
उगने से पकने तक की
प्रक्रिया पूरी करके
बहुत खुश हो रहे हैं सपने
खुश हो रहे हैं
हमारे बीच के
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब.
यहाँ तक तो सब खुशनुमा है
मगर इसके उलट दूसरी तरफ
चढ़ रहा है पारा
झुलस रहे हैं गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
जल रहे हैं सपने
और तापमान का तैश बढ़ता हीं जा रहा है
तापमान का बढ़ना
प्यार के बढ़ने जैसा नहीं होता
बल्कि उसके विपरीत
बढ़ा देता है पृथ्वी पे पहले से बेकाबू हुईं असमानताएं
पिघला देता है ध्रुवों का भविष्य
खेतों में मिटटी से खेलने वाले बच्चों को
ठेल देता है कट्टे* की फैक्ट्रियों में
हम कब तक सोते रहेंगे वातानुकूलित कमरों में
काटते रहेंगे पेंड
बर्बाद करेंगे पानी
बंजर करते रहेंगे खेत
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां
*कट्टा = देशी पिस्तौल
[यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित/पुरस्कृत है. आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत किया है कुछ परिवर्तनों के साथ . ]
जब मैं कह रहा हूँ
कि आजकल रोज जुड़ रहा है थोड़ा-थोड़ा प्यार
हमारे बीच
पहले से जमा होते प्यार में
रोज बढ़ रहा है प्यार
रोज खिल रहे हैं
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब हमारे बीच
बढ़ते प्यार के साथ
यह एक अलग सा अनुभव है मेरे लिए
जिसमें कुछ सपने रोज हो रहे हैं पूरे
और बन रहें हैं रोज कुछ नए
उगने से पकने तक की
प्रक्रिया पूरी करके
बहुत खुश हो रहे हैं सपने
खुश हो रहे हैं
हमारे बीच के
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब.
यहाँ तक तो सब खुशनुमा है
मगर इसके उलट दूसरी तरफ
चढ़ रहा है पारा
झुलस रहे हैं गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
जल रहे हैं सपने
और तापमान का तैश बढ़ता हीं जा रहा है
तापमान का बढ़ना
प्यार के बढ़ने जैसा नहीं होता
बल्कि उसके विपरीत
बढ़ा देता है पृथ्वी पे पहले से बेकाबू हुईं असमानताएं
पिघला देता है ध्रुवों का भविष्य
खेतों में मिटटी से खेलने वाले बच्चों को
ठेल देता है कट्टे* की फैक्ट्रियों में
हम कब तक सोते रहेंगे वातानुकूलित कमरों में
काटते रहेंगे पेंड
बर्बाद करेंगे पानी
बंजर करते रहेंगे खेत
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां
*कट्टा = देशी पिस्तौल
[यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित/पुरस्कृत है. आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत किया है कुछ परिवर्तनों के साथ . ]
Wednesday, April 14, 2010
सूखती नदियाँ और उदासी
दिन ऊबर-खाबड़ थे
और रास्ते में जो नदियाँ मिलती थीं
उनका पानी नीचे उतर गया होता था
बारिश पे चील-कौए मंडराते थे
ईश्वर को कोसती थी एक बूढी औरत
गीली हवा के इंतज़ार में
रातों का अँधेरा टूट जाता था
और रातें सुबह तक बिखरी हुई मिलती थीं
या रस्सी से लटकी हुईं
ख्वाब से कोई भी लिपटना नहीं चाहता था
नींद पे चोट के निशाँ पड़ जाते थे
सबको उदास होना पता था
और अनिवार्य रूप से
दिन के किसी भी वक़्त
उदास होना जरूरी हुआ करता था
दर्दों को जब कुरेदा जाता था
तो वहां से केवल रोजमर्रा की
कुछ चीजें निकलती थीं
आंसुओं के खर्चे बढ़ गए थे
और बांटने या समेटने से वे
किसी तरह कम नहीं होते थे
हम में से ज्यादातर ये भूल गए थे
दुःख कैसे कम किया जाता है
दरअसल एक विसिअस सर्कल बन गया था
आंसू निकलते थे इसलिए दुःख होता था
और दुःख होता था इसलिए आंसू निकलते थे
हाथों में लहरें पकड़ के
सागर के किनारे बैठना मना था
और यह किसी और सदी की बात थी
जब प्यार हुआ करता था
उनकी जरूरतें थीं
और उन्ही का नाम प्यार रख दिया गया था
जरूरतों में शरीर से लग कर सोना
और बच्चे पैदा करना प्रमुख थे
मैं जहाँ भी गया था
बकरियां बबूल खाती मिलती थीं
और पता लगता था
कि ये सब पानी न होने के वजह से था
पानी खो गया था,
आदमी के भीतर भी और बाहर भी
और सूखे कुँए में
रोज कोई न कोई कूद जाता था
और रास्ते में जो नदियाँ मिलती थीं
उनका पानी नीचे उतर गया होता था
बारिश पे चील-कौए मंडराते थे
ईश्वर को कोसती थी एक बूढी औरत
गीली हवा के इंतज़ार में
रातों का अँधेरा टूट जाता था
और रातें सुबह तक बिखरी हुई मिलती थीं
या रस्सी से लटकी हुईं
ख्वाब से कोई भी लिपटना नहीं चाहता था
नींद पे चोट के निशाँ पड़ जाते थे
सबको उदास होना पता था
और अनिवार्य रूप से
दिन के किसी भी वक़्त
उदास होना जरूरी हुआ करता था
दर्दों को जब कुरेदा जाता था
तो वहां से केवल रोजमर्रा की
कुछ चीजें निकलती थीं
आंसुओं के खर्चे बढ़ गए थे
और बांटने या समेटने से वे
किसी तरह कम नहीं होते थे
हम में से ज्यादातर ये भूल गए थे
दुःख कैसे कम किया जाता है
दरअसल एक विसिअस सर्कल बन गया था
आंसू निकलते थे इसलिए दुःख होता था
और दुःख होता था इसलिए आंसू निकलते थे
हाथों में लहरें पकड़ के
सागर के किनारे बैठना मना था
और यह किसी और सदी की बात थी
जब प्यार हुआ करता था
उनकी जरूरतें थीं
और उन्ही का नाम प्यार रख दिया गया था
जरूरतों में शरीर से लग कर सोना
और बच्चे पैदा करना प्रमुख थे
मैं जहाँ भी गया था
बकरियां बबूल खाती मिलती थीं
और पता लगता था
कि ये सब पानी न होने के वजह से था
पानी खो गया था,
आदमी के भीतर भी और बाहर भी
और सूखे कुँए में
रोज कोई न कोई कूद जाता था
Thursday, April 8, 2010
जरूरतें, विश्वास और सपना
जब तुम घोंप आये
उसकी पीठ में छुरा
मैंने देखा
उसके खून में पानी बहुत था
जिन मामूली जरूरतों को लेकर
तुम घोंप आये छुरा
उन्ही जरूरतों ने
कर दिया था उसका खून पानी
**
तुम बार-बार खोओगे
विश्वास
कहीं सुरक्षित रख के
वे इधर-उधर हो जाते हैं
रोजमर्रा की
कुछेक जरूरी चीजों के हेर-फेर में
***
बहुत तेजी से
बदल रही हैं कुछ जरूरतें
सपनो में
जैसे घर एक जरूरत था पहले
पर अब एक सपना है
****
वक्त भाग कर
जल्दी-जल्दी दिन गुजारता है
जब उसे
इक रात की जरूरत होती है
और रात
नींद की जरूरत में
वक़्त को सो कर गुजार देती है
*****
उसकी पीठ में छुरा
मैंने देखा
उसके खून में पानी बहुत था
जिन मामूली जरूरतों को लेकर
तुम घोंप आये छुरा
उन्ही जरूरतों ने
कर दिया था उसका खून पानी
**
तुम बार-बार खोओगे
विश्वास
कहीं सुरक्षित रख के
वे इधर-उधर हो जाते हैं
रोजमर्रा की
कुछेक जरूरी चीजों के हेर-फेर में
***
बहुत तेजी से
बदल रही हैं कुछ जरूरतें
सपनो में
जैसे घर एक जरूरत था पहले
पर अब एक सपना है
****
वक्त भाग कर
जल्दी-जल्दी दिन गुजारता है
जब उसे
इक रात की जरूरत होती है
और रात
नींद की जरूरत में
वक़्त को सो कर गुजार देती है
*****
Sunday, April 4, 2010
तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद
मैं तुम्हें हमेशा याद रखना चाहता था
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो
मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े
पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद
******
तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए
उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे
मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो
******
अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह
वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के
अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं
******
ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो
मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े
पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद
******
तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए
उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे
मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो
******
अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह
वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के
अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं
******
ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.
Tuesday, March 30, 2010
आवाज की हमने कभी नही सुनी !
सुबह-सुबह इक ख्वाब गिर गया है आँख से
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
Thursday, March 25, 2010
अपने दुखों को सार्वजनिक करने से बचते हुए...
1]
वे कहीं भी और कितना भी रो सकते हैं
चाहे सड़क पे जोर-जोर से
या फिर कविता में चुप-चुप
कवि होने से
उन्हें मिली हुई है इतनी छूट
और ऐसा मान लिया गया है कि रोना
उनके काम का हिस्सा है
और इसलिए उस पर ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं है
हाँ...कभी-कभी ताली बजाई जा सकती है
अगर वह बहुत सुन्दर या संगीतबद्ध रोये तो
उन्हें गाडियों के शोर के बीच
अपनी हेलमेट के भीतर चेहरा छुपाते हुए
या चलती ट्रेन के शौचालय में
नहीं रोना होता,
जैसा कि वे लोग करते हैं जो कवि नहीं हैं
2]
आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है.
जब भी हम मिलते हैं
उसके चेहरे पे दीखता है एक भाव
वैसा, जैसे कि उसने अभी रोना शुरू हीं किया हो
और बीच में हीं मुस्कुराना पड़ गया हो
तमाम तरह के दुखों के बीच से गुजरते हुए,
वे थकते रहते हैं खुश दीखते रहने की कोशिश में
और करते चलते है
कई तरह के दुखों कों स्थगित
किसी उपयुक्त समय और मौके के लिए
साथ हीं साथ
वे डरते भी रहते हैं
नकारात्मक दृष्टिकोण रखने के
नकारात्मक परिणामों से
और इसलिए
आधे से ज्यादा खाली ग्लास कों
जबरदस्ती आधे से ज्यादा भरा देखते हैं
वे लगातार जीते रहते हैं खुश रहने के दबाब को
और एक दिन मर जाते हैं
तब उनके चेहरे पे
खुश दिखाई पड़ते रहने की वेदना उभरी हुई होती है
3]
अपने दुखों को
सार्वजनिक करने से बचना सिखाया जाता है उन्हें,
उन्हें नहीं बताया जाता
कि कब और कैसे रोयें वे,
नहीं सिखाया जाता उन्हें रोने का सही इस्तेमाल
धीरे-धीरे जब बढ़ जाता है
दुःख का दबदबा
और वह परिवर्तित होने लगता है
हृदयाघात या रक्तचाप में
वे सुबह सुबह किसी पार्क में
एक झुण्ड बनाते हैं
और जोर-जोर से हँसते हुए रोते हैं
4]
जब भी मौका हाथ लगे
तुम जरूर रो लेना
उस रोते हुए कवि या उसकी रोती कविता की आड़ में
क्यूंकि
एक अकेला कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जबकि उसे अपने लिए भी रोना है ....
वे कहीं भी और कितना भी रो सकते हैं
चाहे सड़क पे जोर-जोर से
या फिर कविता में चुप-चुप
कवि होने से
उन्हें मिली हुई है इतनी छूट
और ऐसा मान लिया गया है कि रोना
उनके काम का हिस्सा है
और इसलिए उस पर ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं है
हाँ...कभी-कभी ताली बजाई जा सकती है
अगर वह बहुत सुन्दर या संगीतबद्ध रोये तो
उन्हें गाडियों के शोर के बीच
अपनी हेलमेट के भीतर चेहरा छुपाते हुए
या चलती ट्रेन के शौचालय में
नहीं रोना होता,
जैसा कि वे लोग करते हैं जो कवि नहीं हैं
2]
आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है.
जब भी हम मिलते हैं
उसके चेहरे पे दीखता है एक भाव
वैसा, जैसे कि उसने अभी रोना शुरू हीं किया हो
और बीच में हीं मुस्कुराना पड़ गया हो
तमाम तरह के दुखों के बीच से गुजरते हुए,
वे थकते रहते हैं खुश दीखते रहने की कोशिश में
और करते चलते है
कई तरह के दुखों कों स्थगित
किसी उपयुक्त समय और मौके के लिए
साथ हीं साथ
वे डरते भी रहते हैं
नकारात्मक दृष्टिकोण रखने के
नकारात्मक परिणामों से
और इसलिए
आधे से ज्यादा खाली ग्लास कों
जबरदस्ती आधे से ज्यादा भरा देखते हैं
वे लगातार जीते रहते हैं खुश रहने के दबाब को
और एक दिन मर जाते हैं
तब उनके चेहरे पे
खुश दिखाई पड़ते रहने की वेदना उभरी हुई होती है
3]
अपने दुखों को
सार्वजनिक करने से बचना सिखाया जाता है उन्हें,
उन्हें नहीं बताया जाता
कि कब और कैसे रोयें वे,
नहीं सिखाया जाता उन्हें रोने का सही इस्तेमाल
धीरे-धीरे जब बढ़ जाता है
दुःख का दबदबा
और वह परिवर्तित होने लगता है
हृदयाघात या रक्तचाप में
वे सुबह सुबह किसी पार्क में
एक झुण्ड बनाते हैं
और जोर-जोर से हँसते हुए रोते हैं
4]
जब भी मौका हाथ लगे
तुम जरूर रो लेना
उस रोते हुए कवि या उसकी रोती कविता की आड़ में
क्यूंकि
एक अकेला कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जबकि उसे अपने लिए भी रोना है ....
Sunday, March 21, 2010
उल्के
आजकल
ये तारा
टिमटिमाता रहता है अकेला
अभी कुछ रोज पहले तक
देखता था इसे
चाँद के बहुत क़रीब
उसकी
मुलायम चाँदनी में नहाते हुए
डर है
चाँद जब तक लौट कर आए
ये तारा
कहीं उल्के में न बदल जाए
ये तारा
टिमटिमाता रहता है अकेला
अभी कुछ रोज पहले तक
देखता था इसे
चाँद के बहुत क़रीब
उसकी
मुलायम चाँदनी में नहाते हुए
डर है
चाँद जब तक लौट कर आए
ये तारा
कहीं उल्के में न बदल जाए
Monday, March 15, 2010
जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है
कितनी देर और,
भला कितनी देर और
लिखी जा सकती है इस तरह
इक तरफ़ा
प्रेम या विरह की कवितायें
हालांकि यह किसी शक या शिकवा करने जैसा है
और इसलिए मैं अभी तक बचता रहा हूँ यह कहने से
कि मुझे नहीं मालुम
तुम्हारी रातों में दरारें पड़ती हैं या नहीं
और अगर हाँ तो क्या वहां से कुछ रिसता भी है
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे
मुझे आज क्यूँ ये लग रहा है कि
उस नीम के पेंड के सूखते तने में
कील से ठोक कर चली गयी मुझे तुम
और मैं रिस रहा हूँ वहां से लगातार कवितायें,
और तुम्हारी रातों में
इक दरार तक नहीं
जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है
जबकि मैं थोड़ी देर और लिखते रहना चाहता हूँ
प्रेम और विरह की कवितायेँ
इसी तरह
यह जानते हुए भी कि
तुम्हारी रातें हैं अक्षत...अविघ्न..
भला कितनी देर और
लिखी जा सकती है इस तरह
इक तरफ़ा
प्रेम या विरह की कवितायें
हालांकि यह किसी शक या शिकवा करने जैसा है
और इसलिए मैं अभी तक बचता रहा हूँ यह कहने से
कि मुझे नहीं मालुम
तुम्हारी रातों में दरारें पड़ती हैं या नहीं
और अगर हाँ तो क्या वहां से कुछ रिसता भी है
जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे
मुझे आज क्यूँ ये लग रहा है कि
उस नीम के पेंड के सूखते तने में
कील से ठोक कर चली गयी मुझे तुम
और मैं रिस रहा हूँ वहां से लगातार कवितायें,
और तुम्हारी रातों में
इक दरार तक नहीं
जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है
जबकि मैं थोड़ी देर और लिखते रहना चाहता हूँ
प्रेम और विरह की कवितायेँ
इसी तरह
यह जानते हुए भी कि
तुम्हारी रातें हैं अक्षत...अविघ्न..
Friday, March 5, 2010
मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार !
मै तुम्हें कितना कम प्यार देता हूँ
और उतने से हीं तुम
कितना ज्यादा भर जाती हो
ऐसा नहीं है कि
तुम्हारी धारिता कम है
या इच्छा
पर जितना
ख्वाब के भीतर रहकर
दिया जा सकता है प्यार
उतना मुश्किल होता है देना
ख्वाब के बाहर रहते हुए,
मेरे लिए और शायद किसी के लिए भी,
तुम जानती हो
तुम जानती हो
कि इस बदल चुके हालात में
जब कहीं-कहीं बहुत कम हो रहे हैं बादल
और कहीं-कहीं बहुत ज्यादा हो रही है बर्फ,
फसलें लील लेती हैं जमीन कों हीं
और उससे जुडा सीमान्त किसान
फंदे बाँध लेता है
तुम जानती हो
कि मांग को थाह में रखना कितना जरूरी है
चाहे वो प्यार की हीं मांग हो
मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए
प्यार किसी एक वर्षीय या
पंचवर्षीय योजना की तरह नहीं है
जिसमे सब कुछ एक निर्धारित समय के लिए होता है
और जैसा कि अभी चलन में है
बल्कि सतत चलायमान प्रक्रिया है
ये प्यार तुम्हारे लिए
और तुम चाहती हो
फसल थोड़ी हो पर कोंख बंजर न होने पाए
तभी तो मेरे कितने कम प्यार से
तुम कितना ज्यादा भर जाती हो
और मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार
वे जान जाते हैं
कि मैं तुम्हें कर रहा हूँ थोडा सा प्यार
आगे के लिए बचा कर रखते हुए अपना प्यार.
और उतने से हीं तुम
कितना ज्यादा भर जाती हो
ऐसा नहीं है कि
तुम्हारी धारिता कम है
या इच्छा
पर जितना
ख्वाब के भीतर रहकर
दिया जा सकता है प्यार
उतना मुश्किल होता है देना
ख्वाब के बाहर रहते हुए,
मेरे लिए और शायद किसी के लिए भी,
तुम जानती हो
तुम जानती हो
कि इस बदल चुके हालात में
जब कहीं-कहीं बहुत कम हो रहे हैं बादल
और कहीं-कहीं बहुत ज्यादा हो रही है बर्फ,
फसलें लील लेती हैं जमीन कों हीं
और उससे जुडा सीमान्त किसान
फंदे बाँध लेता है
तुम जानती हो
कि मांग को थाह में रखना कितना जरूरी है
चाहे वो प्यार की हीं मांग हो
मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए
प्यार किसी एक वर्षीय या
पंचवर्षीय योजना की तरह नहीं है
जिसमे सब कुछ एक निर्धारित समय के लिए होता है
और जैसा कि अभी चलन में है
बल्कि सतत चलायमान प्रक्रिया है
ये प्यार तुम्हारे लिए
और तुम चाहती हो
फसल थोड़ी हो पर कोंख बंजर न होने पाए
तभी तो मेरे कितने कम प्यार से
तुम कितना ज्यादा भर जाती हो
और मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार
वे जान जाते हैं
कि मैं तुम्हें कर रहा हूँ थोडा सा प्यार
आगे के लिए बचा कर रखते हुए अपना प्यार.
Monday, March 1, 2010
उस नीम के पेंड के पत्ते !
मैं अटक जाता हूँ
उस नीम के पेंड पे,
जब भी कोई रंग हो,रौशनी हो
या फिर बसंत हो, बहार हो
आज भी होली पे
शाम तक डोलते रहेंगे मेरी शाख पे
उदासी के सफ़ेद रंग में
सूखे हुए
उस नीम के पेंड के पत्ते
मैं अटक जाता हूँ
उस नीम के पेंड पे
जो कभी गुलमोहर था
उस नीम के पेंड पे,
जब भी कोई रंग हो,रौशनी हो
या फिर बसंत हो, बहार हो
आज भी होली पे
शाम तक डोलते रहेंगे मेरी शाख पे
उदासी के सफ़ेद रंग में
सूखे हुए
उस नीम के पेंड के पत्ते
मैं अटक जाता हूँ
उस नीम के पेंड पे
जो कभी गुलमोहर था
Thursday, February 25, 2010
अच्छी चीजों का इंतज़ार कितना अच्छा होता है न !
वो ठीक मेरे
एहसास से लग कर सोती है आजकल
और मैं
अपनी नींद में उसे देखते हुए
कभी-कभी जब
जाग जाते हैं मेरे एहसास उससे पहले
तो रोकता हूँ उनका उठना
ताकि नाजुक नींद टिकी रहे उसकी
और मैं देख सकूँ वही सब जाग कर
जो देखता हूँ सोते हुए
उसकी नींद यूँ लगती है जैसे
भीतर हीं भीतर
कर रहा होऊं मैं
उसके ख्वाब से कोई ठिठोली
और उतर रही हो लाली उसके गाल पर
कभी-कभी हम रजाई बन जाते हैं
और समेटते हैं सिहरन
एक दूसरे की,
हमें देख कर सूरज भी आसमान लपेट लेता है
और सोया रहता है देर तक
मैं चाहता हूँ कि
वो जागे कभी गर मुझसे और सूरज से पहले
तो उठे नहीं बिस्तर से
बस करवट लेकर कविता में आ जाए
ताकि सबसे सुन्दर प्रेम कविता लिखी जा सके उस दिन
और मैं जानता हूँ कि
ये जरा भी मुश्किल नहीं है
सिर्फ उसे पता भर लगने की देर है
पर मैं बताने के बजाय इंतज़ार करता हूँ
अच्छी चीजों का इंतज़ार कितना अच्छा होता है न !
एहसास से लग कर सोती है आजकल
और मैं
अपनी नींद में उसे देखते हुए
कभी-कभी जब
जाग जाते हैं मेरे एहसास उससे पहले
तो रोकता हूँ उनका उठना
ताकि नाजुक नींद टिकी रहे उसकी
और मैं देख सकूँ वही सब जाग कर
जो देखता हूँ सोते हुए
उसकी नींद यूँ लगती है जैसे
भीतर हीं भीतर
कर रहा होऊं मैं
उसके ख्वाब से कोई ठिठोली
और उतर रही हो लाली उसके गाल पर
कभी-कभी हम रजाई बन जाते हैं
और समेटते हैं सिहरन
एक दूसरे की,
हमें देख कर सूरज भी आसमान लपेट लेता है
और सोया रहता है देर तक
मैं चाहता हूँ कि
वो जागे कभी गर मुझसे और सूरज से पहले
तो उठे नहीं बिस्तर से
बस करवट लेकर कविता में आ जाए
ताकि सबसे सुन्दर प्रेम कविता लिखी जा सके उस दिन
और मैं जानता हूँ कि
ये जरा भी मुश्किल नहीं है
सिर्फ उसे पता भर लगने की देर है
पर मैं बताने के बजाय इंतज़ार करता हूँ
अच्छी चीजों का इंतज़ार कितना अच्छा होता है न !
Saturday, February 20, 2010
एक बार अपने आगोश दृश्य कर दो मुझे
जहाँ तुम्हारी नींद हाथ रखती है
वहीँ मैं हो गया हूँ खड़ा
इस उम्मीद में कि
आज नहीं तो कल, तेरा ख्वाब हो जाऊँगा
अब जबकि सारी दुनिया ओट हो चुकी है
आवाज खींच के तुमने जो तानी है, उससे
मैं बेसब्र हो रहा हूँ कि
कितनी जल्दी तुम झुक जाओ तानपुरे पे
मुझे धुन देने के वास्ते,
और मैं निःशब्द हो जाऊं
मैं बहता हूँ पर शजर नहीं हिलते
खाली-खाली रह जाती है मेरी छुअन,
जिस्म जीवन का मिल जाए
अंक में भर लिया जाऊं गर तेरे एक बार
इसी इंतज़ार में हूँ बस
खाली हो गया था किसी समय,
कोई जगह सुनसान हो गयी थी मेरे अन्दर
और फिर भरा नहीं गया कभी
मेरी रिक्तता कों अब
तुम्हारी रूह मिले, तो चैन मिले
कुछ करो
कुछ करो अब कि
अगली बार जब पलकें झपक कर उठें
तो तुम्हारा आगोश सामने हों
एक बार अपने आगोश दृश्य कर दो मुझे
वहीँ मैं हो गया हूँ खड़ा
इस उम्मीद में कि
आज नहीं तो कल, तेरा ख्वाब हो जाऊँगा
अब जबकि सारी दुनिया ओट हो चुकी है
आवाज खींच के तुमने जो तानी है, उससे
मैं बेसब्र हो रहा हूँ कि
कितनी जल्दी तुम झुक जाओ तानपुरे पे
मुझे धुन देने के वास्ते,
और मैं निःशब्द हो जाऊं
मैं बहता हूँ पर शजर नहीं हिलते
खाली-खाली रह जाती है मेरी छुअन,
जिस्म जीवन का मिल जाए
अंक में भर लिया जाऊं गर तेरे एक बार
इसी इंतज़ार में हूँ बस
खाली हो गया था किसी समय,
कोई जगह सुनसान हो गयी थी मेरे अन्दर
और फिर भरा नहीं गया कभी
मेरी रिक्तता कों अब
तुम्हारी रूह मिले, तो चैन मिले
कुछ करो
कुछ करो अब कि
अगली बार जब पलकें झपक कर उठें
तो तुम्हारा आगोश सामने हों
एक बार अपने आगोश दृश्य कर दो मुझे
Friday, February 19, 2010
मुहब्बत मानो फिर लौटी है
मुहब्बत मानो फिर लौटी है
बांहों को एक नाजुक से आगोश की आमद है
धडकनों को कुछ और धडकनों की आहट है
चाँद फिर कंगन सा है
और सितारे फिर आँचल सा
यूँ लगता है कि
वो मेरी उंगलियाँ ले जा कर
अपने हारमोनिअम पे टिका लेने वाली है
और मैं पिआनो की तरह बज जाने वाला हूँ
मैं जानता हूँ कि
इस भरी हुई रात में
मैं लिखूं गर कोई नज्म
तो उसके हर सफ्हे में मौजूद होओगी तुम
और तुम्हारी मुहब्बत भी
पर लिखने से पहले
याद आ जाती है वो पुरानी नज्में मेरी
जहाँ से चली गयी थी
वो और उसकी मुहब्बत...
बांहों को एक नाजुक से आगोश की आमद है
धडकनों को कुछ और धडकनों की आहट है
चाँद फिर कंगन सा है
और सितारे फिर आँचल सा
यूँ लगता है कि
वो मेरी उंगलियाँ ले जा कर
अपने हारमोनिअम पे टिका लेने वाली है
और मैं पिआनो की तरह बज जाने वाला हूँ
मैं जानता हूँ कि
इस भरी हुई रात में
मैं लिखूं गर कोई नज्म
तो उसके हर सफ्हे में मौजूद होओगी तुम
और तुम्हारी मुहब्बत भी
पर लिखने से पहले
याद आ जाती है वो पुरानी नज्में मेरी
जहाँ से चली गयी थी
वो और उसकी मुहब्बत...
Sunday, February 14, 2010
जब सुनसान हो जाती है पृथ्वी
तुम बची रहोगी
उन पुरानी
उतार दी गयी कपड़ों की सिलवटों में
और महसूस हो जाओगी अचानक
जब किसी दिन
यूँ हीं ढूंढ रहा होऊंगा कोई कपड़ा
कुछ पोंछने के लिए,
ये मैंने सोंचा नहीं था
मुझे ये बिलकुल नहीं लगा था
कि इस सतही वक़्त में
जब प्यार इतना उथला हो गया है,
कोई इतने लम्बे अरसे तक
एक सिलवट में रहना चाहेगा इतना गहरा
वो भी तब जब
महसूस लिए जाने की संभावना बिलकुल नगण्य हो
जबकि वक़्त ने छोड़ दिया है रिश्तों की परवाह करना
और बनने से पहले हीं टूटने लगी हैं चीजें
तुम इतनी संजीदगी से
कैसे बचा सकती हो रेत का घड़ा
और पानी आँखों में
मुझे ये भी नहीं पता
तुम्हे अचानक सिलवटों में उस रोज
पा लेने के बाद
यूँ हीं बिना बात,
बिना किसी ताज़ी पृष्ठभूमि के
मुझे जब-तब रुलाई आ जाया करेगी
ख़ास कर उन रातों कों
जब सुनसान हो जाती है पृथ्वी
तुम जब
थी हकीकत में,
इतनी तो नहीं थी संजीदा !!
उन पुरानी
उतार दी गयी कपड़ों की सिलवटों में
और महसूस हो जाओगी अचानक
जब किसी दिन
यूँ हीं ढूंढ रहा होऊंगा कोई कपड़ा
कुछ पोंछने के लिए,
ये मैंने सोंचा नहीं था
मुझे ये बिलकुल नहीं लगा था
कि इस सतही वक़्त में
जब प्यार इतना उथला हो गया है,
कोई इतने लम्बे अरसे तक
एक सिलवट में रहना चाहेगा इतना गहरा
वो भी तब जब
महसूस लिए जाने की संभावना बिलकुल नगण्य हो
जबकि वक़्त ने छोड़ दिया है रिश्तों की परवाह करना
और बनने से पहले हीं टूटने लगी हैं चीजें
तुम इतनी संजीदगी से
कैसे बचा सकती हो रेत का घड़ा
और पानी आँखों में
मुझे ये भी नहीं पता
तुम्हे अचानक सिलवटों में उस रोज
पा लेने के बाद
यूँ हीं बिना बात,
बिना किसी ताज़ी पृष्ठभूमि के
मुझे जब-तब रुलाई आ जाया करेगी
ख़ास कर उन रातों कों
जब सुनसान हो जाती है पृथ्वी
तुम जब
थी हकीकत में,
इतनी तो नहीं थी संजीदा !!
Friday, February 12, 2010
फैशन, मैं और मेरा डर
पुरानापन फैशन में था
पुरानी हवेलियाँ और किले
नए तरीके से पुराने बनाये रखे जाते थे,
उजाड़-झंखाड़ हो चुकी इमारतों पर
लाखो डॉलर खर्च करके
उनके नवीकरण के दौरान
उनका पुरानापन बचा लिया जाता था
नए लोगों में पुरानी चीजों के लिए बड़ा लगाव था
मगर सिर्फ चीजों में
पुराने लोगों में से उन्हें 'बास' आती थी
अमीर लोगों के बीच
गरीब लगने का फैशन था
वे फटी और घिसी हुई जींस ऊँचे दामों में खरीदते थे
और गरीब होने का अमीर सुख उठाते थे
वे वर्तमान में हीं 'एंटिक' हो जाने के प्रयास में थे
इसलिए अक्सर पुराने 'स्टाइल' में नजर आते थे
फैशन के दीवाने लोग
इस बात की बहुत अधिक फिक्र करते थे
कि वे बेफिक्र दिखें
वे 'रिंकल' वाले कपडे खरीदते थे,
बेतरतीब बाल रखते थे
और उनके बीच 'प्रेस' न करने का फैशन था
इसी तरह वे कमर से बहती हुई पैंट पहनते थे
मगर अक्सर
इंसानियत के नाले में बहते जाने के बारे में वे बेखबर होते थे
शो को रियल बनाने का फैशन था
रियलिटी शो में भावुकता के 'सीन' लिखे और फिल्माए जाते थे
वहाँ बहुत अदबी लोग, बेअदबी पे उतर आते थे
कुछ यूँ हँसते थे कि समाज की नब्ज हिल जाती थी
उनमे से कुछ यूँ रो पड़ते थे
जैसे उन्हें पता हीं न हो
कि भारत की एक तिहाई आबादी
इतने तरह के दर्दों में होती है
कि मुश्किल से हीं कभी रो पाती है
दरअसल भावुक होना फैशन में था
और वे डरे हुए थे कि कहीं उनके पास बैठा व्यक्ति
उससे भी छोटी बात पे उससे ज्यादा न रो दे
इन सबको देखता कवि सोंचता है
कि एक घर जो वास्तव में बहुत पुराना है
कि एक आदमी जिसकी जींस वास्तव में फटी है
कि एक आदमी जिसके कपडे वास्तव में मुचड़े हैं
और बाल बिखरे हैं
और जो दर्द से रो रहा है
वो इनके समकक्ष क्यों खड़ा नहीं है
हालांकि कवि कों ये डर भी है
कि कहीं ऐसा न हो
कि ऐसा सोंचना फैशन में हो
और इसलिए वो सोंचता हो...
पुरानी हवेलियाँ और किले
नए तरीके से पुराने बनाये रखे जाते थे,
उजाड़-झंखाड़ हो चुकी इमारतों पर
लाखो डॉलर खर्च करके
उनके नवीकरण के दौरान
उनका पुरानापन बचा लिया जाता था
नए लोगों में पुरानी चीजों के लिए बड़ा लगाव था
मगर सिर्फ चीजों में
पुराने लोगों में से उन्हें 'बास' आती थी
अमीर लोगों के बीच
गरीब लगने का फैशन था
वे फटी और घिसी हुई जींस ऊँचे दामों में खरीदते थे
और गरीब होने का अमीर सुख उठाते थे
वे वर्तमान में हीं 'एंटिक' हो जाने के प्रयास में थे
इसलिए अक्सर पुराने 'स्टाइल' में नजर आते थे
फैशन के दीवाने लोग
इस बात की बहुत अधिक फिक्र करते थे
कि वे बेफिक्र दिखें
वे 'रिंकल' वाले कपडे खरीदते थे,
बेतरतीब बाल रखते थे
और उनके बीच 'प्रेस' न करने का फैशन था
इसी तरह वे कमर से बहती हुई पैंट पहनते थे
मगर अक्सर
इंसानियत के नाले में बहते जाने के बारे में वे बेखबर होते थे
शो को रियल बनाने का फैशन था
रियलिटी शो में भावुकता के 'सीन' लिखे और फिल्माए जाते थे
वहाँ बहुत अदबी लोग, बेअदबी पे उतर आते थे
कुछ यूँ हँसते थे कि समाज की नब्ज हिल जाती थी
उनमे से कुछ यूँ रो पड़ते थे
जैसे उन्हें पता हीं न हो
कि भारत की एक तिहाई आबादी
इतने तरह के दर्दों में होती है
कि मुश्किल से हीं कभी रो पाती है
दरअसल भावुक होना फैशन में था
और वे डरे हुए थे कि कहीं उनके पास बैठा व्यक्ति
उससे भी छोटी बात पे उससे ज्यादा न रो दे
इन सबको देखता कवि सोंचता है
कि एक घर जो वास्तव में बहुत पुराना है
कि एक आदमी जिसकी जींस वास्तव में फटी है
कि एक आदमी जिसके कपडे वास्तव में मुचड़े हैं
और बाल बिखरे हैं
और जो दर्द से रो रहा है
वो इनके समकक्ष क्यों खड़ा नहीं है
हालांकि कवि कों ये डर भी है
कि कहीं ऐसा न हो
कि ऐसा सोंचना फैशन में हो
और इसलिए वो सोंचता हो...
Monday, February 8, 2010
बार-बार 'चेन पुलिंग' हो रही है ...
*
बार-बार 'चेन पुलिंग' हो रही है
जिंदगी
थोड़ी देर के लिए रूकती है
और फिर चल देती है
बस हर बार
चेन पुलिंग होने पे
कुछ लोग जिन्दगी से उतर जाते है
**
शहर,
जहाँ गुजारते हैं हम
अपना लहू, अपनी मांस-मज्जा
उम्र भर देते रहते हैं
अपनी त्वचा का प्रोटीन
इसके प्रदुषण कों देते हैं अपना फेफड़ा
अपनी धमनियां व शिराएँ
उस शहर की बाबन हाथ की आंत है
और हमारी औकात सिर्फ साढ़े तीन हाथ की है
***
वक़्त हीं तय करेगा
चीजों का
जरूरी या गैर-जरूरी पना
या रेट करेगा
स्केल पे घटनाओं की तीव्रता
और उसके आधार पे
बचाएगा या खर्च करेगा खुद को
हमारे हाथ में लेते हीं वो रेत हो जाएगा
****
आज टूट गया है,
आइना इश्क का
रूह देखती आयी थी एक उम्र तलक चेहरा जिसमे
बदन छोड़ गया है साथ
बेबा हो गयी है रूह!
*****
कुछ रूहें
जो उलझ जाती होंगी पापकर्म में
उस परलोक में
भर जाता होगा जिनके पापों का घड़ा
वे रूहें पाती होंगी इस पृथ्वी पे
एक बेहद कोमल ह्रदय वाला बदन
और ईमानदार मन
ताकि वे दुःख उठायें लगातार.
बार-बार 'चेन पुलिंग' हो रही है
जिंदगी
थोड़ी देर के लिए रूकती है
और फिर चल देती है
बस हर बार
चेन पुलिंग होने पे
कुछ लोग जिन्दगी से उतर जाते है
**
शहर,
जहाँ गुजारते हैं हम
अपना लहू, अपनी मांस-मज्जा
उम्र भर देते रहते हैं
अपनी त्वचा का प्रोटीन
इसके प्रदुषण कों देते हैं अपना फेफड़ा
अपनी धमनियां व शिराएँ
उस शहर की बाबन हाथ की आंत है
और हमारी औकात सिर्फ साढ़े तीन हाथ की है
***
वक़्त हीं तय करेगा
चीजों का
जरूरी या गैर-जरूरी पना
या रेट करेगा
स्केल पे घटनाओं की तीव्रता
और उसके आधार पे
बचाएगा या खर्च करेगा खुद को
हमारे हाथ में लेते हीं वो रेत हो जाएगा
****
आज टूट गया है,
आइना इश्क का
रूह देखती आयी थी एक उम्र तलक चेहरा जिसमे
बदन छोड़ गया है साथ
बेबा हो गयी है रूह!
*****
कुछ रूहें
जो उलझ जाती होंगी पापकर्म में
उस परलोक में
भर जाता होगा जिनके पापों का घड़ा
वे रूहें पाती होंगी इस पृथ्वी पे
एक बेहद कोमल ह्रदय वाला बदन
और ईमानदार मन
ताकि वे दुःख उठायें लगातार.
Wednesday, February 3, 2010
अभी मैं कविता के एक मुश्किल वक्फ़े में हूँ
अभी मैं
कविता के उस मुश्किल वक्फ़े में हूँ
जहाँ अंतर्द्वंद मांग करता है एक सिगरेट
और आस-पास के सारे लब्ज
कन्नी काटते लगते हैं
हालांकि
खुल कर सामने नहीं आ रहे अभी वे
पर उनकी आँखों में इनकार की स्पष्ट रेखा है
और मैं भी ज्यादा जोर नहीं दे रहा उनपे
ये सोंच कर कि
कहीं गुरेर न दे वे आँख अपनी
दरअसल मैंने सुना है
उन्हें बतियाते हुए
वे भरे हैं रोष से
प्रेम के बेहद गैर-जिम्मेदाराना रवैये के बारे में,
प्रेम से लुप्त होती जा रही पारदर्शिता
और प्रेम के लगातार दागदार होते जाने पर
उनका कहना है
कि प्रेम कवितायेँ एक झांसा है
जो लाती है
कुछ टूटे व्यक्तियों की उम्मीदों में गैर जरूरी उछाल
और बढ़ा देती है उनके समंदर की आँखों का वजन
कि प्रेम कवितायें
प्रेम जैसी किसी चीज की
वास्तविक उपस्थिति के बारे में
बस एक धोखा भर है
कि बचपन और किशोरावस्था के बीच
सिकुड़ती जा रही दूरी के बीच खड़े मासूमों की
मौत का सबब हैं ये प्रेम कवितायें
वे मुझे नकारते हैं
मेरी किसी भी ऐसी कोशिश के विरोध में
जिसमें प्रेम कों 'देवदासिया' दिखाया जाने वाला होता है
आगे उनकी योजना है
कि किसी भी ऐसी कविता या
ऐसे षड़यंत्र रच रहे कवि के खिलाफ
लब्ज लामबंद होंगे
उन्हें कवि कर्म से निष्कासित किया जाएगा
या नहीं तो कम से कम
लम्बे समय तक
मुअत्तल किया जाएगा
अभी मैं
कविता के उस मुश्किल वक्फे में हूँ
जहाँ प्रेम के होने और न होने पर भारी अंतर्द्वंद है
लब्ज उद्वेलित हैं
और मैं खोज रहा हूँ एक सिगरेट
और सोंच रहा हूँ
प्रेम और प्रेम कविता में से कौन पहले जा रहा है...
कविता के उस मुश्किल वक्फ़े में हूँ
जहाँ अंतर्द्वंद मांग करता है एक सिगरेट
और आस-पास के सारे लब्ज
कन्नी काटते लगते हैं
हालांकि
खुल कर सामने नहीं आ रहे अभी वे
पर उनकी आँखों में इनकार की स्पष्ट रेखा है
और मैं भी ज्यादा जोर नहीं दे रहा उनपे
ये सोंच कर कि
कहीं गुरेर न दे वे आँख अपनी
दरअसल मैंने सुना है
उन्हें बतियाते हुए
वे भरे हैं रोष से
प्रेम के बेहद गैर-जिम्मेदाराना रवैये के बारे में,
प्रेम से लुप्त होती जा रही पारदर्शिता
और प्रेम के लगातार दागदार होते जाने पर
उनका कहना है
कि प्रेम कवितायेँ एक झांसा है
जो लाती है
कुछ टूटे व्यक्तियों की उम्मीदों में गैर जरूरी उछाल
और बढ़ा देती है उनके समंदर की आँखों का वजन
कि प्रेम कवितायें
प्रेम जैसी किसी चीज की
वास्तविक उपस्थिति के बारे में
बस एक धोखा भर है
कि बचपन और किशोरावस्था के बीच
सिकुड़ती जा रही दूरी के बीच खड़े मासूमों की
मौत का सबब हैं ये प्रेम कवितायें
वे मुझे नकारते हैं
मेरी किसी भी ऐसी कोशिश के विरोध में
जिसमें प्रेम कों 'देवदासिया' दिखाया जाने वाला होता है
आगे उनकी योजना है
कि किसी भी ऐसी कविता या
ऐसे षड़यंत्र रच रहे कवि के खिलाफ
लब्ज लामबंद होंगे
उन्हें कवि कर्म से निष्कासित किया जाएगा
या नहीं तो कम से कम
लम्बे समय तक
मुअत्तल किया जाएगा
अभी मैं
कविता के उस मुश्किल वक्फे में हूँ
जहाँ प्रेम के होने और न होने पर भारी अंतर्द्वंद है
लब्ज उद्वेलित हैं
और मैं खोज रहा हूँ एक सिगरेट
और सोंच रहा हूँ
प्रेम और प्रेम कविता में से कौन पहले जा रहा है...
Sunday, January 31, 2010
पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...
कुछ दुखों कों अस्तित्व में आना था
मेरा शरीर काम आया
मुक्त हुए वे देह पाकर
मगर अपनी अंतिम यात्रा पे
जाते-जाते
वे राह बता गए
और कई सारे दुखों को
और तब से उनकी आमद
बदस्तूर जारी है
सोंचता हूँ
बहुत सारे सुख भी होंगे
कतार में
देह पाकर प्रकट होने जाने के वास्ते खड़े
फिर सोंचता हूँ
शायद उन्हें भी
बता गए हों कुछ पूर्वज सुख
कुछ पते-ठिकाने
जहां प्रकट हो रहे हों वे लगातार
मैं अपनी देह लेकर
नहीं गया कभी उन तक
न हीं कोशिश की
कि पता चले उनको मेरी देह का पता
जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता रहा है
कि इस दुनिया से
पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...
मेरा शरीर काम आया
मुक्त हुए वे देह पाकर
मगर अपनी अंतिम यात्रा पे
जाते-जाते
वे राह बता गए
और कई सारे दुखों को
और तब से उनकी आमद
बदस्तूर जारी है
सोंचता हूँ
बहुत सारे सुख भी होंगे
कतार में
देह पाकर प्रकट होने जाने के वास्ते खड़े
फिर सोंचता हूँ
शायद उन्हें भी
बता गए हों कुछ पूर्वज सुख
कुछ पते-ठिकाने
जहां प्रकट हो रहे हों वे लगातार
मैं अपनी देह लेकर
नहीं गया कभी उन तक
न हीं कोशिश की
कि पता चले उनको मेरी देह का पता
जाने क्यूँ मुझे हमेशा लगता रहा है
कि इस दुनिया से
पहले दुखों का मुक्त होना जरूरी है...
Thursday, January 28, 2010
बारिश में भींगती शाम
भरी दोपहर में घर लौटकर
देखा
कि तुम कहीं और
मुझसे दूर, बहुत दूर
बारिश में भींगती शाम लग रही हो
मैंने अक्सर सोंचा है
कि तुम बारिश में भींगती शाम हीं हो
या उसके लिए
मेरा
भरी दोपहरी में होना जरूरी है
और तब
मेरी आँखें मुस्का गयी हैं ये जान कर कि
दरअसल मेरी सोंच हीं तुम्हारी बारिश में भींगी है
और मैं
कभी भी भरी दोपहर में घर लौट कर
तुम्हें
बारिश में भींगी शाम की तरह पा सकता हूँ
तुम जवान हीं पैदा हुई
मैंने देखा तुम्हे जनमते हुए अपने ख्वाब में
एक भरी दोपहर को घर लौट कर ली हुई झपकी में.
तुम मेघ भरे काले दुपट्टे में जन्मीं थी
जो बरस कर मुझे पसीने से तर-बतर कर गयी थी
उसके बाद तो
मेरी आँखों ने
तुम्हारा सुरीलापन न जाने कितनी दफा पढ़ा
और तुमने एक बार भी अपनी धुनें गिरने नहीं दीं
न जाने कितनी रातों को हम चले चाँद के साथ
वो घटता-बढ़ता रहा
और हम जोड़ते रहे अपनी रातों के लिए
जरूरते भर रोशनी
वे सफ़र कभी ख़त्म नहीं हुए
और आज भी बदस्तूर जारी हैं
आज भी मैं उठता हूँ
तो उसी बिस्तर से
जहाँ से उठाई थी मैंने आखरी नींद तुम्हारे साथ
मुझे मुबारक है वो झपकी
और वो ख्वाब
जिसमें पैदा हुई तुम
और अक्सर मनाता हूँ तुम्हारा जन्म दिन
भरी दोपहर में घर लौट कर
जिसमें तुम बारिश में भींगती शाम लगती हो
भले हीं दूर, बहुत दूर शायद..
देखा
कि तुम कहीं और
मुझसे दूर, बहुत दूर
बारिश में भींगती शाम लग रही हो
मैंने अक्सर सोंचा है
कि तुम बारिश में भींगती शाम हीं हो
या उसके लिए
मेरा
भरी दोपहरी में होना जरूरी है
और तब
मेरी आँखें मुस्का गयी हैं ये जान कर कि
दरअसल मेरी सोंच हीं तुम्हारी बारिश में भींगी है
और मैं
कभी भी भरी दोपहर में घर लौट कर
तुम्हें
बारिश में भींगी शाम की तरह पा सकता हूँ
तुम जवान हीं पैदा हुई
मैंने देखा तुम्हे जनमते हुए अपने ख्वाब में
एक भरी दोपहर को घर लौट कर ली हुई झपकी में.
तुम मेघ भरे काले दुपट्टे में जन्मीं थी
जो बरस कर मुझे पसीने से तर-बतर कर गयी थी
उसके बाद तो
मेरी आँखों ने
तुम्हारा सुरीलापन न जाने कितनी दफा पढ़ा
और तुमने एक बार भी अपनी धुनें गिरने नहीं दीं
न जाने कितनी रातों को हम चले चाँद के साथ
वो घटता-बढ़ता रहा
और हम जोड़ते रहे अपनी रातों के लिए
जरूरते भर रोशनी
वे सफ़र कभी ख़त्म नहीं हुए
और आज भी बदस्तूर जारी हैं
आज भी मैं उठता हूँ
तो उसी बिस्तर से
जहाँ से उठाई थी मैंने आखरी नींद तुम्हारे साथ
मुझे मुबारक है वो झपकी
और वो ख्वाब
जिसमें पैदा हुई तुम
और अक्सर मनाता हूँ तुम्हारा जन्म दिन
भरी दोपहर में घर लौट कर
जिसमें तुम बारिश में भींगती शाम लगती हो
भले हीं दूर, बहुत दूर शायद..
Saturday, January 23, 2010
जगहें, जहाँ प्यार अब उपस्थित नहीं
हालांकि
यूथ हॉस्टल के जरा आगे
जहाँ शहीद स्मारक है
उनकी सीढ़ियों पे अभी भी बैठते हैं कुछ युगल
अभी भी होती है उन पे बारिश
और कभी-कभी तो ख़ास सिर्फ उन सीढ़ियों के लिए हीं
मैं नहीं गुजरता उस तरफ से,
मुझ पे नहीं होती अब बारिश
उसी तरह
डियर पार्क के पास
अभी भी बिकती है कॉफ़ी
बल्कि अब बढ़ गयी हैं कॉफ़ी की दुकाने वहां पे
और उससे सटे बगीचे में पड़े पत्थर के बेंचों पे
स्थायी रूप से बैठा करते हैं
सहसंबंध
पर मैं संबंध के सह नहीं अब
इसके अलावा वे अवस्थित हैं
जलमहल के किनारे
नाहरगढ़ की ऊँचाइयों पे
सेन्ट्रल पार्क के भव्य खालीपन में
जवाहर कला केंद्र की कलाओं में
यहाँ कुछ और नाम आसानी से जोड़े जा सकते हैं
कुछ और भी जगहें हैं
जो प्यार में उगाई गयी हैं
या उगाई जा रही हैं
जिनके बारे में कईयों कों मालुम नहीं
पर जहाँ जन्म लेती हैं
अनंत प्रेम कलाएं नियमित तौर पे
पर मुझे क्यूँ लगता है
कि स्टेच्यु सर्कल से लेकर सेन्ट्रल पार्क तक
या फिर यूनिवर्सिटी से लेकर जवाहर कला केंद्र तक
या आमेर से लेकर जंतर मंतर तक
कहीं बचा नहीं है प्यार
बिलकुल हीं नहीं
मैं अक्सर सोंचता हूँ...
प्यार तो शाश्वत है
वो तुम्हारे जुदा होने से ख़त्म कैसे हो सकता है !
यूथ हॉस्टल के जरा आगे
जहाँ शहीद स्मारक है
उनकी सीढ़ियों पे अभी भी बैठते हैं कुछ युगल
अभी भी होती है उन पे बारिश
और कभी-कभी तो ख़ास सिर्फ उन सीढ़ियों के लिए हीं
मैं नहीं गुजरता उस तरफ से,
मुझ पे नहीं होती अब बारिश
उसी तरह
डियर पार्क के पास
अभी भी बिकती है कॉफ़ी
बल्कि अब बढ़ गयी हैं कॉफ़ी की दुकाने वहां पे
और उससे सटे बगीचे में पड़े पत्थर के बेंचों पे
स्थायी रूप से बैठा करते हैं
सहसंबंध
पर मैं संबंध के सह नहीं अब
इसके अलावा वे अवस्थित हैं
जलमहल के किनारे
नाहरगढ़ की ऊँचाइयों पे
सेन्ट्रल पार्क के भव्य खालीपन में
जवाहर कला केंद्र की कलाओं में
यहाँ कुछ और नाम आसानी से जोड़े जा सकते हैं
कुछ और भी जगहें हैं
जो प्यार में उगाई गयी हैं
या उगाई जा रही हैं
जिनके बारे में कईयों कों मालुम नहीं
पर जहाँ जन्म लेती हैं
अनंत प्रेम कलाएं नियमित तौर पे
पर मुझे क्यूँ लगता है
कि स्टेच्यु सर्कल से लेकर सेन्ट्रल पार्क तक
या फिर यूनिवर्सिटी से लेकर जवाहर कला केंद्र तक
या आमेर से लेकर जंतर मंतर तक
कहीं बचा नहीं है प्यार
बिलकुल हीं नहीं
मैं अक्सर सोंचता हूँ...
प्यार तो शाश्वत है
वो तुम्हारे जुदा होने से ख़त्म कैसे हो सकता है !
Tuesday, January 19, 2010
सिरहाने में से आधा चाहिए...
सिरहाने में से
आधा चाहिए...
जब आऊं किचेन से काम कर के
और तुम पहले से रजाई में रहो
तब चाहिए
तुम्हारी हथेली और तलवे से आधा ताप
चाहिए अपने कंधे पे तुम्हारा एक हाथ
और कदम सारे साथ-साथ
जहाँ जहां मैं तुम्हारा आधा लेकर
हो सकती हूँ पूरी,
खड़ी हो सकती हूँ तुम्हारे साथ
वहां-वहां चाहिए तुम्हारा आधा
और कई जगह चाहिए पूरा भी...
ऑफिस के लिए घर से निकलते समय
चाहिए एक पूरा आलिंगन
और माथे पे एक पूरा चुम्बन
और चाहिए तुझमें अपनी पूरी सिमटनशाम ढले जब तुम ऑफिस से लौटो तो
तुम्हारी आँखों के लौ
और होंट के स्वर भी चाहिए
जितना तुम दे सको
और बदले में इसके
मेरी तरफ से
एक पूरा ग्लास समर्पण
जब तुम घर लौट कर सोफे पे बैठो तो
बाकी कभी-कभी तो हम
साथ पान खा हीं सकते है
आधा चाहिए...
जब आऊं किचेन से काम कर के
और तुम पहले से रजाई में रहो
तब चाहिए
तुम्हारी हथेली और तलवे से आधा ताप
चाहिए अपने कंधे पे तुम्हारा एक हाथ
और कदम सारे साथ-साथ
जहाँ जहां मैं तुम्हारा आधा लेकर
हो सकती हूँ पूरी,
खड़ी हो सकती हूँ तुम्हारे साथ
वहां-वहां चाहिए तुम्हारा आधा
और कई जगह चाहिए पूरा भी...
ऑफिस के लिए घर से निकलते समय
चाहिए एक पूरा आलिंगन
और माथे पे एक पूरा चुम्बन
और चाहिए तुझमें अपनी पूरी सिमटनशाम ढले जब तुम ऑफिस से लौटो तो
तुम्हारी आँखों के लौ
और होंट के स्वर भी चाहिए
जितना तुम दे सको
और बदले में इसके
मेरी तरफ से
एक पूरा ग्लास समर्पण
जब तुम घर लौट कर सोफे पे बैठो तो
बाकी कभी-कभी तो हम
साथ पान खा हीं सकते है
Friday, January 15, 2010
एक जरूरी गैर-कविता !
मैंने उसकी मदद कर दी आज
अच्छा लगा करना
मैं उसे जानता नहीं था
इसलिए और अच्छा लगा करना
बाद में जब उसने जताया आभार
और अच्छा लगा
ज्यादा अच्छा लगा
उसकी आँख में देख कर
जिसमे दिखाई पड़ी मुझे
एक कौंधी हुई विश्वास की लकीर
कि अच्छे लोग अभी भी हैं दुनिया में
उसकी आँखों में ये कौंधा हुआ विश्वास
मेरे भीतर
जरा देर के लिए
एक अच्छा आदमी पैदा कर गया
एक अच्छा आदमी
अपने अन्दर देखना अच्छा लगा
आज अनजाने में कुछ अच्छा हो गया
तो अच्छा लगा
बहुत अच्छा
अच्छा लगा करना
मैं उसे जानता नहीं था
इसलिए और अच्छा लगा करना
बाद में जब उसने जताया आभार
और अच्छा लगा
ज्यादा अच्छा लगा
उसकी आँख में देख कर
जिसमे दिखाई पड़ी मुझे
एक कौंधी हुई विश्वास की लकीर
कि अच्छे लोग अभी भी हैं दुनिया में
उसकी आँखों में ये कौंधा हुआ विश्वास
मेरे भीतर
जरा देर के लिए
एक अच्छा आदमी पैदा कर गया
एक अच्छा आदमी
अपने अन्दर देखना अच्छा लगा
आज अनजाने में कुछ अच्छा हो गया
तो अच्छा लगा
बहुत अच्छा
Saturday, January 9, 2010
हमारे बीच केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है!
*
थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर
फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का
फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया
और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे
बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!
**
स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने
सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.
***
घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है
उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।
****
न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो
न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है
*****
तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था
वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।
*******
समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ
मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा
थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर
फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का
फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया
और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे
बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!
**
स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने
सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.
***
घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है
उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।
****
न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो
न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है
*****
तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था
वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।
*******
समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ
मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा
Sunday, January 3, 2010
तुम्हें तो नीम भी नही मिलता होगा!
रात जब दो बजा देती है
और लाख कोशिशों के बावजूद
हर्फ़ उतार नहीं पाते उसकी आगोश कों
कागज़ पे
मैं कंही भी, जो भी मिल जाए,
उसमें समां जाने के लिए
निकल पड़ता हूँ सुनसान सड़क पर।
मैं लिपट जाता हूँ नीम से
और लिपटा रहता हूं
सोंचते हुए देर तक
नीम की लम्बी उम्र और
और बिना आगोश के जीने की उसकी विवशता के बारे में।
मैं फटकारता हूँ
ख़ुद को उसकी विवशता पर
और छोड़ देता हूँ अपनी शक्ल को
रोता हुआ हो जाने के लिए
यह जानते हुए
कि इस अँधेरी रात में किसी के बिना देखे
धीमे-धीमे रोना सम्भव है,
पर रोना धीरे-धीरे तेज हो जाता है
और मुझे पकडनी पड़ती है अपनी शक्ल
रोते-रोते यह भी सोंचता हूँ
कि मैं निश्चित रूप से अब प्यार नही करता उससे
और इसलिए हीं नही उतार पाता
उसकी आगोश को कागज़ पर
और फ़िर और जोर से रोने लगता हूँ प्यार के ख़त्म हो जाने पर,
पर यह शायद प्यार हीं होगा,
जो ख़त्म होने पे मुझे रुलाता है
इन सबके बावजूद
मैं हमेशा ये सोंचता हूँ
कि दो बजने और
कागज़ पे आगोश न बना पाने की
उसकी भी अपनी रुलाई होगी
जिसे रोने के लिए वह अपने मुंह में कपडे कोंच लेती होगी
क्यूंकि रात कों दो बजे उसके लिए घर के बाहर जाना संभव नहीं होता होगा
और उसे तो नीम भी नही मिलता होगा !
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